बुधवार

युगधारा

   लोग कहते है समय के परवाह में बहुत शक्ति होती है । युगधारा से जो भी टकराने की चेष्टा करता है उसका सर्वनाश हो जाता है। इसलिए समय को देखकर तदानुसार आचरण करने की शिक्षा वृद्ध लोग दिया करते थे। एक वृद्ध जनों की सभा में यह भी सुनने को मिला कि पूर्व काल में वृद्ध लोग अपने सीने पर एक तख्ती लटका कर चलते थे, जिस पर लिखा होता था "जिन्होंने हमारा जमाना देखा देखा वे हमारे कार्यों को बताएंगे ।" युवकों के सीने पर भी इसी प्रकार की तख्ती पर लिखा होता था "हमारा जमाना है और हम बताएंगे कि जमाने को कैसे बदला जा सकता है," बालकों के सीने पर भी लिखा होता था "हमारा जमाना आएगा तब लोग हमारे काम को देखेंगें।"
      भीष्म पितामह ने कहा है कि क्षत्रिय में वह शक्ति है जो युगधारा को न केवल रोक सकता है बल्कि उसके प्रवाह को बदल सकता है। उपर्युक्त कथनों को सुनने के बाद यह संशय पैदा होता है कि युगधारा के नाम पर जो कुछ अच्छा या बुरा हो रहा हो क्या उसी में सम्मिलित हो जाना चाहिए ? क्या इसी में कल्याण है ? और यदि इस युगधारा से टकराने की कोशिश की गई तो क्या विनाश अवश्यम्भावी है ? दूसरा प्रश्न उठता है कि यदि ऐसे लोग संसार में पैदा नही हुए होते जिन्होंने निकृष्टता की ओर बहती हुई युगधाराओं का मार्ग अवरुद्ध कर, उन्हें विपरीत दिशा में बहने को बाध्य नही किया होता तो क्या यह संसार भले लोगो के जीने लायक स्थान बना रहता ?
          गहराई से विचार करने के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते है कि युगधारा को बदलने के लिए जितनी शक्ति और सामर्थ्य की आवश्यकता है, उतनी शक्ति का उपार्जन किए बिना जिन लोगों ने युगधारा को पलटने की चेष्टा की वे सदा-सदा के लिए विनाश के गर्त में चले गए। लेकिन जिन लोगों ने पर्याप्त शक्ति संचय करने में समय लगाया व उपयुक्त अवसर प्राप्त होने पर युगधारा को पलटने की चेष्टा की उन्होंने हमेशा अपने कार्यो में न केवल सफलता अर्जित की की, बल्कि लोग युगों-युगों तक सम्मान के साथ उन्हें पूजते रहे हैं ।
          आज क्षत्रिय समाज के सामने दो बहुत बड़ी चुनोतियाँ है। पिछले 50 वर्ष में अकेली क्षत्रिय जाति को जितनी आर्थिक हानि उठानी पड़ी है उतनी शायद कभी भी किसी जाति को एक साथ हानि नही उठानी पड़ी हो। बुद्धिजीविओं द्वारा पोषित, पूंजीपति वर्ग ने सत्ता, व्यवसाय, प्रशासन व प्रचार माध्यमों आदि समस्त शक्ति के श्रोतों पर एकाधिकार कर लिया है। इस एकाधिकार के परिणामस्वरूप उनके पास जो शक्ति एकत्रित हुई है उस सारी शक्ति का उपयोग उन्होंने अकेली क्षत्रिय जाति का विनाश करने के लिए किया है। स्वयं के लिए प्रगतिशील, समाजवादी, प्रजातांत्रिक, अहिंसावादी और संग्राम के सेनानी, जैसे अलंकारो को लगाकर जहाँ अपने कुकर्मो व हिनवृत्तियों को छिपाने की चेष्टा की है वहीँ पर दूसरी ओर क्षत्रियों के लिए प्रतिक्रियावादी, सामन्तवादी, गद्दार, शोषक जैसे अलंकार लगाकर उनके मनोबल को तोड़ने व लोगो में उनकी छवि को धूमिल करने की चेष्टा की गई है।
