शनिवार

क्षत्राणी

सामाजिक दुराचार से सुरक्षा

      व्यक्तिगत सदाचार का अर्थ पहले हर व्यक्ति जानता था कि ब्रह्मचर्य का पालन, एक नारी ब्रह्मचारी व विवाह का प्रयोजन दो प्राणों के बीच जन्म जन्मांतर तक की एकता स्थापित करना होता है। जब से कॉन्वेंट स्कूलों व कॉलेजों के माध्यम से विकृत ईसाई संस्कृति का प्रचार-प्रसार हुआ, जिसे आज पाश्चात्य सभ्यता कहा जाता है, ये सारे सदाचार विस्मृत हो गए।
      भाई-बहिन की निंदा न करना, सूर्य भगवान की तरफ मुँह करके मलमूत्र का त्याग नहीं करना, जल व जलाशय, नदियों में मूत्र त्याग नही करना, कमर के नीचे के भाग में स्वर्ण आभूषण नहीं पहनना, बायें हाथ की अंगुली में स्वर्ण की अंगूठी या रत्न धारण नही करना, वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध व तपवृद्ध लोगो के सामने अधिक नहीं बोलना, उनका अनादर हो, ऐसा कोई कर्म नहीं करना ये सब ऐसे व्यक्तिगत सदाचार थे, जिनकों उपर्युक्त सदाचारों के विलुप्त होने से पूर्व ही लोग भूल गए। परिणामस्वरूप व्यक्ति दिन प्रतिदिन अधिक आचरणभ्रष्ट, वाचाल, दंभी व स्वार्थी होता चला गया।
        इस व्यक्तिगत सदाचार के भंग होने का परिणाम यह हुआ कि सामाजिक सदाचार विमुक्त होने लगा व उसका स्थान सामाजिक दुराचारों ने ग्रहण कर लिया। समाज को सदाचारी बनाए रखने के लिए व दुराचार से बचने के लिए यह आवश्यक है कि हम पहले व्यक्तिगत सदाचार की ओर ध्यान दें व उसके बाद सामाजिक दुराचार क्या होता है, इसको समझने की चेष्टा करे। लोग समझते है कि एक समाज में जन्में व्यक्तियों के समूह को ही समाज कहते है । इस भ्रान्ति ने ही सामाजिक दुराचार को जन्म दिया। केवल एक समाज में जन्मे लोगों का समूह ही समाज नही होता । समाज वह है जिनका धर्म, जिनकी संस्कृति व इतिहास एक हो तथा समाज के सब लोग धर्म, इतिहास, संस्कृति की रक्षा के लिए जागरूक हों व हमेशा प्रयत्नशील रहें।
       अपरा प्रकृति का स्वभाव प्रदूषण फैलाना है। इस अपरा प्रकृति में हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ, कमेंद्रियां, मन व बुद्धि शामिल है। ये सब मिलकर के समाज में विकृतियाँ, प्रदूषण फैलाने के लिए प्रयत्नशील रहती है। इनके प्रयत्नों को परा प्रकृति के सहयोग से हमेशा विफल करने के लिए जागृत व सक्रिय समाज ही प्रदूषण मुक्त, सभ्य समाज का स्थान प्राप्त कर सकता है।
        आर्थिक, बौद्धिक व आध्यात्मिक दृष्टि से विभिन्न स्थितियों के लोग हर समाज में मिलते है। समाज अथवा सामाजिकता का अर्थ है, सभी स्थितियों के लोग समान रूप से सहज भागीदारी निभा सके, समाज के रीती रिवाज, समाज के आयोजन व धार्मिक आयोजन भी इस प्रकार के हो, जिनको गरीब व अमीर; कम पढ़ा लिखा तथा शिक्षित; आध्यात्मिक क्षेत्र में विकसित व अविकसित सभी प्रकार के लोग जिन्हें समझ सके, बुद्धि व आत्मा से समझ सके व उनका आनंदपूर्वक आयोजन कर सके।
          धनवान लोग जब सामाजिक कार्यक्रमों में, रीती रिवाजों में व रहन-सहन में वैभव का प्रदर्शन कर लोगों को अपनी ओर आकर्षित करके अपने अहंकार का तुष्टिकरण करना चाहते है,तब इसके दो परिणाम आते है, पहला-कमजोर आर्थिक स्थिति वाले लोग प्रदर्शन में उनके समान बनने के लिए अधिक धन व्यय करके कर्जदार बन जाते है तथा अपने व अपनी संतानों के जीवन को सदा के लिए दुःखमय बना लेते है । दूसरी तरफ - जो लोग इस प्रतिस्पर्धा में नही पड़ते उनमे दरिद्रता तो नहीं आती लेकिन हीनता की भावना अवश्य घर कर लेती है जो समाज के विभाजन के बीज बोती है। इसलिए धनवानों द्वारा प्रदर्शित वैभव का प्रदर्शन निश्चित रूप से सामाजिक दुराचार ही कहा जाएगा । अतः लोगों का यह कर्त्तव्य होना चाहिए की ऐसे वैभव के प्रदर्शन को सम्मान देने के बजाय उनके आयोजनों का बहिष्कार करे। आज ऐसा नही हो रहा है, इसीलिए समाज विघटित व विखंडित हो चला है।
        जब हमारे पास राज्य थे व विकृत संस्कृति की की छाया हमारी सामाजिकता पर नही गिरी थी, तब तक हमारे प्रत्येक रीती रिवाज व धार्मिक कृत्य इतने साधारण व कम खर्चीले थे कि गरीब व अमीर सभी लोग एक समान स्तर पर आयोजन करते थे, इससे विघटनकारी तत्वों को जन्म लेने का अवसर नहीं मिलता था। देवी देवताओं के भोग के लिए पुए-पूड़ी बनाना, पच वीरों के भोग के लिए बाटी बाकले बनाना, भाई-जँवाई जैसे प्रिय अतिथियों के लिए भोजन में मूँग-चावल तैयार करना, विवाह सम्बन्ध बिना कुछ लेन-देन की बात किए रिश्तेदारों द्वारा तय करना, सीमित संख्या में बारातियों के साथ बारात ले जाना, बिना पूर्ण जाँच किए विवाह सम्बन्ध न करना, ऐसी बातें थी जो समाज को आर्थिक बोझ से बचाती थी। जबसे आधुनिक पाश्चात्य शिक्षा व उसकी असभ्य जीवन शैली का प्रचार-प्रसार व विस्तार हुआ है, हमारी उपर्युक्त सादगी समाप्त हो गई है। अनावश्यक वस्तुओं पर इतना खर्च होने लगा है कि अनावश्यक वस्तुओं पर ध्यान देने के लिए व धन की व्यवस्था करने के लिए हमारी आर्थिक स्थिति जवाब दे देती है।
         शिक्षा के क्षेत्र में हमारा समाज पहले ही पिछड़ गया है व अब स्थिति इतनी भयानक है कि हमको शिक्षा के क्षेत्र में भयानक रूप से पिछड़ना पड़ेगा। लोकतंत्र के नाम पर संचार पर प्रभुत्व जमाने वाला पूँजीवाद, प्रचार-प्रसार के माध्यमो पर कब्ज़ा करके लोगों को मुर्ख बनाने में अब तक पूर्णसफल रहा है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता व आत्म निर्भरता जैसे लुभावने नारों का आश्रय लेकर उसने पहले समाजों को विखण्डित किया  फिर परिवारों को विखंडित किया  अब मात्र दो व्यक्तियों के परिवार रह गए है जो भी उसे फूटी आँख नही सुहाते । विज्ञान के चमत्कार व सुविधाओं की चकचौन्ध में व्यक्ति इस कदर पागल है कि वह दिन-रात दौड़कर कमा तो रहा है किन्तु अपने उपार्जन का अधिकांश भाग स्तर (स्टेट्स) के प्रदर्शन पर अपव्यय कर इतना दरिद्र बनता जा रहा है कि बच्चे बच्चियों की शिक्षा के लिए धन शेष ही नहीं रह पाता। अगले पांच वर्षो में स्थिति यह होने वाली है कि स्नातक शिक्षा का कोई महत्त्व नहीं रहेगा व स्नातक होने के बाद यदि आपको अपने बच्चों को कोई ऐसी शिक्षा दिलानी है, जिससे वह कमाने लायक बन सके तो उसके लिए कम से कम 10-15 लाख रुपयों की आवश्यकता होगी। क्या अपव्यय रूपी राक्षक को सामाजिक दुराचार को यथावत रखते हुए हम अपने बच्चों को रोजगार मिल सके, ऐसी शिक्षा दिला पाएंगे। अगर नहीं, तो समझ लेना चाहिए कि खर्चीले रीती रिवाजो का हमारा आज का सामाजिक दुराचार कल हमारी संतानों के विनाश का कारण बनेगा।
      दूसरी समाजों के संपन्न लोग महँगे रीती रिवाजों व ऐसे रीती रिवाज जिनका धर्म व समाज से कोई सम्बन्ध नही है, इसलिए प्रचलित कर रहे है ताकि वे हमारी अर्थ व्यवस्था को तोड़ सके व स्वयं संपन्न बन सकें । हमारे अपव्यय से जो लोग कमा रहे है वे ही हमारे शत्रु है व उन्हीं के द्वारा इन खर्चीले रीती रिवाजों  व आयोजनों का प्रचार-प्रसार व अविष्कार किया जा रहा है।
        खर्चा कम करने के लिए नये नये नारों में फँसकर हमे हमारे रीती-रिवाज व परम्पराओं का परित्याग करने के बजाय, उन्ही रीती-रिवाज व परम्पराओं को जीवित रखते हुए उनमे सादगी व पवित्रता का समावेश करना चाहिए।
       अपनी परम्परागत वेशभूषा का परित्याग भी सामाजिक दुराचार की श्रेणी में आता है। कम से कम पारिवारिक व  सामाजिक-समारोह में तो पारिवारिक वेशभूषा को धारण करना आवश्यक होना चाहिए। आज तो लोगों को किस अवसर पर कैसे वस्त्र पहिने जाते है, इसका भी बोध नही है। केसरिया व चुन्दडी के साफे बाँधकर गमो के कार्यक्रमों में लोग काफी संख्या में जाते हुए दिखाई देते है को सामाजिक दुराचार है। महिलाओं ने यद्यपि सामाजिक वेशभूषा धारण करके परम्पराओं को जीवित रखा है। लेकिन सधवा(सुहागन) व विधवा के परिधानों के अंतर का पहनाव उनमें भी विलुप्त होता जा रहा है। जिन चीजों को लोग भूल गए है जानकार लोगिन के माध्यम से उन्हें सीखना व ग्रहण करना चाहिए।
       हमारे विवाह जैसे संस्कारिक कर्मों व उत्तराधिकार जैसी सामाजिक परम्पराओं में सपिण्डता व समानोदकता का हमेशा ध्यान रखा गया था । लेकिन आज अज्ञान, स्वार्थ अथवा कुशोभत के कारण हम इन परम्पराओं का परित्याग करने लगे है जो सामाजिक दुराचार है । मातृ पक्ष की चार पीढ़ी अर्थात नांदेरा, दादेरा, पड़दादेरा व सड़दादेरा इन चरों की सात पीढ़ी तक सपिण्डता (भाईचारा) रहता है। अतः इनसे वैवाहिक सम्बन्ध नही हो सकते व पिता के कुल में 100 पीढ़ी तक समादोनक भाव (भाईचारा) रहता है। अतः अपने कुल की सौ पीढ़ी में विवाह नही हो सकते । अगर कोई भाईचारे वाले परिवारों में विवाह करता है तो सामाजिक दुराचार है।
         सपिण्डता वाला भाईचारा अस्थाई है। अतः ऐसे भाईचारे को उत्तराधिकार का अधिकार नही है। समानोदक भाव स्थिर भाव है जो 100 पीढ़ियों तक कायम रहता है। अतः उत्तराधिकार का अधिकार केवल अपने कुटुंब के लोगों को ही प्राप्त होता है। हमारे शास्त्रों में लड़की का भी पिता की संपत्ति में अधिकार माना गया है, इसलिए दहेज़ का विरोध करना असामाजिक कृत्य है। पिता अपनी स्वेच्छा से यथाशक्ति अपनी संपत्ति का एक भाग पुत्री को दहेज़ में देता है जो शास्त्र सम्मत है। लेकिन टिके व दहेज़ माँगना अथवा अन्य किसी रीती-रिवाजों के नाम पर विवाहोपरांत भी लड़की के घर से कुछ माँगने की चेष्टा करना ; शास्त्रों में राक्षसी कर्म बताया गया है। माँग की पूर्ति करने पर विवाह करने को असुर विवाह कहा गया है। अतः लड़की की दहेज देना सुकर्म व सामाजिक सदाचार है लेकिन लड़की के घर से माँग कर कुछ भी प्राप्त करना कुकर्म  व असामाजिक कृत्य है । ऐसे कार्यों का बहिष्कार होना चाहिए।
       बच्चों में दो प्रवृत्तियाँ प्रमुख होती है - एक कहानियाँ सुनने की व दूसरी खेलने की। हमारे परम्परागत खेल जो बच्चों में सहनशीलता, स्नेह व दृढ़ता का प्रादुर्भाव करते थे, आज समाप्त हो चुके है। नानी, दादियों द्वारा सुनाई जाने वाली छोटी-छोटी कहानियाँ बच्चों में कर्म की महिमा, वीरता व त्याग का संचार करती थी, वे भी आज समाप्त हो चुकी है। माता-पिता का कर्त्तव्य है कि बच्चों में संस्कार इन्ही दोनों कार्यों द्वारा ही डाले जा सकते है अतः इन दोनों कार्यों को पुनः जीवित करने का भरसक प्रयास करे ताकि हमारा समाज पुनः एक सभ्य व सुसंस्कारित समाज के अपने आदर्श को प्राप्त करने में सफल हो।

