मंगलवार

क्षत्रिय-माता

(1) माता - संस्कृत भाषा का लोगों को ज्ञान नही रहने के कारण शब्दों के वास्तविक अर्थ ही लोग नही समझ पा रहे है। माता का अर्थ आजकल जननी हो गया है। जबकि जननी केवल जन्म देने वाली होती है वह माता नहीं होती- "वह जननी जो संतान का कृपापूर्वक पालन करती है। माता कहलाती है।"
        इसका अर्थ हुआ वह जननी जो किसी भी प्रकार के हेतु को रख करके अर्थात भावना को रखकर, संतानो से किसी प्रकार की अभिलाषा रखकर उनका पालन करती है वह माता नही है । माता वह है जो बिना किसी हेतु के, अपनी संतानों से किसी प्रकार की अभिलाषा नही रखते हुए केवल कृपापूर्वक अर्थात अपने स्वभाव-जन्य प्रेम व कृपा से वशीभूत होकर ही संतान का पालन करती है वह माता कहलाती है ।
      आज माता-पिता बहुधा अपनी संतानों पर यह दोष लगाते देखे जाते है कि ये अत्यधिक स्वार्थी हो गए है। लेकिन प्रश्न यह है कि आखिर संतानों को स्वार्थी बनाया किसने ? रानी मदालसा ने अपनी इच्छानुसार संतानों का निर्माण कर इस सिद्धांत को स्थापित किया था कि - "माता ही निर्मात्री है।" तब फिर आज इन स्वार्थी संतानों का निर्माण कौन कर रहा है ? इस विषय में हमको वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करना चाहिए। हमारे घरों में बालक-बालिकाएँ साथ-साथ पाली जाती है, लेकिन माताएँ पुत्रों से यह अभिलाषा लेकर कि वे वृद्धावस्था में उनकी सेवा करेंगे, पुत्रों को पुत्रियों से अधिक सुविधा प्रदान करती हैं । खान-पान से लेकर शिक्षा-दीक्षा आदि सभी क्षेत्रों में पुत्रों को अधिक सुविधाएँ दी जा रही है, जिसका परिणाम होता है कि पुत्र संतानों में बचपन से ही विशेषाधिकार और विशेष सुविधा प्राप्त करने की इच्छा पैदा होती है, अतः धीरे-धीरे वे इसे अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझने लगते है। विशेषाधिकार व विशेष सुविधा से ही स्वार्थ की उत्पत्ति होती है। बालक यह सुविधा और अधिकार मांगता नही है। पहले स्वार्थी माता-पिता स्वयं चलाकर उन्हें विशेष सुविधा देते है और जब बड़े होकर वे अपने लिए विशेष सुविधा व दूसरों के लिए कम सुविधा उत्पन्न करते है तब वही माता-पिता उन्हें स्वार्थी कहने लगते है। यथार्थ में अपनी संतानों के साथ इस प्रकार का भेदभावपूर्ण व्यवहार करने वाले माता-पिता, माता-पिता नहीं है। उनके लिए इन पवित्र शब्दों का सम्बोधन उचित नही है।
      माता तो वह है जो अपनी संतानों को त्याग व उत्सर्ग की भावना "पालने" में लोरियों के माध्यम से सिखाती है। "पूत सिखावे पालणे मरण बड़ाई माय।" क्षत्रिय माताएँ वह होती है जो बालकों को पालने में ही मरने की महिमा सिखाती थी। रानी मदालसा ने अपने छह पुत्रों को पलने में सन्यास की शिक्षा देकर संन्यासी बना दिया, व सातवे पुत्र को राजगद्दी पर बिठाकर सिद्ध कर दिया था कि माता जिस प्रकार की अभिलाषा रखे, बचपन से ही शिक्षित कर बालक को उसी प्रकार का बनाया जा सकता है।