         प्रचार में लोगो को गुमहार करने की कितनी बड़ी शक्ति है, इसका पता इसी बात से पता चल सकता है कि जिन लोगों को इतिहास के पन्नों में कहीं भी देश-धर्म व मानवता की रक्षा के लिए एक बून्द भी रक्त बहाते नही देखा गया, उन्हें आज लोग देशभक्त कहकर पुकारते रहे है व जिन्होंने इस धरती के चप्पे-चप्पे को देश व धर्म की रक्षा के लिए अपने खून से रंगा उन्हें लोग प्रति-क्रियावादी अ शोषक समझने लगे है।
        आज लोग राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल होने व प्रगतिशील बनने की बातें कह रहे है, लेकिन क्या यह प्रगतिशीलता व तथाकथित राष्ट्रीयधारा "पूंजीपतियों द्वारा प्रवाहित व बुद्धिजीवियों द्वारा संरक्षित भ्रष्टाचार, अनाचार व शोषण की धारा नहीं है ?" लोग इन बैटन को धीरे-धीरे समझने लगे है लेकिन वे इतने असमर्थ, कायर व स्वार्थी हो गए है कि अपने छोटे-छोटे स्वार्थों के कारण इन लोगों के खिलाफ बोलने का साहस नही करते और जो लोग साहस जुटाने की चेष्टा करते है, उन्हें पूंजी के बल पर, सत्ता के बल पर व प्रचार माध्यमो के वितंडावाद के द्वारा इस प्रकार से विखण्डित किया जाता है कि उनकी दशा को देखकर अन्य लोग इस पाखंड के खिलाफ कमर कसने का साहस भी नहीं जुटा पाते ।"
         आयुवानसिंह जी ने अपनी पुस्तक हमारी ऐतिहासिक भूलों में लिखा है कि सिकंदर के आक्रमण से लेकर भूस्वामी आंदोलन तक क्षत्रियों ने कभी भी शत्रुओं पर आक्रमण करने की निति नहीं अपनाई व केवल सुरक्षात्मक युद्ध लड़ते रहे जिसके परिणामस्वरुप हमारी स्वयं की शक्तियां क्षीण होती रही व शत्रुओं का मनोबल बढ़ता रहा। आज भी वहीँ परिस्थिति है और हम भी उसी मूर्खतापूर्ण निति पर चल रहे है। झूठे इतिहास लिखकर उनमे परिवर्तन कर, धर्म ग्रंथों में परिवर्तन कर, अख़बारों के माध्यम से हमारे विरुद्ध मिथ्या प्रचार कर, सिनेमा, दूरदर्शन व आकाशवाणी से हमारे समाज की छवि को विकृत करने वाले कार्यक्रम प्रस्तुत कर, व आमसभाओं में सरेआम हमको शोषक व प्रतिक्रियावादी बताकर शत्रु पक्ष हमारे मनोबल को तोड़ने, इतिहास को कलंकित करने व लोगो में हमारी छवि को विकृत का प्रयास कर रहा है और हम रक्षात्मक युद्ध करते हुए अपनी प्रतिदिन की समस्याओं अथवा शत्रु पक्ष द्वारा थोपी गई समस्याओं से जूझने में डटे हुए है। ऐसे भी लोग है जो यह जानते हुए कि कौन हमारा शत्रु है व कौन हमारा मित्र है, अपने छोटे स्वार्थों, महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति अथवा अहंकार की तुष्टि के लिए शत्रु पक्ष के हथियार बनकर समाज के हितो पर कुठाराघात कर रहे है और हम चुपचाप इस तमाशे को देखकर उनके ही सहगामी बनने का अपराध कर रहे है।
         यह है आज की "युगधारा" जिसका उद्देश्य हमारे स्वधर्म, हमारी संस्कृति व हमारे इतिहास को मटियामेट कर देना है। जिसका उद्देश्य प्रत्येक व्यक्ति को इतना भ्रष्ट, इतना दुर्बल व इतना शक्तिहीन कर देना है कि वह इस तथाकथित युगधारा के विरुद्ध आवाज उठाने या कुछ कर गुजरने की क्षमता ही नहीं रखे। क्या इस युगधारा के साथ रहकर ऐन केन प्रकारेण अपनी व्यक्तिगत हैसियत को बनाए रखकर हम क्षत्रिय के रूप में जिन्दा रह सकते है ? और अगर नही रह सकते तो इसका विकल्प क्या है ? इस पर गंभीरता से विचार करना होगा।