शुक्रवार

सदाचार

सामाजिक सदाचार
      सामाजिक सदाचार ही कालांतर में संस्कृति का रूप ग्रहण करता है । धर्म, संस्कृति व इतिहास क्रमशः समाज के प्राण, सूक्ष्म शरीर व स्थूल शरीर कहे जाते है, क्योंकि इनसे प्रेरणा लेकर ही समाज आगे बढ़ता है। समाज द्वारा जो सुंदर, शुद्ध व प्रशंसनीय कार्य दीर्घ काल तक किए जाते है, वे संस्कृति का रूप ग्रहण करते है, अतः माताओं का यह कर्त्तव्य है कि वे अल्पायु में ही बालकों को संस्कृति का ज्ञान करावें व तदनुसार आचरण करने के लिए उन्हें प्रेरित करे। महात्मा गौतम बुद्ध ने क्षत्रियों के लिए सामाजिक सदाचार के सात नियम बताते हुए कहा था कि इन नियमों का पालन करते हुए कोई भी समाज पराजित नहीं हो सकता है।
      (1) बार-बार एकत्रित होना- गाँव में रहने वाले प्रत्येक क्षत्रिय को व इसी प्रकार नगरों में रहने वालों को अपने मोहल्ले में, प्रतिदिन अथवा सुविधानुसार जैसा नियम बनाया जाए तदनुसार बार-बार एकत्रित होना चाहिए। उससे जहाँ एक ओर स्नेह का विस्तार होगा वहीँ दूसरी ओर मित्र व शत्रु पक्ष की सूचनाएँ प्राप्त होती रहेंगी।
        (2) समग्र रूप से एकत्रित होना - समग्र रूप से एकत्रित वही लोग हो सकते है जिन्होंने अपने जीवन को समग्र रूप सुव्यवस्थित व संघठित किया है। अर्थात उनके जीवन का प्रत्येक कार्य सुव्यवस्थित व समयानुसार होता है, ऐसे जीवन के लिए विचार, भाव व आत्मीय एकता की आवश्यकता होती है। इस प्रकार से अपने जीवन को अनुशासित करने वाले लोग ही समग्र रूप से एकत्रित हो सकते है ; अर्थात वर्ष में एक ऐसा समारोह हो जिसमे समस्त लोग हर परिस्थिति में उपस्थित हो। जब तक लोग एकत्रित नही होने के लिए बहाने व कारण बताते रहेंगे तब तक समग्र एकता का निर्माण सम्भव नही है।
        (3) विधान का पालन - समाज या संघठन के संचालन के लिए नियम बनाकर उनका पालन करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य होना चाहिए। जो लोग अपने ही द्वारा बनाए गए नियमों का स्वार्थ या आलस्यवश या तो नकारते है अथवा उन्हें तोड़ते है वे समाज के साथ शत्रुता का आचरण करते है।
        (4) वयो-वृद्ध निति निपुण लोगों से मार्गदर्शन - बहुत सारे विषय ऐसे है जिनका ज्ञान केवल अनुभव से ही सम्भव है। युवा वर्ग अति उत्साह के वशीभूत ऐसे कार्य कर सकता है जो धर्मयुक्त प्रतीक होते हो, किन्तु कालांतर में जिनका परिणाम विपरीत हो सकता है। अतः प्रत्येक महत्त्वपूर्ण कार्य आरम्भ करने से पूर्व मानपूर्वक समाज के वयोवृद्ध , नीतिज्ञ लोगो से सलाह लेनी चाहिए व उसे स्वीकारना चाहिए।
       (5) स्त्रियों पर अत्याचार नहीं हों - समाज के प्रत्येक वर्ग को ध्यान रखना चाहिए कि कहीं पर भी विवाहित या अविवाहित स्त्रियों पर अत्याचार न हो व उन्हें समुचित सम्मान प्रदान किया जाए, क्योंकि जिस देश अथवा समाज में स्त्रियों पर बलात्कार(प्रताड़ना) होता है वह नष्ट हो जाता है। सभी सदाचारी बने व व्याभिचार को रोकें ।
       (6) कुलदेवी, कुलदेवता, ईष्ट व रक्षक देवताओं की आराधना - गाँव या नगर के अंदर स्थापित कुल देवी, कुलदेवता के मंदिरों अथवा गाँव, नगर की सीमा पर स्थित रक्षक देवताओं के स्थानों का पूर्ण रूप से संरक्षण इसलिए आवश्यक है कि इनकी आराधना व सहयोग के बिना अध्यात्म मार्ग पर आने वाली बाधाओं से निपटना असम्भव नहीं तो अत्यन्त कठिन अवश्य है।
        (7) संतों का संरक्षण व सेवा - गाँव में अथवा निकटस्थ वन क्षेत्र में आये हुए तपस्वी संतों को असुविधा न हो व उन्हें कोई कष्ट न पहुँचाए, इसकी पूर्ण सावधानी रखनी चाहिए।
व्यक्तिगत सदाचार
       (1) झूठ नही बोलना
- तैतरियोपनिषत् से लेकर समस्त शास्त्रों में सत्य बोलने का निर्देश दिया गया है। गौतम बुद्ध राहुल को कहते है कि झूठ बोलने से व्यक्ति स्वल्प, रिक्त व उल्टा हो जाता है। यहाँ तक ही नहीं बल्कि वह यह भी कहते है कि जिसे झूठ बोलने में लज्जा नही आती, उसके लिए समझना चाहिए कि उसने अपने विनाश के सब साधन जुटा लिए है, ऐसे व्यक्ति के समीप भी नहीं रहना चाहिए।
       जब समाज अत्यधिक पतनावस्था में पहुँच जाता है तब अच्छाई की महिमा उसे प्रभावित नहीं कर पाती है। ऐसी अवस्था में बुराई के दुष्परिणामों को प्रत्यक्ष बताकर ही व्यक्ति को कुमार्ग से हटाया जा सकता है। इसलिए बुद्ध कहते है -"हे राहुल ! तुम ऐसा अभ्यास करो कि तुम हँसी-ठट्ठे में भी झूठ नहीं बोलो।" बुद्ध के काल में भी समाज आज की ही भाँति पतनावस्था में पहुँच गया था।
       (2) आत्म निरीक्षण - शरीर, वचन व मन से होने वाले कर्मों के विषय में बार-बार चिंतन करते रहना आत्म निरीक्षण है। जिस कर्म को मन, वाणी या शरीर से किया जाता है उसके परिणामस्वरुप स्वयं को अथवा अन्य किसी को कष्ट हो तो ऐसे कार्य को त्याज्य समझना चाहिए। चिंतन के बाद भी, शरीर या वचन से यदि ऐसा कोई कार्य हो गया है जो आत्महित में बाधक है व परिणामतः दुखकारक है तो ऐसे कर्म को छोड़ देना चाहिए। इसी प्रकार आत्महित में सहायक व अंत में सुखकारक कर्म को बार-बार करते रहना चाहिए।
        यदि तुम्हारे द्वारा किए गए शारीरिक, मानसिक या वाचिक कर्म के द्वारा किसी अन्य व्यक्ति को कष्ट हुआ है तो उस त्रुटि को स्वीकार करो व जिसे कष्ट हुआ है, उससे क्षमा याचना करो व ऐसा कर्म फिर से न हो इसकी पूर्ण सावधानी रखो। यदि दूसरे का अहित चिंतन का केवल मानसिक कर्म हुआ है तो उसके लिए पश्चाताप करो, लज्जा करो और फिर से उस विचार को मन में न  आने दो।
       (3) दुःख के कारण को जानो - इस तथ्य को स्वीकार करो कि तृष्णा ही दुःख का कारण है। जब तक तृष्णा रहेगी तब तक दुःख रहेगा। तृष्णा का विनाश करने से ही दुःख का विनाश सम्भव है और तृष्णा का विनाश सहज व निष्काम भाव से जीवन व्यतीत करने से ही सम्भव है।
        (4) दुष्ट शक्तियों के प्रवेश मार्ग को रोकना - भोगों को भोगने की अभिलाषा, जो कुछ प्राप्त है उससे असंतुष्ट रहना, भूख व प्यास की चिंता, कामनाओ का विस्तार, काल्पनिक भय से भयग्रस्त रहना, अहित होने की वृथा कल्पना करते रहना, अपने आपको पूजित करवाने की कल्पना व प्रयास, जो नहीं प्राप्त हुआ है उसे प्राप्त करने की अभिलाषा, दूसरे लोग मेरा सम्मान करे यह अभिलाषा, लोगो द्वारा पूजित होने की कामना, पाखण्ड व प्रपंचों द्वारा यश प्राप्ति की चेष्टा ऐसे छिद्र है जिनके द्वारा दुष्ट शक्तियाँ हमारे अंदर प्रवेश कर हमें कुमार्ग गामी बनाती है व सत्य के पथ से विचलित करती हैं । इन बुराइयों से ग्रस्त व्यक्ति आत्म-स्तुति व परनिंदा का आश्रय लेकर पतन के गर्त में गिरता है ।
        (5) संरक्षकों का सहयोग- सत्य मार्ग, अर्थात स्वधर्म के पालन के मार्ग पर अग्रसर होने वाले व्यक्ति को संरक्षक शक्ति के सहयोग की नितांत अपेक्षा रहती है । यह धरती माता अथवा "गाय" अथवा अपनी "कुलदेवी" दुष्ट शक्तियों से संघर्ष में सतत् सहयोग प्रदान करती है, अतः इनका आश्रय अवश्य लेना चाहिए। इसी प्रकार "सूर्य" (मूर्तिनारायण) "चंद्रमा" (मूर्ति सदाशिव) "गणेश" व "शनि" चार रक्षक शक्तियाँ है, जो क्रमशः विस्फोट, पतन, दानवो व जयंत से रक्षा करती है। बालकों में इनके प्रति आस्था उत्पन्न करना माताओं का कर्त्तव्य है।
        (6) तीर्थ - तीर्थों के प्रति अन्धविश्वास से बालकों को निकालकर उन्हें वास्तविक तीर्थों का ज्ञान कराना चाहिए -
       विद्या तीर्थे जगति विवुधा, साधवः सत्य तीर्थे ।
       गंगा तीर्थे मलिन मनसो, योगिनो ध्यान तीर्थे ॥
       धारा तीर्थे धरणिपतयो, दानतीर्थे धनाढ्या ।
       लज्जा तीर्थे कुलयुवतय:, पातकं क्षालयन्ति ॥ (-ऋतुस्तवमंजूषा से )
      विद्या तीर्थ में संसार में विद्वान् लोग (पाप धोते है), साधू लोग सत्य तीर्थ में (पाप धोते है ), गंगा तीर्थ में मलिन मन वाले (पाप धोते है ), ध्यान तीर्थ में योगी जन (पाप धोते है ), धारा तीर्थ में (रण क्षेत्र में रक्त की धारा में) धरणीपति (क्षत्रिय, पाप धोते है ), दान तीर्थ में धनवान लोग (पाप धोते है ), लज्जा तीर्थ में कुलीन युवतियाँ पाप धोती हैं ।.....Next