     आज समाज में भरत जैसे भाई, भीष्म पितामह जैसे ज्ञानी व ब्रह्मचारी, कर्ण व अर्जुन जैसे धनुर्धारी, पंजवनराय जैसे शूरवीर, महाराणा प्रताप जैसे स्वतंत्रता के अभिलाषी, हमीर जैसे हठी व दुर्गादास जैसे स्वधर्म रक्षक यदि पैदा नही हो रहे है तो उसकी एकमात्र जिम्मेदार क्षत्रिय माताएँ ही है। वे एक ओर अशिक्षा के अंधकार में डूब गई है व दूसरी ओर उन्होंने आधुनिकता की चकाचोंध में अपनी परम्पराओं को धूल-घुसरित कर उनका सर्वनाश कर दिया है। इसलिए कहा गया है कि क्षत्रिय समाज के दीर्घ जीवन व उसके महान इतिहास की रचनाकार वास्तव में क्षत्राणियाँ थी न कि क्षत्रिय। आज रचनाकार ही स्वयं जब विनाश के गर्त में है तो वापस समाज के मानचित्र पर उन चित्रों का उभर पाना असंभव सा प्रतीत होने लगा है, जिनको देखकर संसार के लोगों ने श्रद्धा से अपने मस्तक झुका लिए थे
(2) शिक्षा - उपनिषत् का मत है कि "जो अशिक्षा में डूब गया वह घोर अंधकार में डूब गया" व जो "शिक्षा में डूब गया वह उससे भी घोर अंधकार में डूब गया।" हमारा समाज पिछले चार सौ सालो से अशिक्षा के घोर अंधकार में डूबा हुआ था और अब शिक्षा के, उससे भी अधिक घोर अंधकार में डूबता चला जा रहा है। महिलाएँ अब भी अशिक्षा के अंधकार में डूबी है और वे अब शिक्षा के उससे भी घोर अंधकार में डूबने की तैयारियां कर रही हैं ।
      क्षत्रियों का इस अंधकार में डूबने से विनाश हुआ है। लेकिन यदि क्षत्राणियाँ इस घोर अंधकार में डूब गई तो महाविनाश हो सकता है। जिसका कोई उपचार ही नही होगा। इसलिए हम विशेष तौर से शिक्षित व अध्ययनशील क्षत्राणियों का ध्यान इस महान संकट की ओर आकृष्ट करना चाहेंगे।
      आज कल स्कूल कॉलेजो में निरुद्देश्य शिक्षण पद्धति प्रचलित है। इन संस्थानों में केवल अक्षर ज्ञान अथवा यों कहे कि भाषा का ज्ञान कराया जाता है। आज शिक्षा का उद्देश्य किसी विशेष प्रकार के व्यक्तितत्व का निर्माण करना नही है।
        यदि आज की शिक्षा का कोई उद्देश्य है तो केवल यही कि वह हमारे स्वधर्म व हमारी संस्कृति को निकम्मा व बेकार साबित करने की चेष्टा करती है । आधुनिक शिक्षा यह नही चाहती कि लोग योग्य, निपुण व सदाचारी बनें क्योंकि यदि इस प्रकार के लोगों का निर्माण हुआ तो शिक्षा के संचालकों अर्थात बुद्धिजीवी व् पूंजीपतियो के षड्यंत्र का पर्दाफाश करने की सामर्थ्य लोगो में पैदा हो जाएगी व आज के महाप्रभु, धराशाही होने को बाध्य होंगे। ऐसी स्थिति में बालक-बालिकाओं को स्वधर्म , उच्च-आचरण, चरित्र व त्याग की शिक्षा कौन देगा ? यह सारा दायित्व केवल माताओं का है। लेकिन जब माताएँ स्वयम् ही अशिक्षि हों व उनकी बालिकाएं वर्तमान शिक्षा के क्षेत्र में असहाय छोड़ दी गई हो तब वे कहाँ पहुँचेगी, इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है।