        हमारे सामने आज दो मुख्य समस्याएँ है उनमे से पहली है हमारी आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करना। इतिहास इस बात का साक्षी है कि जो जातियां समय के परवाह में फंसकर अपनी आर्थिक स्थिति को मझबूत नहीं रख पाई, उनका सदा के लिए नाश हो गया।
        वाल्मीकि रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि के वंशज कितने उच्चकोटि के क्षत्रिय रहे होंगे इसकी कल्पना हम इस बात से कर सकते है कि अपने वनवास काल के चौदह वर्षों में से श्रीराम, लक्ष्मण व सीता जी ने दस वर्ष का समय वाल्मीकिजी के साथ आश्रम में रहकर बिताया व उनसे मार्गदर्शन प्राप्त कर तपस्या की। आज उन्ही वाल्मीकि जी के वंशजो को कपडे पहनने, उठने बैठने तक की सभ्यता नहीं है । लोग उन्हें शुद्र व अछूत कहने लगे है। इस महान जाति को इतनी निकृष्ट अवस्था में पहुँचाने का काम उनकी बिगड़ी आर्थिक स्थिति ने ही किया है। यदि उनकी आर्थिक स्थिति नही बिगड़ी होती तो वे अपनी संतानो को शिक्षित व योग्य बना सकते थे, उनको अपने कर्त्तव्यों का बोध करा सकते थे तथा अपने अधिकारो के लिए लड़ सकते थे।
         हमारे भी शत्रुओं का मुख्य प्रहार हमारी आर्थिक स्थिति पर है, हमारे पास खेती के लिए जमीने नही रहनी चाहिए, हमे नौकरियाँ नहीं मिलनी चाहिए, हमे उद्योग धंधो में स्थान नहीं मिलना चाहिए यह निति उन सभी पूंजीपतियों द्वारा पालित बुद्धिजीवियों की है जो विभिन्न राजनैतिक दलों में बैठकर भी एक ही लक्ष्य से काम कर रहे है कि हमारी आर्थिक स्थिति को ऐन केन प्रकारेण नष्ट-भ्रष्ट किया जाए।
        इतने प्रबल शत्रुओं के होते हुए व योजनाबद्ध षड्यंत्र के माध्यम से हो रहे प्रहारों की प्रतिकूलता के रहते क्या आज हमारे पास ऐसी शक्ति है जिसके बल पर हम अपनी आर्थिक स्थिति को मजबूत कर सके ? इस प्रश्न पर हमे गंभीरता से विचार करना होगा।
        समाज का प्रत्येक व्यक्ति यदि अलग-अलग अपनी आर्थिक स्थिति को सुधारने में लगा रहा, तो निश्चित रूप से हम इन प्रबल शत्रुओं से लड़कर अपनी आर्थिक स्थिति को बचा नही पाएंगे, लेकिन अगर हम सामूहिक बुद्धि का विकास करे, मिलकर एक दूसरे के सहयोग से ईमानदारी के साथ अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने की चेष्टा करे, तो निश्चित रूप से समाज में आज भी इतनी शक्ति है कि बिना किसी दूसरे के आश्रय के हम अब भी अपनी स्थिति को सुदृढ़ कर सकते है। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि आज भी हम अपनी सोच को बदलने को तैयार नही हैं । जिसके पास थोडा धन हो जाता है वह अपने पूर्वस्तर के लोगों व उससे भी निम्न स्तर के लोगोंबड़े प्रायः दूर रहने में गौरव का अनुभव करता है । इसी प्रकार कमजोर आर्थिक स्थिति के लोग अपने से अच्छी स्थिति के लोगों को यह समझ कर दुर ही रहना चाहते है कि इनसे हमारा कोई हित साधन होने वाला नही है। इन शंकाओ व मनोभावनाओं से हमे मुक्त होना पड़ेगा। सबल, दुर्बल की सहायता के लिए हाथ बढ़ाएँ व दुर्बल, सबल से निकटता स्थापित करने में संकोच न करे ऐसा वातावरण तैयार करना होगा। ऐसा वातावरण तभी तैयार हो सकता है जबी हम हृदय में ऐसी भावना पैदा करे कि प्रत्येक क्षत्रिय मेरा। उसका हित मेरा हित है । उसका अहित मेरा अहित है। एक व्यक्ति की पीड़ा सारे समाज की पीड़ा व एक का आनंद जब तक सारे समाज का आनंद नही बन पाएगा तब तक आर्थिक लड़ाई में हम विजय प्राप्त नही कर सकेंगे।
