शनिवार

सामाजिक दुराचार से सुरक्षा

      व्यक्तिगत सदाचार का अर्थ पहले हर व्यक्ति जानता था कि ब्रह्मचर्य का पालन, एक नारी ब्रह्मचारी व विवाह का प्रयोजन दो प्राणों के बीच जन्म जन्मांतर तक की एकता स्थापित करना होता है। जब से कॉन्वेंट स्कूलों व कॉलेजों के माध्यम से विकृत ईसाई संस्कृति का प्रचार-प्रसार हुआ, जिसे आज पाश्चात्य सभ्यता कहा जाता है, ये सारे सदाचार विस्मृत हो गए।
      भाई-बहिन की निंदा न करना, सूर्य भगवान की तरफ मुँह करके मलमूत्र का त्याग नहीं करना, जल व जलाशय, नदियों में मूत्र त्याग नही करना, कमर के नीचे के भाग में स्वर्ण आभूषण नहीं पहनना, बायें हाथ की अंगुली में स्वर्ण की अंगूठी या रत्न धारण नही करना, वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध व तपवृद्ध लोगो के सामने अधिक नहीं बोलना, उनका अनादर हो, ऐसा कोई कर्म नहीं करना ये सब ऐसे व्यक्तिगत सदाचार थे, जिनकों उपर्युक्त सदाचारों के विलुप्त होने से पूर्व ही लोग भूल गए। परिणामस्वरूप व्यक्ति दिन प्रतिदिन अधिक आचरणभ्रष्ट, वाचाल, दंभी व स्वार्थी होता चला गया।
        इस व्यक्तिगत सदाचार के भंग होने का परिणाम यह हुआ कि सामाजिक सदाचार विमुक्त होने लगा व उसका स्थान सामाजिक दुराचारों ने ग्रहण कर लिया। समाज को सदाचारी बनाए रखने के लिए व दुराचार से बचने के लिए यह आवश्यक है कि हम पहले व्यक्तिगत सदाचार की ओर ध्यान दें व उसके बाद सामाजिक दुराचार क्या होता है, इसको समझने की चेष्टा करे। लोग समझते है कि एक समाज में जन्में व्यक्तियों के समूह को ही समाज कहते है । इस भ्रान्ति ने ही सामाजिक दुराचार को जन्म दिया। केवल एक समाज में जन्मे लोगों का समूह ही समाज नही होता । समाज वह है जिनका धर्म, जिनकी संस्कृति व इतिहास एक हो तथा समाज के सब लोग धर्म, इतिहास, संस्कृति की रक्षा के लिए जागरूक हों व हमेशा प्रयत्नशील रहें।
       अपरा प्रकृति का स्वभाव प्रदूषण फैलाना है। इस अपरा प्रकृति में हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ, कमेंद्रियां, मन व बुद्धि शामिल है। ये सब मिलकर के समाज में विकृतियाँ, प्रदूषण फैलाने के लिए प्रयत्नशील रहती है। इनके प्रयत्नों को परा प्रकृति के सहयोग से हमेशा विफल करने के लिए जागृत व सक्रिय समाज ही प्रदूषण मुक्त, सभ्य समाज का स्थान प्राप्त कर सकता है।
        आर्थिक, बौद्धिक व आध्यात्मिक दृष्टि से विभिन्न स्थितियों के लोग हर समाज में मिलते है। समाज अथवा सामाजिकता का अर्थ है, सभी स्थितियों के लोग समान रूप से सहज भागीदारी निभा सके, समाज के रीती रिवाज, समाज के आयोजन व धार्मिक आयोजन भी इस प्रकार के हो, जिनको गरीब व अमीर; कम पढ़ा लिखा तथा शिक्षित; आध्यात्मिक क्षेत्र में विकसित व अविकसित सभी प्रकार के लोग जिन्हें समझ सके, बुद्धि व आत्मा से समझ सके व उनका आनंदपूर्वक आयोजन कर सके।
          धनवान लोग जब सामाजिक कार्यक्रमों में, रीती रिवाजों में व रहन-सहन में वैभव का प्रदर्शन कर लोगों को अपनी ओर आकर्षित करके अपने अहंकार का तुष्टिकरण करना चाहते है,तब इसके दो परिणाम आते है, पहला-कमजोर आर्थिक स्थिति वाले लोग प्रदर्शन में उनके समान बनने के लिए अधिक धन व्यय करके कर्जदार बन जाते है तथा अपने व अपनी संतानों के जीवन को सदा के लिए दुःखमय बना लेते है । दूसरी तरफ - जो लोग इस प्रतिस्पर्धा में नही पड़ते उनमे दरिद्रता तो नहीं आती लेकिन हीनता की भावना अवश्य घर कर लेती है जो समाज के विभाजन के बीज बोती है। इसलिए धनवानों द्वारा प्रदर्शित वैभव का प्रदर्शन निश्चित रूप से सामाजिक दुराचार ही कहा जाएगा । अतः लोगों का यह कर्त्तव्य होना चाहिए की ऐसे वैभव के प्रदर्शन को सम्मान देने के बजाय उनके आयोजनों का बहिष्कार करे। आज ऐसा नही हो रहा है, इसीलिए समाज विघटित व विखंडित हो चला है।
