शुक्रवार

सदाचार

सामाजिक सदाचार
      सामाजिक सदाचार ही कालांतर में संस्कृति का रूप ग्रहण करता है । धर्म, संस्कृति व इतिहास क्रमशः समाज के प्राण, सूक्ष्म शरीर व स्थूल शरीर कहे जाते है, क्योंकि इनसे प्रेरणा लेकर ही समाज आगे बढ़ता है। समाज द्वारा जो सुंदर, शुद्ध व प्रशंसनीय कार्य दीर्घ काल तक किए जाते है, वे संस्कृति का रूप ग्रहण करते है, अतः माताओं का यह कर्त्तव्य है कि वे अल्पायु में ही बालकों को संस्कृति का ज्ञान करावें व तदनुसार आचरण करने के लिए उन्हें प्रेरित करे। महात्मा गौतम बुद्ध ने क्षत्रियों के लिए सामाजिक सदाचार के सात नियम बताते हुए कहा था कि इन नियमों का पालन करते हुए कोई भी समाज पराजित नहीं हो सकता है।
      (1) बार-बार एकत्रित होना- गाँव में रहने वाले प्रत्येक क्षत्रिय को व इसी प्रकार नगरों में रहने वालों को अपने मोहल्ले में, प्रतिदिन अथवा सुविधानुसार जैसा नियम बनाया जाए तदनुसार बार-बार एकत्रित होना चाहिए। उससे जहाँ एक ओर स्नेह का विस्तार होगा वहीँ दूसरी ओर मित्र व शत्रु पक्ष की सूचनाएँ प्राप्त होती रहेंगी।
        (2) समग्र रूप से एकत्रित होना - समग्र रूप से एकत्रित वही लोग हो सकते है जिन्होंने अपने जीवन को समग्र रूप सुव्यवस्थित व संघठित किया है। अर्थात उनके जीवन का प्रत्येक कार्य सुव्यवस्थित व समयानुसार होता है, ऐसे जीवन के लिए विचार, भाव व आत्मीय एकता की आवश्यकता होती है। इस प्रकार से अपने जीवन को अनुशासित करने वाले लोग ही समग्र रूप से एकत्रित हो सकते है ; अर्थात वर्ष में एक ऐसा समारोह हो जिसमे समस्त लोग हर परिस्थिति में उपस्थित हो। जब तक लोग एकत्रित नही होने के लिए बहाने व कारण बताते रहेंगे तब तक समग्र एकता का निर्माण सम्भव नही है।
        (3) विधान का पालन - समाज या संघठन के संचालन के लिए नियम बनाकर उनका पालन करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य होना चाहिए। जो लोग अपने ही द्वारा बनाए गए नियमों का स्वार्थ या आलस्यवश या तो नकारते है अथवा उन्हें तोड़ते है वे समाज के साथ शत्रुता का आचरण करते है।
        (4) वयो-वृद्ध निति निपुण लोगों से मार्गदर्शन - बहुत सारे विषय ऐसे है जिनका ज्ञान केवल अनुभव से ही सम्भव है। युवा वर्ग अति उत्साह के वशीभूत ऐसे कार्य कर सकता है जो धर्मयुक्त प्रतीक होते हो, किन्तु कालांतर में जिनका परिणाम विपरीत हो सकता है। अतः प्रत्येक महत्त्वपूर्ण कार्य आरम्भ करने से पूर्व मानपूर्वक समाज के वयोवृद्ध , नीतिज्ञ लोगो से सलाह लेनी चाहिए व उसे स्वीकारना चाहिए।
       (5) स्त्रियों पर अत्याचार नहीं हों - समाज के प्रत्येक वर्ग को ध्यान रखना चाहिए कि कहीं पर भी विवाहित या अविवाहित स्त्रियों पर अत्याचार न हो व उन्हें समुचित सम्मान प्रदान किया जाए, क्योंकि जिस देश अथवा समाज में स्त्रियों पर बलात्कार(प्रताड़ना) होता है वह नष्ट हो जाता है। सभी सदाचारी बने व व्याभिचार को रोकें ।
       (6) कुलदेवी, कुलदेवता, ईष्ट व रक्षक देवताओं की आराधना - गाँव या नगर के अंदर स्थापित कुल देवी, कुलदेवता के मंदिरों अथवा गाँव, नगर की सीमा पर स्थित रक्षक देवताओं के स्थानों का पूर्ण रूप से संरक्षण इसलिए आवश्यक है कि इनकी आराधना व सहयोग के बिना अध्यात्म मार्ग पर आने वाली बाधाओं से निपटना असम्भव नहीं तो अत्यन्त कठिन अवश्य है।
        (7) संतों का संरक्षण व सेवा - गाँव में अथवा निकटस्थ वन क्षेत्र में आये हुए तपस्वी संतों को असुविधा न हो व उन्हें कोई कष्ट न पहुँचाए, इसकी पूर्ण सावधानी रखनी चाहिए।
व्यक्तिगत सदाचार
       (1) झूठ नही बोलना
- तैतरियोपनिषत् से लेकर समस्त शास्त्रों में सत्य बोलने का निर्देश दिया गया है। गौतम बुद्ध राहुल को कहते है कि झूठ बोलने से व्यक्ति स्वल्प, रिक्त व उल्टा हो जाता है। यहाँ तक ही नहीं बल्कि वह यह भी कहते है कि जिसे झूठ बोलने में लज्जा नही आती, उसके लिए समझना चाहिए कि उसने अपने विनाश के सब साधन जुटा लिए है, ऐसे व्यक्ति के समीप भी नहीं रहना चाहिए।