गुरुवार

इतिहास को चुनौती

    इस देश का ऐसा कौनसा ग्राम है जिसमे क्षत्रिय निवास करते हो, वहाँ सती तथा जुंझरों की देवलियाँ नहीं हो ? ऐसा कौनसा धर्मग्रंथ है जिसमे क्षत्रिय या क्षत्राणियों की कीर्ति गाथा का उल्लेख न हो, ऐसा कौनसा तीर्थ है जहाँ पर क्षत्रियों ने तपस्या न की हो तथा ऐसा कौनसा किला है जहाँ धधकती ज्वालाओं में कूद कर क्षत्राणियों ने जौहर व्रत का पालन न किया हो । जब विश्व के लोग हमारे इन करतबों को पढ़ते है तो उनकी आँखें सजल हो उठती है व मस्तक श्रद्धा से झुक जाते है ।
        चित्तौड़, रणथम्भौर, भटनेर, (हनुमानगढ़) एवं जैसलमेर के दुर्गों को हजारों विदेशी पर्यटक हमारी गौरव गाथाओ से प्रभावित होकर देखने के लिए आते है उनके लिए यह पर्यटन-स्थल है, लेकिन जब कोई क्षत्रिय इन दुर्गो के खुले हुए दरवाजों को देखते है तो उन्हें आभास होता होगा कि इन खुले हुए दरवाजों में से अभी-अभी कई रणबांकुरे, मौत के दीवाने घोड़ो पर सवार होकर निकले होंगे और तलहटी में किले पर घेरा डालने वाली शत्रु सेना पर टूट पड़े होंगे। क्षत्राणियां जब इन किलो में प्रवेश करती होंगी तो उन्हें लगता होगा कि वीर साका करके निकल चुके है, अंदर धाँय-धाँय करती हुई चिताएँ जलती होगी और क्षत्राणियां सौलह श्रृंगार कर अपने पतियो से पहले स्वर्ग में पहुँचने के लिए अग्नि स्नान कर रही होंगी।
      आज स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ाया जा रहा है मानव सभ्यता का विकास हुए आठ हजार वर्ष हुए है। यह प्रचारित किया जा रहा है कि आठ वर्ष पूर्व मानव पूरी तरह असभ्य और जंगली था तब एक करोड़ साठ लाख से अधिक वर्ष पूर्व हुए राम-रावण युद्ध का इतिहास "रामायण" एवम् पाँच हजार से अधिक पहले हुए कौरव-पांडव युद्ध का इतिहास "महाभारत" क्या उपन्यास नहीं समझे जाएंगे ?
        आज के युग के क्षत्रिय व क्षत्राणियों का चरित्र क्या यह प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त नही होगा कि जो कुछ शौर्य, त्याग व तपस्या की बातें इतिहासों में उल्लिखित है वे सब काल्पनिक है, जिन वंशो में निक्कमी और नाजोगी संतानें उत्पन्न होती है वे न केवल अपने लिए अपयश का संचय करती है बल्कि पूर्वजों के यश को भी, मटियामेट कर देती है। जिस कौम के पीछे इतना दैदीप्यमान इतिहास और वह इतिहास भी यदि उनके पतनकाल में पुनरुत्थान की प्रेरणा नही दे सके तो फिर समझ लेना चाहिए कि इस वंश का अंतिम अध्याय लिखा जा चूका है।
       भगवान ने हमको ऐसे संक्रमणकाल में पैदा किया है जब हमारी राज्यलक्ष्मी व गृहलक्ष्मी नष्ट हो चुकी है। जिनको हमने अपना मित्र समझा था वह शत्रु बनकर हमारे सामने खड़े है, जो यथार्थ में हमारे मित्र थे उनको हमने अपना शत्रु बना लिया और हम स्वयं तपहीन, बुद्धिहीन , शक्तिहीन हुए दासता का जीवन जीने में ही अपना कल्याण समझते है । यदि इस विकट काल में भी हमने इतिहास से प्रेरणा नही ली एवं पूर्वजो द्वारा संचित यश को सुरक्षित रखने के लिए कर्त्तव्य-मार्ग का अनुसरण नहीं किया तो आने वाले जमाने में हमारे इतिहास को या तो लोग पाखंड कहेंगे या फिर एक काल्पनिक उपन्यास की संज्ञा देंगे । इसके विपरीत यदि हमने इतिहास से प्रेरणा लेकर अपने पूर्वजों के यशस्वी चरित्रों से मार्ग-दर्शन प्राप्त कर, कर्त्तव्य-मार्ग पर आगे बढ़ने का साहस किया तो निश्चित रूप से हमारे अंदर वह शक्ति उत्पन्न होगी जो आज की बिलखती मानवता को पुनः आनंद की अनुभूति करा सकेगी। लेकिन यह कार्य इतना सुगम नही है कि जिसको आसानी से किया जा सके ।पूँजीपति व बुद्धिजीवियों के षड्यंत्रों को तब तक विफल नही किया जा सकता जब उनसे संघर्ष करने वाले के पास विपुल आध्यात्मिक एवं बौद्धिक शक्ति न हो। शस्त्र की लड़ाई का समय आने से पूर्व शास्त्र की लड़ाई में विजय प्राप्त करनी होगी, अपने व पराए लोगो को मानसिक दासता से मुक्त करना होगा, जो बिना आध्यात्मिक शक्ति की सहायता के सम्भव नही है।
        इतिहास इस बात का साक्षी है कि क्षत्रियों पर जब-जब भी विपत्ति आई है, क्षत्राणियों ने संकट से मुक्त होने के लिए ने केवल उनका साथ दिया बल्कि आगे होकर मार्ग दर्शन भी किया है। आज फिर वैसा ही समय उपस्थित है, इस विकट समय में यदि समाज का स्त्री-वर्ग संघर्ष की भूमिका में पिछड़ जाएगा तो संघर्ष में सफलता मिलना संभव नही है। अतः क्षत्राणियों पर यह एक महान उत्तरदायित्व है कि वे अज्ञान, अशिक्षा एवं अंधविश्वासों के विनाशकारी घेरों की तोड़कर बाहर निकालें व वीर मताएँ, वीर पत्नियाँ, वीर कन्याएँ कहलाने का सौभाग्य फिर से प्राप्त करे एवं अपनी संतानों में नव-चेतना व नव जागृति फूंके, उन्हें कर्त्तव्य मार्ग पर आगे बढ़ने की प्रेरणा दे, वे ऐसी संतानों की माताएँ बने जो अपने लिए नही, संसार की रक्षा के लिए सच्चाई व अच्छाई की रक्षा के लिए, अमृत-समाज का पालन करने के लिए ही जिन्दा रहने वाले हों व इसी कर्त्तव्य पालन के लिए मरने में अपना गौरव समझते हो तब इतिहासकार को बरबस लिखना पड़ेगा यह धर्मग्रन्थ, यह इतिहास मात्र उपन्यास ही नही वास्तविकता है, क्योंकि हम देख रहे है इनकी पुनरावृत्ति हो रही है व युग युग तक होती रहेगी ।.....Next

बुधवार

विदुला चाहिए

     एक समय था जब इन्हीं परिवारों में देवताओं की प्रार्थना पर इंद्रासन ग्रहणकर देवताओं पर शासन करने वाले ययाति, देवताओं को अपनी प्रजा घोषित कर उनसे कर वसूल करने वाले रघु, गाय की रक्षा के लिए स्वधर्म पालन की कामना से प्रेरित हो स्वयं के शरीर का दान देने दिलीप, कबूतर के प्राणों की रक्षा करने के लिए स्वयं के शरीर का दान देने वाले शिवि, तपस्या के बल पर भगवान नारायण के कमण्डल से गंगा को धरती पर लाने वाले भगीरथ, अपनी तपस्या के बल पर ब्रह्माण्ड को हिला देने वाले विश्वामित्र, सत्य की रक्षा के लिए डोम के घर बिक जाने वाले हरीशचंद्र, बाल्यावस्था में तपस्या से भगवान को प्रसन्न करने वाले ध्रुव, अपनी प्रतिज्ञा व वचनो पर सदा दृढ रहने वाले भीष्म, महान् धनुर्धर अर्जुन, कवच व कुण्डल का दान देने वाले दानवीर कर्ण और न जाने एक से एक अद्भुत विभूतियाँ पैदा हुई ।
       स्वतंत्रता व स्वधर्म की रक्षा के लिए जंगल-जंगल भटकने वाले प्रताप, दुर्गादास व चंद्रसेन, विदेशी आतताइयों से लोहा लेने वाले दाहिर, विक्रमादित्य, पृथ्वीराज, पंजवनराय, चामुण्डराय, हमीर और न जाने कैसे-कैसे अद्भुत योद्धा इन्ही घरो से उत्पन्न हुए।
        यह कोई पुरानी बातें नही है जब इन्ही घरो में पैदा हुए लोगों ने संसार के वीरों के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ा। लोग युद्ध क्षेत्र में उन रुन्डो को देखकर आश्चर्यचकित हो गए, जिनके मस्तक शत्रुओं की तलवारो से काटे जा चुके थे, फिर भी रुण्ड दोनों हाथो से तलवारे चलाते हुए शत्रुओं की सेना में हाहाकार मचा रहे थे। इन दृश्यों को देखकर संसार में वीर कहलाने वाले लोगों व उनकी वंश परम्पराओं ने भी श्रद्धा से अपने मस्तक नीचे झुका लिए।
     यह क्या हुआ ? वही वंश परम्परा है, वही देश है, वही रक्त है, और वही घर है, लेकिन आज उनमे न ययाति और न रघु उत्पन्न हो रहे है। न ही भीष्म व कर्ण और न ही हमीर व दुर्गादास पैदा हो रहे है। हम तो देख रहे है आज घर-घर में "संजय" ही "संजय" मात्र दृष्टिगोचर हो रहे है। राज्यलक्ष्मी को खोकर हताश व पराजित मना हो दासवृत्ति को धारण कर दीनतापूर्वक येन-केन प्रकारेण जीवन-यापन का साधन जुटा लेने को ही ये लोग परम पुरुषार्थ समझ रहे है। महत्वाकांक्षा से विहीन होकर दासों का सा जीवन बिताते इन्हें लज्जा नहीं आती। वीरत्व व पुरुषत्व जो पूर्वजों से इन्हें थाती के रूप में मिले थे, को गँवाकर इन्होंने नपुंसकत्व व निर्लज्जता का वरण कर लिया है। ऐसी कुलघाती संतानों का कल्याण कौन करे ?
      किसी काल में सिन्धुराज से पराजित हुए संजय की भी ऐसी दशा हुई थी। लेकिन उस समय उसके घर में क्षत्राणी माँ विदुला मौजूद थी। जिसने उसको निर्लज्जता व नपुंसकता धारण करने के लिए धिक्कार। पूर्वजों के इतिहास व अपने इतिहास की परम्पराओं को याद दिलाकर उसके स्वाभिमान को जागृत किया। ज्ञान के द्वारा उसमे कर्त्तव्य बुद्धि का संचार किया। उसको स्मरण कराया कि दासता का जीवन व्यतीत करने के बजाय शत्रु से लड़ते हुए मारे जाना ही श्रेयस्कर है। क्योंकि इससे कम से कम पूर्वजों की कुल परम्परा तो लज्जित नही होगी। नपुंसकता को धारण करते हुए जो संजय घर में पड़ा दीन की तरह रो रहा था, उठ खड़ा हुआ। पूर्वजों के रक्त की जो धारा उसके स्नायुओं में प्रवाहित हो रही थी, ख़ौलने लगी। उसने मित्रों व साधनों को एकत्रित किया। शत्रु पर आक्रमण कर विजयश्री का वरण किया।
       आज घर-घर में निराश हुए संजय आँसू बहाते दिखाई दे रहे है। लेकिन विदुला जैसी माताएं न मालूम कहाँ चली गई। पथभ्रष्ट, हताश व परमुखापेक्षी हुई संतानों का आश्रय-स्थल, उनकी मार्गदर्शक, उनकी उद्धारक केवल माताएँ ही हो सकती है। आज ऐसी ही माताओं की आवश्यकता है जो विदुला की तरह अपनी संतानों का कल्याण कर सकें। क्या आज की क्षत्राणियाँ इस चुनौती को स्वीकार करने के लिए तैयार है यदि हाँ तो इतिहासकार को बरबस लिखना पड़ेगा -
     "यह कौम न मिटने पाएगी, ठोकर लगने पर हर बार उठती जाएगी ।".....Next