        जब हमारे पास राज्य थे व विकृत संस्कृति की की छाया हमारी सामाजिकता पर नही गिरी थी, तब तक हमारे प्रत्येक रीती रिवाज व धार्मिक कृत्य इतने साधारण व कम खर्चीले थे कि गरीब व अमीर सभी लोग एक समान स्तर पर आयोजन करते थे, इससे विघटनकारी तत्वों को जन्म लेने का अवसर नहीं मिलता था। देवी देवताओं के भोग के लिए पुए-पूड़ी बनाना, पच वीरों के भोग के लिए बाटी बाकले बनाना, भाई-जँवाई जैसे प्रिय अतिथियों के लिए भोजन में मूँग-चावल तैयार करना, विवाह सम्बन्ध बिना कुछ लेन-देन की बात किए रिश्तेदारों द्वारा तय करना, सीमित संख्या में बारातियों के साथ बारात ले जाना, बिना पूर्ण जाँच किए विवाह सम्बन्ध न करना, ऐसी बातें थी जो समाज को आर्थिक बोझ से बचाती थी। जबसे आधुनिक पाश्चात्य शिक्षा व उसकी असभ्य जीवन शैली का प्रचार-प्रसार व विस्तार हुआ है, हमारी उपर्युक्त सादगी समाप्त हो गई है। अनावश्यक वस्तुओं पर इतना खर्च होने लगा है कि अनावश्यक वस्तुओं पर ध्यान देने के लिए व धन की व्यवस्था करने के लिए हमारी आर्थिक स्थिति जवाब दे देती है।
         शिक्षा के क्षेत्र में हमारा समाज पहले ही पिछड़ गया है व अब स्थिति इतनी भयानक है कि हमको शिक्षा के क्षेत्र में भयानक रूप से पिछड़ना पड़ेगा। लोकतंत्र के नाम पर संचार पर प्रभुत्व जमाने वाला पूँजीवाद, प्रचार-प्रसार के माध्यमो पर कब्ज़ा करके लोगों को मुर्ख बनाने में अब तक पूर्णसफल रहा है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता व आत्म निर्भरता जैसे लुभावने नारों का आश्रय लेकर उसने पहले समाजों को विखण्डित किया  फिर परिवारों को विखंडित किया  अब मात्र दो व्यक्तियों के परिवार रह गए है जो भी उसे फूटी आँख नही सुहाते । विज्ञान के चमत्कार व सुविधाओं की चकचौन्ध में व्यक्ति इस कदर पागल है कि वह दिन-रात दौड़कर कमा तो रहा है किन्तु अपने उपार्जन का अधिकांश भाग स्तर (स्टेट्स) के प्रदर्शन पर अपव्यय कर इतना दरिद्र बनता जा रहा है कि बच्चे बच्चियों की शिक्षा के लिए धन शेष ही नहीं रह पाता। अगले पांच वर्षो में स्थिति यह होने वाली है कि स्नातक शिक्षा का कोई महत्त्व नहीं रहेगा व स्नातक होने के बाद यदि आपको अपने बच्चों को कोई ऐसी शिक्षा दिलानी है, जिससे वह कमाने लायक बन सके तो उसके लिए कम से कम 10-15 लाख रुपयों की आवश्यकता होगी। क्या अपव्यय रूपी राक्षक को सामाजिक दुराचार को यथावत रखते हुए हम अपने बच्चों को रोजगार मिल सके, ऐसी शिक्षा दिला पाएंगे। अगर नहीं, तो समझ लेना चाहिए कि खर्चीले रीती रिवाजो का हमारा आज का सामाजिक दुराचार कल हमारी संतानों के विनाश का कारण बनेगा।
      दूसरी समाजों के संपन्न लोग महँगे रीती रिवाजों व ऐसे रीती रिवाज जिनका धर्म व समाज से कोई सम्बन्ध नही है, इसलिए प्रचलित कर रहे है ताकि वे हमारी अर्थ व्यवस्था को तोड़ सके व स्वयं संपन्न बन सकें । हमारे अपव्यय से जो लोग कमा रहे है वे ही हमारे शत्रु है व उन्हीं के द्वारा इन खर्चीले रीती रिवाजों  व आयोजनों का प्रचार-प्रसार व अविष्कार किया जा रहा है।