        आज से पचास वर्ष पूर्व का अनपढ़ क्षत्रिय अपने स्वधर्म, इतिहास व कर्त्तव्य के बारे में जितना जानता था आज का पढ़ा-लिखा क्षत्रिय उसका दशांश भी नही जानता । इसीलिए वह गुमराह है, अपने स्वधर्म व संस्कृति से दूर हटता जा रहा है । यह स्थिति अब नवयुवतियों व् बालिकाओं की होने वाली है, यदि उन्होंने भी अपने स्वधर्म, परम्परा, कर्त्तव्यों का ज्ञान खो दिया तो फिर इस महान संस्कृति का प्रायः लोप हो ही जाएगा । इसलिए माता-पिता का यह महान् दायित्व है कि वे बालिकाओं को न केवल शिक्षित करें बल्कि शिक्षा के साथ-साथ उनको इतिहास, परम्पराओं, स्वधर्म व् संस्कृति का सम्यक् ज्ञान हो। इसकी व्यवस्था भी करे ताकि वे आने वाली पीढ़ी को बचपन से ही शिक्षित व् दीक्षित कर सके । यदि ऐसा नही किया गया तो पुरे समाज का भविष्य अंधकारमय हो सकता है।
       उपर्युक्त कथन का यह तात्पर्य नही है कि बालिकाओं में शिक्षा का प्रसार नही किया जाना चाहिए। शिक्षा आज के युग की ही नही प्रत्येक समय की एक अनिवार्य आवश्यकता है। अशिक्षा अंधकार है, उससे प्रत्येक व्यक्ति को मुक्त होना ही चाहिए। लेकिन अकेली शिक्षा में व्यक्ति को अंधकार से निकालकर प्रकाश की ओर ले जाने की क्षमता नही है। आजकल स्कूलों व कॉलेजो में जो शिक्षा दी जा रही है वह प्रकाश की ओर ले जाने का माध्यम कभी नही बन सकती है। अतः शिक्षा ग्रहण कर रही बालिकाएँ जो कल माता बनेंगी स्वयम् इस उत्तरदायित्व को ग्रहण करें कि वे प्रकाश की ओर ले जाने वाली हमारी परम्परागत शिक्षा की खोज करे, विकृत धर्मशास्त्रों व ऐतिहासिक पुस्तकों से शुद्ध तत्त्व को खोजे, शोध करे व अपने को इस योग्य बनाए कि वे सुमाता बन सकें। अपनी संतानों को प्रकाशोन्मुखी शिक्षा प्रदान कर सकें ।
(3) मार्गदर्शन - माता का उत्तरदायित्व अपनी संतानो को मात्र शिक्षित करना ही नही, जीवन पर्यन्त उनका मार्गदर्शन करना, उनको कर्त्तव्य-पथ पर अग्रसर होने की प्रेरणा देना व यदि कर्त्तव्य-मार्ग से विचलित हो तो उन्हें उपयुक्त सलाह  देकर सही रास्ते पर लाना भी माता का कर्त्तव्य बन जाता है।
      युधिष्ठिर ने जुए में जब राज्य खो दिया तो उन्हें वनवास का सेवन करते हुए नींद नही आती थी। उनको हमेशा यही चिंता सताती थी कि पुनः राज्याधिकार प्राप्त करने में सबसे बड़ी बाधा कर्ण है। उन्हें विश्वास था कि युद्ध होने पर भीष्म पितामह तो कोई भी उपाय निकाल लेंगे व् पांडवो का वध नही करेंगे, लेकिन कर्ण से लड़ने की सामर्थ्य रखने वाला उन्हें उन्हें अपने पक्ष में कोई भी दृष्टिगोचर नही होता था। इसी बीच - एक रोज नारायण पुत्र महात्मा "अपान्तरतमा" (जिनको आजकल वेदव्यास कहा जाता है ) युधिष्ठिर के पास आए और कहने लगे - "मैं तुम्हे मन्त्र दीक्षा देता हूँ, इस मन्त्र को तुम सिद्ध करके अर्जुन को प्रदान करना । अर्जुन हिमालय के क्षेत्र में जाकर इस मन्त्र को लेकर तपस्या करेगा तो उसे कर्ण से लड़ने लायक शक्ति प्राप्त हो जाएगी।" तदनुसार अर्जुन ने तपस्या