युगधारा

   लोग कहते है समय के परवाह में बहुत शक्ति होती है । युगधारा से जो भी टकराने की चेष्टा करता है उसका सर्वनाश हो जाता है। इसलिए समय को देखकर तदानुसार आचरण करने की शिक्षा वृद्ध लोग दिया करते थे। एक वृद्ध जनों की सभा में यह भी सुनने को मिला कि पूर्व काल में वृद्ध लोग अपने सीने पर एक तख्ती लटका कर चलते थे, जिस पर लिखा होता था "जिन्होंने हमारा जमाना देखा देखा वे हमारे कार्यों को बताएंगे ।" युवकों के सीने पर भी इसी प्रकार की तख्ती पर लिखा होता था "हमारा जमाना है और हम बताएंगे कि जमाने को कैसे बदला जा सकता है," बालकों के सीने पर भी लिखा होता था "हमारा जमाना आएगा तब लोग हमारे काम को देखेंगें।"
      भीष्म पितामह ने कहा है कि क्षत्रिय में वह शक्ति है जो युगधारा को न केवल रोक सकता है बल्कि उसके प्रवाह को बदल सकता है। उपर्युक्त कथनों को सुनने के बाद यह संशय पैदा होता है कि युगधारा के नाम पर जो कुछ अच्छा या बुरा हो रहा हो क्या उसी में सम्मिलित हो जाना चाहिए ? क्या इसी में कल्याण है ? और यदि इस युगधारा से टकराने की कोशिश की गई तो क्या विनाश अवश्यम्भावी है ? दूसरा प्रश्न उठता है कि यदि ऐसे लोग संसार में पैदा नही हुए होते जिन्होंने निकृष्टता की ओर बहती हुई युगधाराओं का मार्ग अवरुद्ध कर, उन्हें विपरीत दिशा में बहने को बाध्य नही किया होता तो क्या यह संसार भले लोगो के जीने लायक स्थान बना रहता ?
          गहराई से विचार करने के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते है कि युगधारा को बदलने के लिए जितनी शक्ति और सामर्थ्य की आवश्यकता है, उतनी शक्ति का उपार्जन किए बिना जिन लोगों ने युगधारा को पलटने की चेष्टा की वे सदा-सदा के लिए विनाश के गर्त में चले गए। लेकिन जिन लोगों ने पर्याप्त शक्ति संचय करने में समय लगाया व उपयुक्त अवसर प्राप्त होने पर युगधारा को पलटने की चेष्टा की उन्होंने हमेशा अपने कार्यो में न केवल सफलता अर्जित की की, बल्कि लोग युगों-युगों तक सम्मान के साथ उन्हें पूजते रहे हैं ।
          आज क्षत्रिय समाज के सामने दो बहुत बड़ी चुनोतियाँ है। पिछले 50 वर्ष में अकेली क्षत्रिय जाति को जितनी आर्थिक हानि उठानी पड़ी है उतनी शायद कभी भी किसी जाति को एक साथ हानि नही उठानी पड़ी हो। बुद्धिजीविओं द्वारा पोषित, पूंजीपति वर्ग ने सत्ता, व्यवसाय, प्रशासन व प्रचार माध्यमों आदि समस्त शक्ति के श्रोतों पर एकाधिकार कर लिया है। इस एकाधिकार के परिणामस्वरूप उनके पास जो शक्ति एकत्रित हुई है उस सारी शक्ति का उपयोग उन्होंने अकेली क्षत्रिय जाति का विनाश करने के लिए किया है। स्वयं के लिए प्रगतिशील, समाजवादी, प्रजातांत्रिक, अहिंसावादी और संग्राम के सेनानी, जैसे अलंकारो को लगाकर जहाँ अपने कुकर्मो व हिनवृत्तियों को छिपाने की चेष्टा की है वहीँ पर दूसरी ओर क्षत्रियों के लिए प्रतिक्रियावादी, सामन्तवादी, गद्दार, शोषक जैसे अलंकार लगाकर उनके मनोबल को तोड़ने व लोगो में उनकी छवि को धूमिल करने की चेष्टा की गई है।
         प्रचार में लोगो को गुमहार करने की कितनी बड़ी शक्ति है, इसका पता इसी बात से पता चल सकता है कि जिन लोगों को इतिहास के पन्नों में कहीं भी देश-धर्म व मानवता की रक्षा के लिए एक बून्द भी रक्त बहाते नही देखा गया, उन्हें आज लोग देशभक्त कहकर पुकारते रहे है व जिन्होंने इस धरती के चप्पे-चप्पे को देश व धर्म की रक्षा के लिए अपने खून से रंगा उन्हें लोग प्रति-क्रियावादी अ शोषक समझने लगे है।
        आज लोग राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल होने व प्रगतिशील बनने की बातें कह रहे है, लेकिन क्या यह प्रगतिशीलता व तथाकथित राष्ट्रीयधारा "पूंजीपतियों द्वारा प्रवाहित व बुद्धिजीवियों द्वारा संरक्षित भ्रष्टाचार, अनाचार व शोषण की धारा नहीं है ?" लोग इन बैटन को धीरे-धीरे समझने लगे है लेकिन वे इतने असमर्थ, कायर व स्वार्थी हो गए है कि अपने छोटे-छोटे स्वार्थों के कारण इन लोगों के खिलाफ बोलने का साहस नही करते और जो लोग साहस जुटाने की चेष्टा करते है, उन्हें पूंजी के बल पर, सत्ता के बल पर व प्रचार माध्यमो के वितंडावाद के द्वारा इस प्रकार से विखण्डित किया जाता है कि उनकी दशा को देखकर अन्य लोग इस पाखंड के खिलाफ कमर कसने का साहस भी नहीं जुटा पाते ।"
         आयुवानसिंह जी ने अपनी पुस्तक हमारी ऐतिहासिक भूलों में लिखा है कि सिकंदर के आक्रमण से लेकर भूस्वामी आंदोलन तक क्षत्रियों ने कभी भी शत्रुओं पर आक्रमण करने की निति नहीं अपनाई व केवल सुरक्षात्मक युद्ध लड़ते रहे जिसके परिणामस्वरुप हमारी स्वयं की शक्तियां क्षीण होती रही व शत्रुओं का मनोबल बढ़ता रहा। आज भी वहीँ परिस्थिति है और हम भी उसी मूर्खतापूर्ण निति पर चल रहे है। झूठे इतिहास लिखकर उनमे परिवर्तन कर, धर्म ग्रंथों में परिवर्तन कर, अख़बारों के माध्यम से हमारे विरुद्ध मिथ्या प्रचार कर, सिनेमा, दूरदर्शन व आकाशवाणी से हमारे समाज की छवि को विकृत करने वाले कार्यक्रम प्रस्तुत कर, व आमसभाओं में सरेआम हमको शोषक व प्रतिक्रियावादी बताकर शत्रु पक्ष हमारे मनोबल को तोड़ने, इतिहास को कलंकित करने व लोगो में हमारी छवि को विकृत का प्रयास कर रहा है और हम रक्षात्मक युद्ध करते हुए अपनी प्रतिदिन की समस्याओं अथवा शत्रु पक्ष द्वारा थोपी गई समस्याओं से जूझने में डटे हुए है। ऐसे भी लोग है जो यह जानते हुए कि कौन हमारा शत्रु है व कौन हमारा मित्र है, अपने छोटे स्वार्थों, महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति अथवा अहंकार की तुष्टि के लिए शत्रु पक्ष के हथियार बनकर समाज के हितो पर कुठाराघात कर रहे है और हम चुपचाप इस तमाशे को देखकर उनके ही सहगामी बनने का अपराध कर रहे है।
         यह है आज की "युगधारा" जिसका उद्देश्य हमारे स्वधर्म, हमारी संस्कृति व हमारे इतिहास को मटियामेट कर देना है। जिसका उद्देश्य प्रत्येक व्यक्ति को इतना भ्रष्ट, इतना दुर्बल व इतना शक्तिहीन कर देना है कि वह इस तथाकथित युगधारा के विरुद्ध आवाज उठाने या कुछ कर गुजरने की क्षमता ही नहीं रखे। क्या इस युगधारा के साथ रहकर ऐन केन प्रकारेण अपनी व्यक्तिगत हैसियत को बनाए रखकर हम क्षत्रिय के रूप में जिन्दा रह सकते है ? और अगर नही रह सकते तो इसका विकल्प क्या है ? इस पर गंभीरता से विचार करना होगा।
        हमारे सामने आज दो मुख्य समस्याएँ है उनमे से पहली है हमारी आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करना। इतिहास इस बात का साक्षी है कि जो जातियां समय के परवाह में फंसकर अपनी आर्थिक स्थिति को मझबूत नहीं रख पाई, उनका सदा के लिए नाश हो गया।
        वाल्मीकि रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि के वंशज कितने उच्चकोटि के क्षत्रिय रहे होंगे इसकी कल्पना हम इस बात से कर सकते है कि अपने वनवास काल के चौदह वर्षों में से श्रीराम, लक्ष्मण व सीता जी ने दस वर्ष का समय वाल्मीकिजी के साथ आश्रम में रहकर बिताया व उनसे मार्गदर्शन प्राप्त कर तपस्या की। आज उन्ही वाल्मीकि जी के वंशजो को कपडे पहनने, उठने बैठने तक की सभ्यता नहीं है । लोग उन्हें शुद्र व अछूत कहने लगे है। इस महान जाति को इतनी निकृष्ट अवस्था में पहुँचाने का काम उनकी बिगड़ी आर्थिक स्थिति ने ही किया है। यदि उनकी आर्थिक स्थिति नही बिगड़ी होती तो वे अपनी संतानो को शिक्षित व योग्य बना सकते थे, उनको अपने कर्त्तव्यों का बोध करा सकते थे तथा अपने अधिकारो के लिए लड़ सकते थे।
         हमारे भी शत्रुओं का मुख्य प्रहार हमारी आर्थिक स्थिति पर है, हमारे पास खेती के लिए जमीने नही रहनी चाहिए, हमे नौकरियाँ नहीं मिलनी चाहिए, हमे उद्योग धंधो में स्थान नहीं मिलना चाहिए यह निति उन सभी पूंजीपतियों द्वारा पालित बुद्धिजीवियों की है जो विभिन्न राजनैतिक दलों में बैठकर भी एक ही लक्ष्य से काम कर रहे है कि हमारी आर्थिक स्थिति को ऐन केन प्रकारेण नष्ट-भ्रष्ट किया जाए।
        इतने प्रबल शत्रुओं के होते हुए व योजनाबद्ध षड्यंत्र के माध्यम से हो रहे प्रहारों की प्रतिकूलता के रहते क्या आज हमारे पास ऐसी शक्ति है जिसके बल पर हम अपनी आर्थिक स्थिति को मजबूत कर सके ? इस प्रश्न पर हमे गंभीरता से विचार करना होगा।
        समाज का प्रत्येक व्यक्ति यदि अलग-अलग अपनी आर्थिक स्थिति को सुधारने में लगा रहा, तो निश्चित रूप से हम इन प्रबल शत्रुओं से लड़कर अपनी आर्थिक स्थिति को बचा नही पाएंगे, लेकिन अगर हम सामूहिक बुद्धि का विकास करे, मिलकर एक दूसरे के सहयोग से ईमानदारी के साथ अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने की चेष्टा करे, तो निश्चित रूप से समाज में आज भी इतनी शक्ति है कि बिना किसी दूसरे के आश्रय के हम अब भी अपनी स्थिति को सुदृढ़ कर सकते है। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि आज भी हम अपनी सोच को बदलने को तैयार नही हैं । जिसके पास थोडा धन हो जाता है वह अपने पूर्वस्तर के लोगों व उससे भी निम्न स्तर के लोगोंबड़े प्रायः दूर रहने में गौरव का अनुभव करता है । इसी प्रकार कमजोर आर्थिक स्थिति के लोग अपने से अच्छी स्थिति के लोगों को यह समझ कर दुर ही रहना चाहते है कि इनसे हमारा कोई हित साधन होने वाला नही है। इन शंकाओ व मनोभावनाओं से हमे मुक्त होना पड़ेगा। सबल, दुर्बल की सहायता के लिए हाथ बढ़ाएँ व दुर्बल, सबल से निकटता स्थापित करने में संकोच न करे ऐसा वातावरण तैयार करना होगा। ऐसा वातावरण तभी तैयार हो सकता है जबी हम हृदय में ऐसी भावना पैदा करे कि प्रत्येक क्षत्रिय मेरा। उसका हित मेरा हित है । उसका अहित मेरा अहित है। एक व्यक्ति की पीड़ा सारे समाज की पीड़ा व एक का आनंद जब तक सारे समाज का आनंद नही बन पाएगा तब तक आर्थिक लड़ाई में हम विजय प्राप्त नही कर सकेंगे।