        खर्चा कम करने के लिए नये नये नारों में फँसकर हमे हमारे रीती-रिवाज व परम्पराओं का परित्याग करने के बजाय, उन्ही रीती-रिवाज व परम्पराओं को जीवित रखते हुए उनमे सादगी व पवित्रता का समावेश करना चाहिए।
       अपनी परम्परागत वेशभूषा का परित्याग भी सामाजिक दुराचार की श्रेणी में आता है। कम से कम पारिवारिक व  सामाजिक-समारोह में तो पारिवारिक वेशभूषा को धारण करना आवश्यक होना चाहिए। आज तो लोगों को किस अवसर पर कैसे वस्त्र पहिने जाते है, इसका भी बोध नही है। केसरिया व चुन्दडी के साफे बाँधकर गमो के कार्यक्रमों में लोग काफी संख्या में जाते हुए दिखाई देते है को सामाजिक दुराचार है। महिलाओं ने यद्यपि सामाजिक वेशभूषा धारण करके परम्पराओं को जीवित रखा है। लेकिन सधवा(सुहागन) व विधवा के परिधानों के अंतर का पहनाव उनमें भी विलुप्त होता जा रहा है। जिन चीजों को लोग भूल गए है जानकार लोगिन के माध्यम से उन्हें सीखना व ग्रहण करना चाहिए।
       हमारे विवाह जैसे संस्कारिक कर्मों व उत्तराधिकार जैसी सामाजिक परम्पराओं में सपिण्डता व समानोदकता का हमेशा ध्यान रखा गया था । लेकिन आज अज्ञान, स्वार्थ अथवा कुशोभत के कारण हम इन परम्पराओं का परित्याग करने लगे है जो सामाजिक दुराचार है । मातृ पक्ष की चार पीढ़ी अर्थात नांदेरा, दादेरा, पड़दादेरा व सड़दादेरा इन चरों की सात पीढ़ी तक सपिण्डता (भाईचारा) रहता है। अतः इनसे वैवाहिक सम्बन्ध नही हो सकते व पिता के कुल में 100 पीढ़ी तक समादोनक भाव (भाईचारा) रहता है। अतः अपने कुल की सौ पीढ़ी में विवाह नही हो सकते । अगर कोई भाईचारे वाले परिवारों में विवाह करता है तो सामाजिक दुराचार है।
         सपिण्डता वाला भाईचारा अस्थाई है। अतः ऐसे भाईचारे को उत्तराधिकार का अधिकार नही है। समानोदक भाव स्थिर भाव है जो 100 पीढ़ियों तक कायम रहता है। अतः उत्तराधिकार का अधिकार केवल अपने कुटुंब के लोगों को ही प्राप्त होता है। हमारे शास्त्रों में लड़की का भी पिता की संपत्ति में अधिकार माना गया है, इसलिए दहेज़ का विरोध करना असामाजिक कृत्य है। पिता अपनी स्वेच्छा से यथाशक्ति अपनी संपत्ति का एक भाग पुत्री को दहेज़ में देता है जो शास्त्र सम्मत है। लेकिन टिके व दहेज़ माँगना अथवा अन्य किसी रीती-रिवाजों के नाम पर विवाहोपरांत भी लड़की के घर से कुछ माँगने की चेष्टा करना ; शास्त्रों में राक्षसी कर्म बताया गया है। माँग की पूर्ति करने पर विवाह करने को असुर विवाह कहा गया है। अतः लड़की की दहेज देना सुकर्म व सामाजिक सदाचार है लेकिन लड़की के घर से माँग कर कुछ भी प्राप्त करना कुकर्म  व असामाजिक कृत्य है । ऐसे कार्यों का बहिष्कार होना चाहिए।
       बच्चों में दो प्रवृत्तियाँ प्रमुख होती है - एक कहानियाँ सुनने की व दूसरी खेलने की। हमारे परम्परागत खेल जो बच्चों में सहनशीलता, स्नेह व दृढ़ता का प्रादुर्भाव करते थे, आज समाप्त हो चुके है। नानी, दादियों द्वारा सुनाई जाने वाली छोटी-छोटी कहानियाँ बच्चों में कर्म की महिमा, वीरता व त्याग का संचार करती थी, वे भी आज समाप्त हो चुकी है। माता-पिता का कर्त्तव्य है कि बच्चों में संस्कार इन्ही दोनों कार्यों द्वारा ही डाले जा सकते है अतः इन दोनों कार्यों को पुनः जीवित करने का भरसक प्रयास करे ताकि हमारा समाज पुनः एक सभ्य व सुसंस्कारित समाज के अपने आदर्श को प्राप्त करने में सफल हो।

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