         इस लड़ाई का दूसरा पक्ष भी है, आज के वैज्ञानिक युग में नई-नई तकनीक व नई-नई विधियों का अविष्कार हो रहा है। उनसे दूर रहकर हम आर्थिक क्षेत्र में प्रगति नही कर सकते, हमको चाहिए कि हम देश में आने वाली हर नई चीज में रूचि ले, उसको सीखे व अपने साथियों को उसके लाभ से अवगत कराएँ, उन्हें प्रशिक्षित करे ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि समाज के एक व्यक्ति का लाभ पुरे समाज तक पहुँच रहा है। चाहे कृषि क्षेत्र हो या उद्योग का । जो व्यक्ति जिस विधि से उस क्षेत्र में सफलता पाता है उसको उस विधि का ज्ञान दूसरों को अवश्य कराना चाहिए। इससे न केवल आर्थिक स्थिति का विकास होगा बल्कि आत्मीयता का भी विकास होगा। एक दूसरे के सहयोग के लिए आवश्यक है कि लोगों का आपस में परिचय व गहन सम्बन्ध हो। इसके लिए लोगों को सामाजिक गतिविधियों में, समारोहों में, सभाओं में भाग लेने की आदत डालनी होगी ताकि लोगों में निकटता पैदा हो सके।
      इसी समस्या का एक दूसरा पहलु भी है। महावीर स्वामी के वंशजो ने अपनी आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करने पर अत्यधिक ध्यान दिया, आज वे अर्थ के माध्यम से देश में शोषण करने वालों में अग्रणी गिने जाते है। समस्त प्रकार के साधन, धन व वैभव होते हुए भी आज उनमे से एक भी क्षत्रिय के रूप में नहीं जाना जाता। इससे स्पष्ट है कि केवल आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ कर लेने से ही हम क्षत्रिय के रूप जीवित नही रह सकते। क्षत्रिय के रूप में जीवित रहने के लिए आर्थिक स्थिति मजबूत होने के साथ अनिवार्य शर्त यह भी है कि हम अपनी संस्कृति से प्रेम करे, अपने में क्षत्रिय के गुणों का विकास करे व क्षत्रियों के साथ मिलकर रहे। हम देख रहे है कि आज जो लोग सम्पन्नता की ओर आगे बढ़ रहे है वे क्षत्रिय संस्कृति व समाज से दूर हटते जा रहे है। ऐसे लोग धन के मद में अपने को बुद्धिमान समझ सकते है लेकिन उन्हें समझ लेना चाहिए कि उनकी संताने कभी भी क्षत्रिय नही कहलाएंगी। यदि उन्हें क्षत्रिय बने रहना है तो उन्हें सामाजिक गतिविधियों से व समाज की परम्पराओं से जुड़े रहना होगा।
      इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि क्षत्रिय के रूप में जीवित रहने के लिए आर्थिक स्थिति को मजबूत बनाना जितना जरूरी है उतना ही जरूरी यह भी है कि हम समाज से, इतिहास व संस्कृति से तथा रीती-रिवाजों से दृढ़तापूर्वक जुड़े रहे।