         इस लड़ाई का दूसरा पक्ष भी है, आज के वैज्ञानिक युग में नई-नई तकनीक व नई-नई विधियों का अविष्कार हो रहा है। उनसे दूर रहकर हम आर्थिक क्षेत्र में प्रगति नही कर सकते, हमको चाहिए कि हम देश में आने वाली हर नई चीज में रूचि ले, उसको सीखे व अपने साथियों को उसके लाभ से अवगत कराएँ, उन्हें प्रशिक्षित करे ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि समाज के एक व्यक्ति का लाभ पुरे समाज तक पहुँच रहा है। चाहे कृषि क्षेत्र हो या उद्योग का । जो व्यक्ति जिस विधि से उस क्षेत्र में सफलता पाता है उसको उस विधि का ज्ञान दूसरों को अवश्य कराना चाहिए। इससे न केवल आर्थिक स्थिति का विकास होगा बल्कि आत्मीयता का भी विकास होगा। एक दूसरे के सहयोग के लिए आवश्यक है कि लोगों का आपस में परिचय व गहन सम्बन्ध हो। इसके लिए लोगों को सामाजिक गतिविधियों में, समारोहों में, सभाओं में भाग लेने की आदत डालनी होगी ताकि लोगों में निकटता पैदा हो सके।
      इसी समस्या का एक दूसरा पहलु भी है। महावीर स्वामी के वंशजो ने अपनी आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करने पर अत्यधिक ध्यान दिया, आज वे अर्थ के माध्यम से देश में शोषण करने वालों में अग्रणी गिने जाते है। समस्त प्रकार के साधन, धन व वैभव होते हुए भी आज उनमे से एक भी क्षत्रिय के रूप में नहीं जाना जाता। इससे स्पष्ट है कि केवल आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ कर लेने से ही हम क्षत्रिय के रूप जीवित नही रह सकते। क्षत्रिय के रूप में जीवित रहने के लिए आर्थिक स्थिति मजबूत होने के साथ अनिवार्य शर्त यह भी है कि हम अपनी संस्कृति से प्रेम करे, अपने में क्षत्रिय के गुणों का विकास करे व क्षत्रियों के साथ मिलकर रहे। हम देख रहे है कि आज जो लोग सम्पन्नता की ओर आगे बढ़ रहे है वे क्षत्रिय संस्कृति व समाज से दूर हटते जा रहे है। ऐसे लोग धन के मद में अपने को बुद्धिमान समझ सकते है लेकिन उन्हें समझ लेना चाहिए कि उनकी संताने कभी भी क्षत्रिय नही कहलाएंगी। यदि उन्हें क्षत्रिय बने रहना है तो उन्हें सामाजिक गतिविधियों से व समाज की परम्पराओं से जुड़े रहना होगा।
      इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि क्षत्रिय के रूप में जीवित रहने के लिए आर्थिक स्थिति को मजबूत बनाना जितना जरूरी है उतना ही जरूरी यह भी है कि हम समाज से, इतिहास व संस्कृति से तथा रीती-रिवाजों से दृढ़तापूर्वक जुड़े रहे।
       दूसरी सबसे बड़ी जटिल समस्या जो इस तथाकथित युगधारा ने हमारे सामने पैदा की है वह है "मानसिक दासता" । विकृत धर्म ग्रंथों के प्रचार-प्रसार, फर्जी इतिहासों के पठन-पाठन व अन्य प्रचार माध्यमों द्वारा किए जाने वाले दूषित प्रचार से अत्यधिक प्रभावित होकर हमने अपने आपको शोषक, मुर्ख व हीन समझना आरम्भ कर दिया है। इसे यों भी कह सकते है कि हमने बुद्धिजीवी व पूंजीपतियों की मानसिक दासता स्वीकार कर ली है। इस दासवृत्ति के रहते कोई भी अपने कल्याण की कल्पना नही कर सकता है। आज लोग सहज में कह देते है "कोउ नृप होय हमें का हानि," लेकिन यह कहने वाले यह नही जानते कि इस उक्ति को दासी मंथरा ने कहा था। यह कथन दास वृत्ति का द्योतक है, वीर वृत्ति का नहीं। सब मरेंगे तो हम भी मर जाएंगे यह तो हर कोई सोच सकता है लेकिन क्षत्रिय तो वह है जो दूसरों के कल्याण के लिए अपना जीवन दान देता है। आज गरीब जनता का शोषण हो रहा है ये लोह असहाय हो कतर दृष्टि से ऐसे लोगों की प्रतीक्षा कर रहे है जो उन्हें शोषण से मुक्त करा सकें। दूसरी ओर हम है जो मानसिक दासता के कारण यह समझ बैठे है कि यह गरीब जनता हमारे विरुद्ध हो गई है।
         हमें यह नही भूलना चाहिए कि गरीब जनता हमेशा शोषकों के विरुद्ध रहती है। आज हम शोषक नही है हमे यह ईमानदारी से स्वीकारना चाहिए कि मध्यकाल में हमने पुराणवादी पंडवाद के प्रभाव में आकर गरीब जनता का शोषण किया हम इन पाखण्डपूर्ण ग्रंथों के रचनाकार नही हैं। किसी भी क्षत्रिय ने आज तक यह नही लिखा कि शुद्र अछूत होता है। भीष्म पितामह ने तो यहाँ तक कहा कि किसी के संतान नही हो व एक मात्र शुद्र नौकर हो तो वह अपने मृतक स्वामी के पिंडदान कराने का अधिकारी है। हमारा दोष तो केवल इतना है कि अशिक्षा के कारण हम इस पुराणवादी पाखण्ड में फँसे। हमारे अज्ञान में फँसने का दोष भी सम्पूर्ण रूप से हमारे ऊपर ही नही लगाया जा सकता। देश व धर्मं की रक्षार्थ भीषण युद्धों के कारण जो हमारा वंश नाश हुआ उसी ने हमको अज्ञान के गर्त अथवा अशिक्षा के गर्त में धकेल दिया। हमारे अशिक्षित होने का लाभ उठाकर धूर्त धन लोभी बुद्धिजीवियों ने धर्म के नाम पर अनेक पाखण्ड रचे व हमे शिकार बनाकर अपने विनाश व गरीबों के शोषण का हेतु बनाया।
       इस प्रकार स्पष्ट है कि मानसिक दासता ने हमे अचानक नही धर दबोचा। धीरे-धीरे षड्यंत्रपूर्वक हमको मानसिक दास बनाया गया, जब तक हम इस दासता से मुक्त होकर गरीब जनता के सामने खुले दिल से उपस्थित नही होंगे, तब तक हमारी मानसिकता भीरुता समाप्त होने वाली नही है।
         इस मानसिक दासता से मुक्ति के लिए आवश्यक है कि हम पूर्व इतिहास को, पूर्व के धर्म ग्रंथों को, उपनिषत्, बाल्मीकि रामायण व महाभारत जैसे ग्रंथो को, संतो की वाणियों को, आधुनिक इतिहास को, राजस्थानी साहित्य को व अन्य उपयोगी सामग्री पढ़े। न केवल पढ़े बल्कि शोधपूर्ण दृष्टि से पढ़े, तब हमे पता चलेगा कि हमे किस प्रकार मुर्ख बनाकर मानसिक दृष्टि से गुलाम बना लिया गया है व गरीब जनता जो हमेशा सुख-दुःख में हमारी सगी रही है उसको हमारे से दूर कर दिया गया।
         इतना सब कुछ जान लेने के बाद यह आवश्यक होगा कि हम सुरक्षात्मक निति को छोड़कर आक्रामक निति को अपनाएँ। जिन लोगों ने धर्म के नाम पर, मानवता के नाम पर, प्रगति के नाम पर व अन्य नामो का आश्रय लेकर पाखंड फैलाया, षड्यंत्र रचे उनका पर्दाफाश किया जाए। जिस दिन हम इस पुनीत कार्य का नेतृत्व करने को तैयार होंगे गरीब जनता हमको हमेशा की तरह संघर्ष के लिए पीछे खड़ी तैयार मिलेगी।
       प्रसंग युगधारा से आरम्भ हुआ था। युगधारा किधर बह रही है व उसे रोकने व उसका प्रवाह बदलने के लिए क्या कुछ किया जा सकता है, इसके सम्बन्ध में ऊपर की पंक्तियों में हमने कुछ विचार किया, लेकिन युगधाराएँ केवल विचारो से नही बदली जा सकती, विचार शक्ति फूँकने व लोगो में परिवर्तन लाने का एक साधन हो सकते है वह स्वयं शक्ति नही है इन विचारों को शक्ति का रूप देना है तो विचारों के अनुसार हमें आचरण बदलना होगा। स्वयं को शारीरिक, मानसिक, आर्थिक व साधनों की दृष्टि से, बौद्धिक व आत्मिक दृष्टि से बलवान बनाना होगा । इस महान कार्य के लिए हमे जंगलो व पहाड़ो की खाक छननी होगी, कष्ट सहन करने की आदत डालनी होगी, सुख-सुविधाओ को त्यागना होगा। अपने अंदर शास्त्रों में उल्लेखित सभी गुणों का विकास करना होगा। अपने आपको विभिन्न विद्याओं, कलाओ में निपुण बनाना होगा। यह षड्यंत्र जैसे-जैसे हमारे जीवन में घुसा है इसने हमको वैसे-वैसे बुद्धिहीन व दुर्बल बनाया है, उसी प्रकार से शनैः शनैः इस षड्यंत्र को विफल कर अपने आपको पुनः सबल व स्वतंत्र बनाना होगा।
        दासता की भावना रहते कोई भी अपने अंदर श्रेष्ठ गुणों का विकास नही कर सकता है। दासता व्यक्ति को ऊंचाइयों की ओर बढ़ने से रोकती है । स्वतंत्रता की अभिलाषा व्यक्ति को ऊँचाइयों की ओर बढ़ने को प्रेरित करती है। अपने महान इतिहास व अपने महान पूर्वजों व महान संस्कृति व समाज के महान त्याग व बलिदान का स्मरण ही हमें दासता से मुक्ति की प्रेरणा दे सकता है, हमारे पूर्वजो की यश गाथाएँ हमे स्वतंत्रता की ओर आगे बढ़ने की प्रेरणा देगी। इसका आश्रय हमें लेना चाहिए कि हम अपने अंदर एक सच्चे क्षत्रिय के गुणों का उपार्जन करें  व इस कार्य में जितनी शीघ्रता से जुटें उतना ही हमारा हित है।
         ये सारा कार्य समस्त समाज को परिवर्तित करने, इसे रूपांतरित करने, इसे नया स्वरूप् देने का है। इसे अकेला पुरुष वर्ग कभी भी सम्पन्न नहीं कर सकता। क्षत्राणियाँ जो धार्मिक व मानसिक दासता से सर्वाधिक ग्रसित है जब तक अपने अंदर समाज के प्रति पीड़ा को जागृत नहीं करेंगी मानसिक दासता से कभी भी मुक्त नहीं हो सकेंगी।
         क्षत्राणियों की इस दासता से मुक्ति के बिना पूरा समाज पंगु है व तब तक पंगु ही रहेगा जब तक नव निर्माण के कार्य में क्षत्राणियाँ आगे कदम नही बढ़ाएंगी। उन्हें यह ठीक प्रकार समझ लेना चाहिए कि वे व्यक्तिगत समृद्धि में यदि अपना हित अब भी देखती रही तो वह दिन दूर नही जब उनकी संतानों को दासानुदास बन कर जीवन यापन करना पड़ेगा।
         इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि क्षत्रिय समाज का उत्थान, क्षत्रिय समाज का पुनर्निर्माण तब तक सम्भव नही है जब तक कि इस समाज का नारी वर्ग अपने आपको सुधार व नव निर्माण के लिए तैयार नहीं कर लें। इस पुस्तक के माध्यम से हम समाज की इस आवाज को प्रत्येक क्षत्राणी तक पहुँचाना चाहते है। जिसको सुनकर यदि उन्होंने अपने आपको व समाज को बदलने में रुचि ली तो निश्चित रूप से भावी पीढियां उनकी कृतज्ञ रहेंगी ।.....Next