       जब समाज अत्यधिक पतनावस्था में पहुँच जाता है तब अच्छाई की महिमा उसे प्रभावित नहीं कर पाती है। ऐसी अवस्था में बुराई के दुष्परिणामों को प्रत्यक्ष बताकर ही व्यक्ति को कुमार्ग से हटाया जा सकता है। इसलिए बुद्ध कहते है -"हे राहुल ! तुम ऐसा अभ्यास करो कि तुम हँसी-ठट्ठे में भी झूठ नहीं बोलो।" बुद्ध के काल में भी समाज आज की ही भाँति पतनावस्था में पहुँच गया था।
       (2) आत्म निरीक्षण - शरीर, वचन व मन से होने वाले कर्मों के विषय में बार-बार चिंतन करते रहना आत्म निरीक्षण है। जिस कर्म को मन, वाणी या शरीर से किया जाता है उसके परिणामस्वरुप स्वयं को अथवा अन्य किसी को कष्ट हो तो ऐसे कार्य को त्याज्य समझना चाहिए। चिंतन के बाद भी, शरीर या वचन से यदि ऐसा कोई कार्य हो गया है जो आत्महित में बाधक है व परिणामतः दुखकारक है तो ऐसे कर्म को छोड़ देना चाहिए। इसी प्रकार आत्महित में सहायक व अंत में सुखकारक कर्म को बार-बार करते रहना चाहिए।
        यदि तुम्हारे द्वारा किए गए शारीरिक, मानसिक या वाचिक कर्म के द्वारा किसी अन्य व्यक्ति को कष्ट हुआ है तो उस त्रुटि को स्वीकार करो व जिसे कष्ट हुआ है, उससे क्षमा याचना करो व ऐसा कर्म फिर से न हो इसकी पूर्ण सावधानी रखो। यदि दूसरे का अहित चिंतन का केवल मानसिक कर्म हुआ है तो उसके लिए पश्चाताप करो, लज्जा करो और फिर से उस विचार को मन में न  आने दो।
       (3) दुःख के कारण को जानो - इस तथ्य को स्वीकार करो कि तृष्णा ही दुःख का कारण है। जब तक तृष्णा रहेगी तब तक दुःख रहेगा। तृष्णा का विनाश करने से ही दुःख का विनाश सम्भव है और तृष्णा का विनाश सहज व निष्काम भाव से जीवन व्यतीत करने से ही सम्भव है।
        (4) दुष्ट शक्तियों के प्रवेश मार्ग को रोकना - भोगों को भोगने की अभिलाषा, जो कुछ प्राप्त है उससे असंतुष्ट रहना, भूख व प्यास की चिंता, कामनाओ का विस्तार, काल्पनिक भय से भयग्रस्त रहना, अहित होने की वृथा कल्पना करते रहना, अपने आपको पूजित करवाने की कल्पना व प्रयास, जो नहीं प्राप्त हुआ है उसे प्राप्त करने की अभिलाषा, दूसरे लोग मेरा सम्मान करे यह अभिलाषा, लोगो द्वारा पूजित होने की कामना, पाखण्ड व प्रपंचों द्वारा यश प्राप्ति की चेष्टा ऐसे छिद्र है जिनके द्वारा दुष्ट शक्तियाँ हमारे अंदर प्रवेश कर हमें कुमार्ग गामी बनाती है व सत्य के पथ से विचलित करती हैं । इन बुराइयों से ग्रस्त व्यक्ति आत्म-स्तुति व परनिंदा का आश्रय लेकर पतन के गर्त में गिरता है ।
        (5) संरक्षकों का सहयोग- सत्य मार्ग, अर्थात स्वधर्म के पालन के मार्ग पर अग्रसर होने वाले व्यक्ति को संरक्षक शक्ति के सहयोग की नितांत अपेक्षा रहती है । यह धरती माता अथवा "गाय" अथवा अपनी "कुलदेवी" दुष्ट शक्तियों से संघर्ष में सतत् सहयोग प्रदान करती है, अतः इनका आश्रय अवश्य लेना चाहिए। इसी प्रकार "सूर्य" (मूर्तिनारायण) "चंद्रमा" (मूर्ति सदाशिव) "गणेश" व "शनि" चार रक्षक शक्तियाँ है, जो क्रमशः विस्फोट, पतन, दानवो व जयंत से रक्षा करती है। बालकों में इनके प्रति आस्था उत्पन्न करना माताओं का कर्त्तव्य है।
        (6) तीर्थ - तीर्थों के प्रति अन्धविश्वास से बालकों को निकालकर उन्हें वास्तविक तीर्थों का ज्ञान कराना चाहिए -
       विद्या तीर्थे जगति विवुधा, साधवः सत्य तीर्थे ।
       गंगा तीर्थे मलिन मनसो, योगिनो ध्यान तीर्थे ॥
       धारा तीर्थे धरणिपतयो, दानतीर्थे धनाढ्या ।
       लज्जा तीर्थे कुलयुवतय:, पातकं क्षालयन्ति ॥ (-ऋतुस्तवमंजूषा से )
      विद्या तीर्थ में संसार में विद्वान् लोग (पाप धोते है), साधू लोग सत्य तीर्थ में (पाप धोते है ), गंगा तीर्थ में मलिन मन वाले (पाप धोते है ), ध्यान तीर्थ में योगी जन (पाप धोते है ), धारा तीर्थ में (रण क्षेत्र में रक्त की धारा में) धरणीपति (क्षत्रिय, पाप धोते है ), दान तीर्थ में धनवान लोग (पाप धोते है ), लज्जा तीर्थ में कुलीन युवतियाँ पाप धोती हैं ।.....Next

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