       दूसरी सबसे बड़ी जटिल समस्या जो इस तथाकथित युगधारा ने हमारे सामने पैदा की है वह है "मानसिक दासता" । विकृत धर्म ग्रंथों के प्रचार-प्रसार, फर्जी इतिहासों के पठन-पाठन व अन्य प्रचार माध्यमों द्वारा किए जाने वाले दूषित प्रचार से अत्यधिक प्रभावित होकर हमने अपने आपको शोषक, मुर्ख व हीन समझना आरम्भ कर दिया है। इसे यों भी कह सकते है कि हमने बुद्धिजीवी व पूंजीपतियों की मानसिक दासता स्वीकार कर ली है। इस दासवृत्ति के रहते कोई भी अपने कल्याण की कल्पना नही कर सकता है। आज लोग सहज में कह देते है "कोउ नृप होय हमें का हानि," लेकिन यह कहने वाले यह नही जानते कि इस उक्ति को दासी मंथरा ने कहा था। यह कथन दास वृत्ति का द्योतक है, वीर वृत्ति का नहीं। सब मरेंगे तो हम भी मर जाएंगे यह तो हर कोई सोच सकता है लेकिन क्षत्रिय तो वह है जो दूसरों के कल्याण के लिए अपना जीवन दान देता है। आज गरीब जनता का शोषण हो रहा है ये लोह असहाय हो कतर दृष्टि से ऐसे लोगों की प्रतीक्षा कर रहे है जो उन्हें शोषण से मुक्त करा सकें। दूसरी ओर हम है जो मानसिक दासता के कारण यह समझ बैठे है कि यह गरीब जनता हमारे विरुद्ध हो गई है।
         हमें यह नही भूलना चाहिए कि गरीब जनता हमेशा शोषकों के विरुद्ध रहती है। आज हम शोषक नही है हमे यह ईमानदारी से स्वीकारना चाहिए कि मध्यकाल में हमने पुराणवादी पंडवाद के प्रभाव में आकर गरीब जनता का शोषण किया हम इन पाखण्डपूर्ण ग्रंथों के रचनाकार नही हैं। किसी भी क्षत्रिय ने आज तक यह नही लिखा कि शुद्र अछूत होता है। भीष्म पितामह ने तो यहाँ तक कहा कि किसी के संतान नही हो व एक मात्र शुद्र नौकर हो तो वह अपने मृतक स्वामी के पिंडदान कराने का अधिकारी है। हमारा दोष तो केवल इतना है कि अशिक्षा के कारण हम इस पुराणवादी पाखण्ड में फँसे। हमारे अज्ञान में फँसने का दोष भी सम्पूर्ण रूप से हमारे ऊपर ही नही लगाया जा सकता। देश व धर्मं की रक्षार्थ भीषण युद्धों के कारण जो हमारा वंश नाश हुआ उसी ने हमको अज्ञान के गर्त अथवा अशिक्षा के गर्त में धकेल दिया। हमारे अशिक्षित होने का लाभ उठाकर धूर्त धन लोभी बुद्धिजीवियों ने धर्म के नाम पर अनेक पाखण्ड रचे व हमे शिकार बनाकर अपने विनाश व गरीबों के शोषण का हेतु बनाया।
       इस प्रकार स्पष्ट है कि मानसिक दासता ने हमे अचानक नही धर दबोचा। धीरे-धीरे षड्यंत्रपूर्वक हमको मानसिक दास बनाया गया, जब तक हम इस दासता से मुक्त होकर गरीब जनता के सामने खुले दिल से उपस्थित नही होंगे, तब तक हमारी मानसिकता भीरुता समाप्त होने वाली नही है।
         इस मानसिक दासता से मुक्ति के लिए आवश्यक है कि हम पूर्व इतिहास को, पूर्व के धर्म ग्रंथों को, उपनिषत्, बाल्मीकि रामायण व महाभारत जैसे ग्रंथो को, संतो की वाणियों को, आधुनिक इतिहास को, राजस्थानी साहित्य को व अन्य उपयोगी सामग्री पढ़े। न केवल पढ़े बल्कि शोधपूर्ण दृष्टि से पढ़े, तब हमे पता चलेगा कि हमे किस प्रकार मुर्ख बनाकर मानसिक दृष्टि से गुलाम बना लिया गया है व गरीब जनता जो हमेशा सुख-दुःख में हमारी सगी रही है उसको हमारे से दूर कर दिया गया।
         इतना सब कुछ जान लेने के बाद यह आवश्यक होगा कि हम सुरक्षात्मक निति को छोड़कर आक्रामक निति को अपनाएँ। जिन लोगों ने धर्म के नाम पर, मानवता के नाम पर, प्रगति के नाम पर व अन्य नामो का आश्रय लेकर पाखंड फैलाया, षड्यंत्र रचे उनका पर्दाफाश किया जाए। जिस दिन हम इस पुनीत कार्य का नेतृत्व करने को तैयार होंगे गरीब जनता हमको हमेशा की तरह संघर्ष के लिए पीछे खड़ी तैयार मिलेगी।