मंगलवार

क्षत्रिय-माता

(1) माता - संस्कृत भाषा का लोगों को ज्ञान नही रहने के कारण शब्दों के वास्तविक अर्थ ही लोग नही समझ पा रहे है। माता का अर्थ आजकल जननी हो गया है। जबकि जननी केवल जन्म देने वाली होती है वह माता नहीं होती- "वह जननी जो संतान का कृपापूर्वक पालन करती है। माता कहलाती है।"
        इसका अर्थ हुआ वह जननी जो किसी भी प्रकार के हेतु को रख करके अर्थात भावना को रखकर, संतानो से किसी प्रकार की अभिलाषा रखकर उनका पालन करती है वह माता नही है । माता वह है जो बिना किसी हेतु के, अपनी संतानों से किसी प्रकार की अभिलाषा नही रखते हुए केवल कृपापूर्वक अर्थात अपने स्वभाव-जन्य प्रेम व कृपा से वशीभूत होकर ही संतान का पालन करती है वह माता कहलाती है ।
      आज माता-पिता बहुधा अपनी संतानों पर यह दोष लगाते देखे जाते है कि ये अत्यधिक स्वार्थी हो गए है। लेकिन प्रश्न यह है कि आखिर संतानों को स्वार्थी बनाया किसने ? रानी मदालसा ने अपनी इच्छानुसार संतानों का निर्माण कर इस सिद्धांत को स्थापित किया था कि - "माता ही निर्मात्री है।" तब फिर आज इन स्वार्थी संतानों का निर्माण कौन कर रहा है ? इस विषय में हमको वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करना चाहिए। हमारे घरों में बालक-बालिकाएँ साथ-साथ पाली जाती है, लेकिन माताएँ पुत्रों से यह अभिलाषा लेकर कि वे वृद्धावस्था में उनकी सेवा करेंगे, पुत्रों को पुत्रियों से अधिक सुविधा प्रदान करती हैं । खान-पान से लेकर शिक्षा-दीक्षा आदि सभी क्षेत्रों में पुत्रों को अधिक सुविधाएँ दी जा रही है, जिसका परिणाम होता है कि पुत्र संतानों में बचपन से ही विशेषाधिकार और विशेष सुविधा प्राप्त करने की इच्छा पैदा होती है, अतः धीरे-धीरे वे इसे अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझने लगते है। विशेषाधिकार व विशेष सुविधा से ही स्वार्थ की उत्पत्ति होती है। बालक यह सुविधा और अधिकार मांगता नही है। पहले स्वार्थी माता-पिता स्वयं चलाकर उन्हें विशेष सुविधा देते है और जब बड़े होकर वे अपने लिए विशेष सुविधा व दूसरों के लिए कम सुविधा उत्पन्न करते है तब वही माता-पिता उन्हें स्वार्थी कहने लगते है। यथार्थ में अपनी संतानों के साथ इस प्रकार का भेदभावपूर्ण व्यवहार करने वाले माता-पिता, माता-पिता नहीं है। उनके लिए इन पवित्र शब्दों का सम्बोधन उचित नही है।
      माता तो वह है जो अपनी संतानों को त्याग व उत्सर्ग की भावना "पालने" में लोरियों के माध्यम से सिखाती है। "पूत सिखावे पालणे मरण बड़ाई माय।" क्षत्रिय माताएँ वह होती है जो बालकों को पालने में ही मरने की महिमा सिखाती थी। रानी मदालसा ने अपने छह पुत्रों को पलने में सन्यास की शिक्षा देकर संन्यासी बना दिया, व सातवे पुत्र को राजगद्दी पर बिठाकर सिद्ध कर दिया था कि माता जिस प्रकार की अभिलाषा रखे, बचपन से ही शिक्षित कर बालक को उसी प्रकार का बनाया जा सकता है।
     आज समाज में भरत जैसे भाई, भीष्म पितामह जैसे ज्ञानी व ब्रह्मचारी, कर्ण व अर्जुन जैसे धनुर्धारी, पंजवनराय जैसे शूरवीर, महाराणा प्रताप जैसे स्वतंत्रता के अभिलाषी, हमीर जैसे हठी व दुर्गादास जैसे स्वधर्म रक्षक यदि पैदा नही हो रहे है तो उसकी एकमात्र जिम्मेदार क्षत्रिय माताएँ ही है। वे एक ओर अशिक्षा के अंधकार में डूब गई है व दूसरी ओर उन्होंने आधुनिकता की चकाचोंध में अपनी परम्पराओं को धूल-घुसरित कर उनका सर्वनाश कर दिया है। इसलिए कहा गया है कि क्षत्रिय समाज के दीर्घ जीवन व उसके महान इतिहास की रचनाकार वास्तव में क्षत्राणियाँ थी न कि क्षत्रिय। आज रचनाकार ही स्वयं जब विनाश के गर्त में है तो वापस समाज के मानचित्र पर उन चित्रों का उभर पाना असंभव सा प्रतीत होने लगा है, जिनको देखकर संसार के लोगों ने श्रद्धा से अपने मस्तक झुका लिए थे
(2) शिक्षा - उपनिषत् का मत है कि "जो अशिक्षा में डूब गया वह घोर अंधकार में डूब गया" व जो "शिक्षा में डूब गया वह उससे भी घोर अंधकार में डूब गया।" हमारा समाज पिछले चार सौ सालो से अशिक्षा के घोर अंधकार में डूबा हुआ था और अब शिक्षा के, उससे भी अधिक घोर अंधकार में डूबता चला जा रहा है। महिलाएँ अब भी अशिक्षा के अंधकार में डूबी है और वे अब शिक्षा के उससे भी घोर अंधकार में डूबने की तैयारियां कर रही हैं ।
      क्षत्रियों का इस अंधकार में डूबने से विनाश हुआ है। लेकिन यदि क्षत्राणियाँ इस घोर अंधकार में डूब गई तो महाविनाश हो सकता है। जिसका कोई उपचार ही नही होगा। इसलिए हम विशेष तौर से शिक्षित व अध्ययनशील क्षत्राणियों का ध्यान इस महान संकट की ओर आकृष्ट करना चाहेंगे।
      आज कल स्कूल कॉलेजो में निरुद्देश्य शिक्षण पद्धति प्रचलित है। इन संस्थानों में केवल अक्षर ज्ञान अथवा यों कहे कि भाषा का ज्ञान कराया जाता है। आज शिक्षा का उद्देश्य किसी विशेष प्रकार के व्यक्तितत्व का निर्माण करना नही है।
        यदि आज की शिक्षा का कोई उद्देश्य है तो केवल यही कि वह हमारे स्वधर्म व हमारी संस्कृति को निकम्मा व बेकार साबित करने की चेष्टा करती है । आधुनिक शिक्षा यह नही चाहती कि लोग योग्य, निपुण व सदाचारी बनें क्योंकि यदि इस प्रकार के लोगों का निर्माण हुआ तो शिक्षा के संचालकों अर्थात बुद्धिजीवी व् पूंजीपतियो के षड्यंत्र का पर्दाफाश करने की सामर्थ्य लोगो में पैदा हो जाएगी व आज के महाप्रभु, धराशाही होने को बाध्य होंगे। ऐसी स्थिति में बालक-बालिकाओं को स्वधर्म , उच्च-आचरण, चरित्र व त्याग की शिक्षा कौन देगा ? यह सारा दायित्व केवल माताओं का है। लेकिन जब माताएँ स्वयम् ही अशिक्षि हों व उनकी बालिकाएं वर्तमान शिक्षा के क्षेत्र में असहाय छोड़ दी गई हो तब वे कहाँ पहुँचेगी, इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है।
        आज से पचास वर्ष पूर्व का अनपढ़ क्षत्रिय अपने स्वधर्म, इतिहास व कर्त्तव्य के बारे में जितना जानता था आज का पढ़ा-लिखा क्षत्रिय उसका दशांश भी नही जानता । इसीलिए वह गुमराह है, अपने स्वधर्म व संस्कृति से दूर हटता जा रहा है । यह स्थिति अब नवयुवतियों व् बालिकाओं की होने वाली है, यदि उन्होंने भी अपने स्वधर्म, परम्परा, कर्त्तव्यों का ज्ञान खो दिया तो फिर इस महान संस्कृति का प्रायः लोप हो ही जाएगा । इसलिए माता-पिता का यह महान् दायित्व है कि वे बालिकाओं को न केवल शिक्षित करें बल्कि शिक्षा के साथ-साथ उनको इतिहास, परम्पराओं, स्वधर्म व् संस्कृति का सम्यक् ज्ञान हो। इसकी व्यवस्था भी करे ताकि वे आने वाली पीढ़ी को बचपन से ही शिक्षित व् दीक्षित कर सके । यदि ऐसा नही किया गया तो पुरे समाज का भविष्य अंधकारमय हो सकता है।
       उपर्युक्त कथन का यह तात्पर्य नही है कि बालिकाओं में शिक्षा का प्रसार नही किया जाना चाहिए। शिक्षा आज के युग की ही नही प्रत्येक समय की एक अनिवार्य आवश्यकता है। अशिक्षा अंधकार है, उससे प्रत्येक व्यक्ति को मुक्त होना ही चाहिए। लेकिन अकेली शिक्षा में व्यक्ति को अंधकार से निकालकर प्रकाश की ओर ले जाने की क्षमता नही है। आजकल स्कूलों व कॉलेजो में जो शिक्षा दी जा रही है वह प्रकाश की ओर ले जाने का माध्यम कभी नही बन सकती है। अतः शिक्षा ग्रहण कर रही बालिकाएँ जो कल माता बनेंगी स्वयम् इस उत्तरदायित्व को ग्रहण करें कि वे प्रकाश की ओर ले जाने वाली हमारी परम्परागत शिक्षा की खोज करे, विकृत धर्मशास्त्रों व ऐतिहासिक पुस्तकों से शुद्ध तत्त्व को खोजे, शोध करे व अपने को इस योग्य बनाए कि वे सुमाता बन सकें। अपनी संतानों को प्रकाशोन्मुखी शिक्षा प्रदान कर सकें ।
(3) मार्गदर्शन - माता का उत्तरदायित्व अपनी संतानो को मात्र शिक्षित करना ही नही, जीवन पर्यन्त उनका मार्गदर्शन करना, उनको कर्त्तव्य-पथ पर अग्रसर होने की प्रेरणा देना व यदि कर्त्तव्य-मार्ग से विचलित हो तो उन्हें उपयुक्त सलाह  देकर सही रास्ते पर लाना भी माता का कर्त्तव्य बन जाता है।
      युधिष्ठिर ने जुए में जब राज्य खो दिया तो उन्हें वनवास का सेवन करते हुए नींद नही आती थी। उनको हमेशा यही चिंता सताती थी कि पुनः राज्याधिकार प्राप्त करने में सबसे बड़ी बाधा कर्ण है। उन्हें विश्वास था कि युद्ध होने पर भीष्म पितामह तो कोई भी उपाय निकाल लेंगे व् पांडवो का वध नही करेंगे, लेकिन कर्ण से लड़ने की सामर्थ्य रखने वाला उन्हें उन्हें अपने पक्ष में कोई भी दृष्टिगोचर नही होता था। इसी बीच - एक रोज नारायण पुत्र महात्मा "अपान्तरतमा" (जिनको आजकल वेदव्यास कहा जाता है ) युधिष्ठिर के पास आए और कहने लगे - "मैं तुम्हे मन्त्र दीक्षा देता हूँ, इस मन्त्र को तुम सिद्ध करके अर्जुन को प्रदान करना । अर्जुन हिमालय के क्षेत्र में जाकर इस मन्त्र को लेकर तपस्या करेगा तो उसे कर्ण से लड़ने लायक शक्ति प्राप्त हो जाएगी।" तदनुसार अर्जुन ने तपस्या की और उसने भगवान शंकर की कृपा प्राप्त कर इन्द्र से शस्त्र-विद्या का ज्ञान प्राप्त किया। युधिष्ठिर को तब विश्वास हुआ कि अर्जुन अब कर्ण पर विजय प्राप्त कर सकता है क्योंकि कृष्ण ने अर्जुन का सारथी बनना स्वीकार कर लिया था। उधर द्रोपदी हर अवसर पर अपने खुले केश दिखाकर पांडवो को अपने अपमान की याद दिलाकर युद्ध के लिए उकसा रही थी । माता व पत्नी के उत्तरदायित्व में बहुत बड़ा भेद है। कुंती धृतराष्ट्र के महलो में बैठी यह सब नाटक चुपचाप नही देख रही थी, इतना सब कुछ होने पर भी वह जानती थी कि पांडवो में कर्ण से लड़ने की सामर्थ्य नही है । कृष्ण के बल पर, अर्जुन, कर्ण के सम्मुख अपने प्राणों की रक्षा कर सकता है लेकिन अपने भाइयों की रक्षा तथा अपनी सैन्य शक्ति की रक्षा वह नही कर पाएगा। इसीलिए कुंती ने कर्ण से जाकर अपने पुत्रो के प्राणों की भीख माँगी और जब उसे विश्वास हो गया कि अर्जुन के अलावा उसके शेष चारों पुत्रों को कर्ण नही मारेगा तब ही कुंती ने पांडवो को युद्ध करने का निर्देश दिया ।
     सही समय पर, मार्गदर्शन मिल जाए तो कमजोर भी विजय पा सकता है। ऐसा नही था कि कर्ण ने मात्र कुंती को वचन ही दिया, उसने अपने वचन को रण-क्षेत्र में सत्यसिद्ध करके बताया, भीम, युधिष्ठिर, नकुल व सहदेव को उसने निहत्थे करके प्राण दान दिया।  अर्जुन भी युद्ध में विजयी तो हुआ लेकिन किसके पराक्रम से अपने या कृष्ण के पराक्रम से ? जिस समय कर्ण ने अर्जुन के वध के लिए निर्णायक तीर चलाया उस समय कृष्ण ने अपने योगबल से यदि अर्जुन के रथ को जमीन में नही धंसाया होता तो अर्जुन बच नही सकता था।
      इससे भी विचित्र घटना एक और है। महाभारत का युद्ध समाप्त होने के बाद कृष्ण अर्जुन से पूछते है - "क्या मैं अब इस रथ का त्याग कर दूँ ? अर्जुन के हाँ कहने पर कृष्ण ने पहले अर्जुन को निचे उतारा और उसके बाद जैसे ही श्री कृष्ण नीचे उतरे, रथ राख की ढेरी हो गया। अर्जुन आश्चर्यचकित था। तब कृष्ण ने कहा था -"यह रथ तो कर्ण के बाणों से कभी का भष्म हो चूका था, यह तो मैंने अपने योगबल से इसे खड़ा कर रखा था।" अब आप कल्पना कर सकते है कि कुंती ने अपने बेटों के प्राणों की भीख कर्ण से नही मांगी होती तो युद्ध का क्या परिणाम होता ? सही समय पर सही मार्गदर्शन माता का पुनीत कर्त्तव्य है।
      "प्राचीनकाल में संजय नाम का राजा हुआ है। वह सिन्धुराज से पराजित होकर अपना राज्य खो बैठा था। दीन भाव से वह राज्य विहीन होकर घर में रहने लगा, तब उसकी माता व प्रसिद्ध क्षत्राणी "विदुला" ने कहा - "अरे ! तू मेरे गर्भ से उत्पन्न होकर भी मुझे दुःख देने वाला, धर्म को न जानने वाला और शत्रुओ का आनंद बढ़ाने वाला है। अतः मैं समझती हूँ कि तू मेरी कोख से पैदा ही नही हुआ है। तेरे पिता ने भी तुझे उत्पन्न नही किया, फिर तुझ जैसा कायर कहाँ से आ गया। तू सर्वदा क्रोध शून्य, क्षत्रियो में गणना के अयोग्य, तू नाममात्र का पुरुष है, तेरे मन आदि सब साधन नपुंसको के समान है। क्या तू जीवन भर के लिए निराश हो गया है ? अरे ! उठ और अपने कल्याण के लिए युद्ध का भर वहन कर अपने आपको दीन-हीन मत समझ । इस आत्मा को थोड़े धन से भरण-पोषण मत कर। अपने मन को शिव संकल्पों के समान करके निडर हो जा, भय को सर्वथा त्याग दे।"
         "अरे कायर ! उठ खड़ा हो, इस प्रकार पराजित हो घर में शयन मत कर। ऐसा करके तो तू सब शत्रुओ को ही आनंद दे रहा है और मान प्रतिष्ठा से वंचित होकर बंधू बांधवों को शोक में डाल रहा है। तू शत्रु रूप सर्प के दाँत तोड़ता हुआ तत्काल मृत्यु को प्राप्त हो जा। प्राण जाने का संदेह हो तो भी शत्रु के साथ युद्ध में पराक्रम ही प्रकट कर। तू दीन होकर अस्त मत हो। तू अपने शौर्यपूर्ण कर्म से प्रसिद्धि प्राप्त कर । तू मध्यम, अधम अथवा निकृष्ट भाव का आश्रय न ले, अपितु सिंहनाद करते हुए युद्धभूमि में डट जा। पुत्र ! धर्म को आगे रखकर या तो पराक्रम प्रकट कर अथवा मृत्यु को प्राप्त हो जा अन्यथा किस लिए जी रहा है। कायर ! तेरे इष्ट और आपूर्ति कर्म नष्ट हो गए, सारी कीर्ति धूल में मिल गई तथा सुख भोग का मूल साधन राज्य भी छिन गया, फिर तू किसलिए जी रहा है ?"
        "पुत्र ! तू धैर्य और स्वाभिमान का अवलंबन कर। अपने पुरुषार्थ को जान और तेरे कारण डूबे हुए इस वंश का तू स्वयम् ही उद्धार कर। जिसके महान और अद्भुत पुरुषार्थ तथा चरित्र की सबलोग चर्चा नही करते वह मनुष्य अपने द्वारा जनसँख्या की वृद्धि मात्र करने वाला है। मेरी दृष्टि में न तो वह स्त्री है और न ही पुरुष है।"
         "दान, तपस्या, सत्य भाषण, विद्या व धनोपार्जन सहित जिसके सुयश का सर्वत्र बखान नही होता वह क्षत्रिय अपनी माता का पुत्र मल-मूत्र मात्र है। संसार में कोई भी नारी ऐसे पुत्र को जन्म न दे जो उत्साह हीन, बल व पराक्रम से रहित तथा शत्रुओ का आंनद बढ़ाने वाला हो । अरे धूँए की भांति मत उठ ! जोर से प्रज्वलित हो जा और वेगपूर्ण आक्रमण करके शत्रु सैनिको का संहार कर डाल। तू एक मुहूर्त या क्षण के लिए ही सही, बैरियों के मस्तक पर जलती हुई आग बनके छा जा। वही पुरुष क्षत्रिय है जिसके हृदय में क्रोध है, जो शत्रुओ के प्रति क्षमा भाव धारण नही करता । पराजय के कारण लोक में तेरी जो निंदा और तिरस्कार हो रहा है, उन सब दोषो से तू स्वयं ही अपने आप को मुक्त कर तथा अपने हृदय को लोहे के समान दृढ बनाकर पुनः अपने योग्य पद का अनुसन्धान कर ।"
         "जो शत्रु का सामना कर उसके दाँत खट्टे कर देता है, वही पुरुष क्षत्रिय कहलाता है। जो इस जगत में स्त्री की भाँति भिरुतापूर्ण जीवन बिताता है, उसका पुरुष नाम व्यर्थ कहा गया है। जो मनुष्य अपने बाहुबल का आश्रय लेकर उत्कृष्ट जीवन व्यतीत करता है, वह इस लोक परलोक में श्रेष्ठ गति प्राप्त करता है। तेरा नाम तो संजय है, परन्तु मैं तुझ में इस नाम के अनुसार गुण नही देख रही हूँ। वत्स ! तू युद्ध में विजय प्राप्त करके अपना नाम सार्थक कर । व्यर्थ संजय नाम धारण मत कर । पुत्र ! तू युद्ध में शत्रुओं को मारकर अपने धर्म का पालन कर । तू जलते हुए धार की भाँति शत्रुओं पर टूट पड़। इस कुल में कभी कोई ऐसा पुरुष नही हुआ जो दूसरे के पीछे-पीछे चलता हो। तू दूसरे का सेवक बनकर जीवित रहने के योग्य नही है ।"
         "इस जगत में जो कोई क्षत्रिय उत्पन्न हुआ है व क्षत्रिय धर्म को जानने वाला है, वह धन अथवा आजीविका की ओर दृष्टि रखकर भी किसी के सामने नतमस्तक नही हो सकता।"
           विदुला ने कहा, "संजय ! जिस समय तुझ जैसे वीर का अपयश सर्वत्र फ़ैल रहा है, ऐसे अवसर पर भी यदि मैं कुछ न कहूँ तो मेरा यह वात्सल्य शक्तिहीन और निरर्थक होगा। संजय! इस लोक में युद्ध एवं विजय के लिए ही विधाता ने क्षत्रिय की सृष्टि की है। अतः वत्स ! तू श्रेष्ट पुरुषों द्वारा निन्दित और मूर्खो के द्वारा सेवित मार्ग का त्याग कर दे ।"
         "पुत्र ! पहले की ख्याति नष्ट हो गई है, यह सोचकर तुम्हे अपना तिरस्कार नही करना चाहिए । क्योंकि धन नष्ट होकर पुनः प्राप्त हो जाता है तथा प्राप्त किया भी पुनः नष्ट हो जाता है, सफलता होगी ही, मन में ऐसा दृढ विश्वास करके तथा निरन्तर विषाद रहित होकर तुझे उठना, सजग होना तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति कराने वाले कामों में लग जाना चाहिए।"
         संजय ने कहा, "माँ ? अब मैं या तो शत्रु रूपी जल में डूबे अपने राज्य का उद्धार करूँगा अथवा युद्ध में शत्रुओ का सामना करते हुए अपने पाप विसर्जित कर दूंगा ।" तदोपरांत संजय ने युद्ध किया व विजय श्री का वरण किया।
(4) वात्सल्य युक्त स्नेह -स्नेह माता की विशेषता है। गो माता को माता इसलिए माता नही कहा जाता है कि वह दूध देती है। दूध तो अन्य पशु भी देते है जो मनुष्य के पिने योग्य होता है । गाय की विशेषता यह है कि उसकी वाणी में अद्भुत वात्सल्य युक्त स्नेह भरा होता है। संध्याकाल में जब गायें वापस घरों को लौटती है तब घरों के समीप पहुचते ही वात्सल्य भाव उनमे इस प्रकार हिलौरे लेने लगता है कि वे अपनी संतानों से मिलने के लिए जब रंभाती है तो उनकी वाणी को सुनने वालो के हृदय भी स्नेह से भर जाते है। इसी स्नेह की प्रतिमूर्ति होने के कारण गाय को गौ माता कहा जाता है।
         क्षत्रिय का धर्म अत्यंत कठोर होता है। उसे थोड़ी भी नरमी पथभृष्ट कर सकती है। इसलिए उसे स्वभावतः ही अपने स्वभाव को कठोर बनाना होता है। नियमों के संचालन की जिम्मेदारी होने के कारण उसे स्वयम् कठोर अनुशासन का पालन करना होता है और फिर युद्ध कर्म अपने आप में अति कठोर व क्रूर कर्म है। इसलिए स्वभावतः ही क्षत्रिय को कठोर होना चाहिए। लेकिन इतिहास इस बात का साक्षी है कि इतने कठोर कार्यों को करते हुए भी क्षत्रियों में जो उदारता व स्नेह देखने को मिलता है वह अन्य युद्ध कर्मी जातियों में नही देखा गया है, जिसका रहस्य क्षत्रिय माताओं के स्नेहपूर्ण व्यवहार में ही निहित है।
         क्षत्रिय के जीवन में अनुशासन एक अनिवार्यता है। महाभारत का युद्ध शुरू हुआ उससे पूर्व दुर्योधन भीष्म पितामह से कहते है - "हम पूर्वजो से सुनते आये है कि एक बार ब्राह्मणो के नेतृत्व में समस्त वर्णों ने संगठित होकर क्षत्रियों पर आक्रमण किया लेकिन उस युद्ध में क्षत्रियों की जीत हुई। पराजित लोगो ने तब क्षत्रियों से आकर पूछा, तुम्हारी जीत का रहस्य क्या है, तब क्षत्रियो का उत्तर था 'अनुशासन ।' अनुशासन ही हमारी जीत का कारण है।" फिर दुर्योधन कहता है "महाराज मेरी सेना में आपके नेतृत्व में ही अनुशासन रह सकता है अतः आप नेतृत्व का भार संभालें ।"
        कहने का तात्पर्य है कि अनुशासनहीन होने पर कभी भी विजय नही मिल सकती है। इसलिए क्षत्रिय अपने बालकों को आरम्भ से ही कठोर अनुशासन में रहना सिखाते है। लेकिन यह कठोर अनुशासन उनको अन्य लड़ाकू जातियो की भाँति बर्बर और क्रूर कभी नही बनाता। शत्रुओं को क्षमा करने, विधर्मियो के साथ उच्च व्यवहार व मात्र प्रतिशोध की दृष्टी से प्रत्याक्रमण से इंकार करने के क्षत्रियों के सैकड़ो नही हजारो दृष्टान्त इतिहास में भरे पड़े है। इस चरित्र का रहस्य केवल यही था कि क्षत्राणियों ने बचपन से अपनी संतानो के हृदयों को अपने स्नेह से इस प्रकार सिंचित किया था कि कठोर अनुशासन भी उनमे कभी बर्बरता का संसार नही कर पाया।
       स्नेह स्त्री जाति का स्वाभाविक गुण है । जैसा कि हम पहले लिख चुके है कि कन्याओं को बचपन से ही इस स्नेह का भाई-बहिन के साथ उदार व्यवहार कर संचय करना चाहिए और जब वे माताएँ बने तो उन्हें इस स्नेह का विस्तार अपनी संतानो के साथ मधु-व्यवहार से करना चाहिए।