       प्रसंग युगधारा से आरम्भ हुआ था। युगधारा किधर बह रही है व उसे रोकने व उसका प्रवाह बदलने के लिए क्या कुछ किया जा सकता है, इसके सम्बन्ध में ऊपर की पंक्तियों में हमने कुछ विचार किया, लेकिन युगधाराएँ केवल विचारो से नही बदली जा सकती, विचार शक्ति फूँकने व लोगो में परिवर्तन लाने का एक साधन हो सकते है वह स्वयं शक्ति नही है इन विचारों को शक्ति का रूप देना है तो विचारों के अनुसार हमें आचरण बदलना होगा। स्वयं को शारीरिक, मानसिक, आर्थिक व साधनों की दृष्टि से, बौद्धिक व आत्मिक दृष्टि से बलवान बनाना होगा । इस महान कार्य के लिए हमे जंगलो व पहाड़ो की खाक छननी होगी, कष्ट सहन करने की आदत डालनी होगी, सुख-सुविधाओ को त्यागना होगा। अपने अंदर शास्त्रों में उल्लेखित सभी गुणों का विकास करना होगा। अपने आपको विभिन्न विद्याओं, कलाओ में निपुण बनाना होगा। यह षड्यंत्र जैसे-जैसे हमारे जीवन में घुसा है इसने हमको वैसे-वैसे बुद्धिहीन व दुर्बल बनाया है, उसी प्रकार से शनैः शनैः इस षड्यंत्र को विफल कर अपने आपको पुनः सबल व स्वतंत्र बनाना होगा।
        दासता की भावना रहते कोई भी अपने अंदर श्रेष्ठ गुणों का विकास नही कर सकता है। दासता व्यक्ति को ऊंचाइयों की ओर बढ़ने से रोकती है । स्वतंत्रता की अभिलाषा व्यक्ति को ऊँचाइयों की ओर बढ़ने को प्रेरित करती है। अपने महान इतिहास व अपने महान पूर्वजों व महान संस्कृति व समाज के महान त्याग व बलिदान का स्मरण ही हमें दासता से मुक्ति की प्रेरणा दे सकता है, हमारे पूर्वजो की यश गाथाएँ हमे स्वतंत्रता की ओर आगे बढ़ने की प्रेरणा देगी। इसका आश्रय हमें लेना चाहिए कि हम अपने अंदर एक सच्चे क्षत्रिय के गुणों का उपार्जन करें  व इस कार्य में जितनी शीघ्रता से जुटें उतना ही हमारा हित है।
         ये सारा कार्य समस्त समाज को परिवर्तित करने, इसे रूपांतरित करने, इसे नया स्वरूप् देने का है। इसे अकेला पुरुष वर्ग कभी भी सम्पन्न नहीं कर सकता। क्षत्राणियाँ जो धार्मिक व मानसिक दासता से सर्वाधिक ग्रसित है जब तक अपने अंदर समाज के प्रति पीड़ा को जागृत नहीं करेंगी मानसिक दासता से कभी भी मुक्त नहीं हो सकेंगी।
         क्षत्राणियों की इस दासता से मुक्ति के बिना पूरा समाज पंगु है व तब तक पंगु ही रहेगा जब तक नव निर्माण के कार्य में क्षत्राणियाँ आगे कदम नही बढ़ाएंगी। उन्हें यह ठीक प्रकार समझ लेना चाहिए कि वे व्यक्तिगत समृद्धि में यदि अपना हित अब भी देखती रही तो वह दिन दूर नही जब उनकी संतानों को दासानुदास बन कर जीवन यापन करना पड़ेगा।
         इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि क्षत्रिय समाज का उत्थान, क्षत्रिय समाज का पुनर्निर्माण तब तक सम्भव नही है जब तक कि इस समाज का नारी वर्ग अपने आपको सुधार व नव निर्माण के लिए तैयार नहीं कर लें। इस पुस्तक के माध्यम से हम समाज की इस आवाज को प्रत्येक क्षत्राणी तक पहुँचाना चाहते है। जिसको सुनकर यदि उन्होंने अपने आपको व समाज को बदलने में रुचि ली तो निश्चित रूप से भावी पीढियां उनकी कृतज्ञ रहेंगी ।.....Next

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