(5) संस्कार - भारतीय जीवन पद्धति के अनुसार गर्भाधान से लेकर मृत्यु तक 16 संस्कार प्रत्येक व्यक्ति के होने चाहिए है । लेकिन आज के इस जटिल युग में इतने संस्कारों का विधिवत् निर्वाह सम्भव प्रतीत नही होता है। अतः कम से कम दो संस्कारो को विधिवत् सम्पन्न करने का प्रयत्न प्रत्येक माता को करना चाहिए। इनमे प्रथम संस्कार है "द्विजातीय संस्कार" है, जिसको आजकल 'जनेऊ पद्धति' कहते है। इस संस्कार की वास्तविक पद्धति प्रायः नष्ट हो चुकी है, अतः उसे पुनः जीवित करने की आवश्यकता है। जब बालक पांच वर्ष से 12 साल की आयु के बीच की आयु का हो उस समय उसका पिता उसको अपने द्वारा सिद्ध किया हुआ मन्त्र प्रदान करे ताकि वह अपने वर्ण को प्राप्त हो सके, क्षत्रिय बन सके। इसके लिए आवश्यक है कि पिता के पास सिद्ध किया मन्त्र हो, लेकिन आज के युग में जब सारी ही श्रेष्ठताएँ नष्ट होती जा रही है तो भगवान का नाम लेने की श्रेष्ठता कैसे जीवित रहती ? कितने लोग समाज में ऐसे है जो प्रतिदिन मन्त्र जप करते है ? व जो मन्त्र जप करते है उनमे से भी ऐसे कितने है जिनके मन्त्र सिद्ध हो चुके है ? और उनमे से भी ऐसे कितने है जिन्होंने संतानोत्पत्ति के पूर्व मन्त्र को सिद्ध किया है ? इस परीक्षण के बाद उत्तर शून्य मिलेगा । तब प्रश्न है कि संतानो का द्विजातीय संस्कार कैसे हो ? अज्ञान में जो समय निकल गया उसकी चिंता करने से कुछ बनने वाला नही है। हमारे पास हमारे पिता का दिया मन्त्र नही है तो विकल्प यह हो सकता है कि ऋषि श्रेष्ठ श्री विश्वामित्र द्वारा सिद्ध किये हुए "गायत्री मन्त्र" को हम विश्वामित्र को ही गुरु स्वीकार कर "गुरु मंत्र" के रूप में स्वीकार करे व इस गायत्री मंत्र का जप आरम्भ करे तथा इसी मन्त्र को अपनी संतानो को उचित आयु में मन्त्र प्रदान कर दीक्षित कर क्षत्रिय बनने का अवसर प्रदान करे । इसके अलावा और कोई विकल्प दृष्टिगोचर नही होता है।
        कन्याओं के लिए हम पहले ही मन्त्र का उल्लेख कर चुके है, जैसे ही बालिका छठे वर्ष में प्रवेश करे, माताओ को चाहिए कि वे उसे मन्त्र का जप करना सिखाए।
       जब इस मिलावट की दुनिया में सभी चीजे अशुद्ध हो रही है तो मन्त्र भी शुद्ध कैसे रह पाते। लोगो ने भाषा के शुद्धि करण के नाम पर गायत्री मंत्र को भी अशुद्ध कर दिया है। इसलिए शुद्ध गायत्री मन्त्र व इस मन्त्र के साथ संध्याकाल में प्राणायाम करने की विधि भी हम नीचे लिख रहे है ताकि शुद्धता से मन्त्र का जप किया जा सके। गायत्री इस मन्त्र का नाम नही है। गायत्री तो छन्द है, जिसमे चौबीच अक्षर होते है। आजकल पुस्तको में जो मन्त्र मिलता है उसमे 23 ही अक्षर है। भाषा के शुद्धिकरण के नाम पर एक अक्षर कम कर दिया है जो उचित नही है। मन्त्र में भाषा की शुद्धि का कोई महत्त्व नही है। मन्त्र जिस रूप में सिद्ध किया गया है, जपकर्ता के प्रभाव के कारण वह उसी रूप में सार्थक है। गायत्री मन्त्र का पूरा नाम है - "पंच प्रणव ब्रह्म गायत्री, जो निम्न प्रकार है -
       "ॐ भूर्भुवः स्वः
        तत्सवितु वरेणियं (वर्रेण्यं नहीं )
        भर्गो देवस्य धीमहि
         धियो यो नः प्रचोदयात्"
    पंच प्रणव इसलिए कहा गया है कि प्राणायाम के समय इसमें पाँच बार प्रणव ॐ का प्रयोग होना चाहिए।
        ॐ शब्द तीन अक्षरों उ+अ+म के संयोग से बना है। यह तीनो अक्षर क्रमशः भू लोक, भुवः लोक व स्वर्ग लोक के प्रतीक है। मनुष्य के शरीर में चरणों से लेकर कटि तक का भाग भू लोक है, कमर से लेकर गले तक का भाग भुवः लोक है व गर्दन से ऊपर का भाग स्वर्ग लोक है। क्षत्रियो की उत्पत्ति भुवः लोक से - जिसमे हृदय स्थित है से हुई है। अतः संध्या करते समय पहले केवल ॐ (जिसे प्रणव कहते है) के साथ प्राणायाम करना चाहिए। चरणों से आरम्भ कर कमर तक का ध्यान करते हुए श्वांस को ऊपर खींचना चाहिए, फिर हृदय स्थान पर ध्यान कर सविता (सूर्य भगवान्) के प्रकाश को हृदय में स्थापित करने के उद्देश्य से वहां पर श्वांस को रोकना चाहिए व अंत में दोनों भौंहो के बीच ध्यान करते हुए श्वांस को छोड़ देना चाहिए
इसके बाद ॐ भुः भुर्व: स्वः के साथ इसी प्रकार यानि ॐ भुः के साथ पूरक (श्वांस खींसना) भुवः के साथ कुम्भक (श्वांस रोकना ) व स्वः के साथ रेचक ( यानि श्वांस छोड़ना) करना चाहिए । ध्यान पूर्ववत् चरण से कमर तक पूरक फिर हृदय पर कुम्भक व भृकुटि पर रेचक करना चाहिए ।
     इसके उपरांत "ॐ तत्स" के साथ पूरक , "वितु" के साथ कुम्भक व "वरेणियं" के साथ रेचक करना चाहिए । इसी प्रकार फिर "ॐ भर्गो" के साथ पूरक, "देवस्य" के साथ कुम्भक व "धी महि" के साथ रेचक करना चाहिए। अंत में "ॐ धियो" के साथ पूरक, "यो नमः" के साथ कुम्भक व "प्रचोदयात्" के साथ रेचक करना चाहिए ।
      इस मन्त्र का अर्थ भी समझना आवश्यक है ताकि ध्यान के समय विचार भी ऐसे ही बने, जो निम्न प्रकार है -
तत्सवितु वरेणियं > तत् + सवितु + वरेण्य = उस तेजस्वी सूर्य का जो वरण करने योग्य है
भर्गोदेवस्य धीमहि > भर्ग + देवस्य + धीमहि = श्रेष्ठ देवका ध्यान करते है श्रेष्ठ अर्थात (बुराई का नाश करने वाली शक्ति ) देव का अर्थात (तेज रूप सविता का )
धियो यो नः प्रचोदयात् > धियः + यः + नः + प्रचोदयात् = बुद्धि को जो ( सविता ) हमारी प्रेरित करे।
    शास्त्र के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को पाँच समय संध्या करनी चाहिए लेकिन आज के व्यस्त जीवन में यह सम्भव नही है।  अतः माताओं को चाहिए कि वे बालकों को कम से कम एक समय संध्या करने की आदत डाले। उपरोक्त विधि से प्राणायाम करके संध्या करनी चाहिए । संध्या के पाँच काल है -
     1. मध्य रात्रि, ( रात्रि को 12 बजे )
     2. मध्य रात्रि व सूर्योदय के मध्यकाल में अर्थात रात्रि के तीन बजे
     3. सूर्योदय के समय
     4. मध्याह्न अर्थात दोपहर 12 बजे
     5. सूर्यास्त के समय
    दूसरा प्रमुख संस्कार जिसके बारे में पहले उल्लेख किया जा चूका है विवाह संस्कार है। इसके लिए पति को इतना आध्यात्मिक शक्ति सम्पन्न होना चाहिए कि वह अपने संकल्पों को पत्नी के हृदय में स्थापित कर सके व पत्नी में भी इतनी आध्यात्मिक शक्ति हो कि वह उन संकल्पों को धारण कर सके। अतः आवश्यक है कि माताएँ बचपन से ही बालक-बालिकाओं को मन्त्र जप के लिए प्रेरित करे ताकि युवावस्था को प्राप्त होने पर उनका वास्तविक विवाह हो सके।
        इन संस्कारो को पुनः जीवित करना स्वयम् व्यक्ति के लिए, उसके परिवार के लिए तथा समाज के हित में अतिआवश्यक है, यदि ऐसा नही किया गया तो सम्पूर्ण परिवार व समाज व्यवस्था इस संसार में छिन्न-भिन्न हो जाएगी व इस महान संस्कृति को नष्ट करने की जिम्मेदारी वर्तमान पीढ़ी पर होगी।
      अतः माताओं को चाहिए कि वे कम से कम उपर्युक्त दो संस्कार पुनर्जीवित हो सके इसके लिए पूरी लगन के साथ प्रयास करे और बालकों में कम से कम एक समय संध्या करने की आदत बचपन से ही डाले।
(6) कला का विकास - आजकल लोग व्यावसायिक शिक्षा व महिलाओं के लिए रोजगार की मांग कर रहे है । ये मांगे इसलिए उठा रहे है कि परिवारो में जो कला के विकास की परम्परा थी वह लुप्त हो गई है। पहले प्रत्येक क्षत्रिय के परिवार में सिलाई, बुनाई, कढ़ाई, चित्रकारी, संगीत, नृत्य व अन्य प्रकार की कलाओ का शिक्षण बालक-बालिकाओ को बचपन से दिया जाता था । जिसके परिणामस्वरूप् वे न केवल अपनी घरेलु आवश्यकताओ की पूर्ति करती थी बल्कि दुसरो की आवश्यकताओ की पूर्ति कर लोकप्रियता भी अर्जित करती थी। आज के युग में अब हर चीज पैसे से बिकती है, कला ऐसी वस्तु है जो धड़ल्ले से बाजार में अच्छे दामों में बिक रही है, क्योंकि विदेशो में कला का नितांत अभाव हो चला है, इसलिए भारतीय कला विदेशो से अच्छी मात्रा में विदेशी मुद्रा अर्जित करने में सफल हो रही है।
       माताओ को चाहिए कि वे स्वयम् इन कलाओ को सीखने में और आज के युग की अनेक अन्य कलाओं को भी सिखने में रूचि लें। स्वयं धनोपार्जन कर व अपने-बालिकाओं को भी इसका प्रशिक्षण दे । इससे एक और हमारी ढहती हुई अर्थव्यवस्था को संबल मिलेगा वहीँ दूसरी ओर बालक-बालिकाओं में स्वावलम्बी  होने का आत्मविश्वास पैदा होगा और वे जीवनयापन के लिए परमुखापेक्षी होने के बजाय स्वावलम्बी होने में अधिक रूचि लेने लगेंगे।
        आज प्रत्येक युवक-युवती जो शिक्षित है, नोकरी के लिए लालायित रहते है। सेवा वृत्ति, क्षुद्र वृत्ति है जो आत्मविश्वास के समाप्त होने पर व्यक्ति में पैदा होती है। इसी आत्मविश्वास के अभाव में हम खेती व पशुपालन जैसी परम्परागत व्यवसायों को छोड़कर नौकरी की ओर भटक रहे है। यह प्रवृति हीन भावना की प्रतिक है, जिसको स्वावलंबन के सहारे आत्मविश्वास को पैदा करके ही रोका जा सकता है। आज लोग गाँवों को छोड़कर शहरो की ओर भागने लगे है और इस कार्य में माताओं का सबसे बड़ा सहयोग है। लेकिन जो शहर में आकर बस रहे है उन्हें समझ लेना चाहिए कि उनकी संताने आगे जाकर दो ही वर्गों में मिलेगी एक व्यवसायी और दूसरे मजदुर, इन दोनों ही श्रेणियों में रहते हुए वे क्षत्रिय के संस्कारो को जीवित नहीं रख पाएंगे और कालांतर में इनकी दो अलग ही जातियाँ बन जाएँगी जिन्हें लोग शायद क्षत्रिय के रूप में स्वीकार नहीँ करे।
        संक्षेप में माताओं के कर्त्तव्यों को इस शीर्षक में वर्णित किया गया है। इनके अलावा भी माताओं के अन्य बहुत से कर्त्तव्य है जिनमे अलग-अलग घर के विभागों के प्रति व व्यक्तियो के प्रति उनके उत्तरदायी निहित है, जिनका विस्तार के भय से यंहा हम वर्णन करना नहीं चाहेंगे लेकिन इतना जरूर कहेंगे कि परिवार में एकजुटता बनाए रखने, उनमे सद्भाव व सबके साथ समान व्यवहार की भावना पैदा करने की जिम्मेदारी प्रमुख रूप से माताओ की है जिसे उन्हें वहन करना चाहिए ।....Next
         
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