की और उसने भगवान शंकर की कृपा प्राप्त कर इन्द्र से शस्त्र-विद्या का ज्ञान प्राप्त किया। युधिष्ठिर को तब विश्वास हुआ कि अर्जुन अब कर्ण पर विजय प्राप्त कर सकता है क्योंकि कृष्ण ने अर्जुन का सारथी बनना स्वीकार कर लिया था। उधर द्रोपदी हर अवसर पर अपने खुले केश दिखाकर पांडवो को अपने अपमान की याद दिलाकर युद्ध के लिए उकसा रही थी । माता व पत्नी के उत्तरदायित्व में बहुत बड़ा भेद है। कुंती धृतराष्ट्र के महलो में बैठी यह सब नाटक चुपचाप नही देख रही थी, इतना सब कुछ होने पर भी वह जानती थी कि पांडवो में कर्ण से लड़ने की सामर्थ्य नही है । कृष्ण के बल पर, अर्जुन, कर्ण के सम्मुख अपने प्राणों की रक्षा कर सकता है लेकिन अपने भाइयों की रक्षा तथा अपनी सैन्य शक्ति की रक्षा वह नही कर पाएगा। इसीलिए कुंती ने कर्ण से जाकर अपने पुत्रो के प्राणों की भीख माँगी और जब उसे विश्वास हो गया कि अर्जुन के अलावा उसके शेष चारों पुत्रों को कर्ण नही मारेगा तब ही कुंती ने पांडवो को युद्ध करने का निर्देश दिया ।
     सही समय पर, मार्गदर्शन मिल जाए तो कमजोर भी विजय पा सकता है। ऐसा नही था कि कर्ण ने मात्र कुंती को वचन ही दिया, उसने अपने वचन को रण-क्षेत्र में सत्यसिद्ध करके बताया, भीम, युधिष्ठिर, नकुल व सहदेव को उसने निहत्थे करके प्राण दान दिया।  अर्जुन भी युद्ध में विजयी तो हुआ लेकिन किसके पराक्रम से अपने या कृष्ण के पराक्रम से ? जिस समय कर्ण ने अर्जुन के वध के लिए निर्णायक तीर चलाया उस समय कृष्ण ने अपने योगबल से यदि अर्जुन के रथ को जमीन में नही धंसाया होता तो अर्जुन बच नही सकता था।
      इससे भी विचित्र घटना एक और है। महाभारत का युद्ध समाप्त होने के बाद कृष्ण अर्जुन से पूछते है - "क्या मैं अब इस रथ का त्याग कर दूँ ? अर्जुन के हाँ कहने पर कृष्ण ने पहले अर्जुन को निचे उतारा और उसके बाद जैसे ही श्री कृष्ण नीचे उतरे, रथ राख की ढेरी हो गया। अर्जुन आश्चर्यचकित था। तब कृष्ण ने कहा था -"यह रथ तो कर्ण के बाणों से कभी का भष्म हो चूका था, यह तो मैंने अपने योगबल से इसे खड़ा कर रखा था।" अब आप कल्पना कर सकते है कि कुंती ने अपने बेटों के प्राणों की भीख कर्ण से नही मांगी होती तो युद्ध का क्या परिणाम होता ? सही समय पर सही मार्गदर्शन माता का पुनीत कर्त्तव्य है।
      "प्राचीनकाल में संजय नाम का राजा हुआ है। वह सिन्धुराज से पराजित होकर अपना राज्य खो बैठा था। दीन भाव से वह राज्य विहीन होकर घर में रहने लगा, तब उसकी माता व प्रसिद्ध क्षत्राणी "विदुला" ने कहा - "अरे ! तू मेरे गर्भ से उत्पन्न होकर भी मुझे दुःख देने वाला, धर्म को न जानने वाला और शत्रुओ का आनंद बढ़ाने वाला है। अतः मैं समझती हूँ कि तू मेरी कोख से पैदा ही नही हुआ है। तेरे पिता ने भी तुझे उत्पन्न नही किया, फिर तुझ जैसा कायर कहाँ से आ गया। तू सर्वदा क्रोध शून्य, क्षत्रियो में गणना के अयोग्य, तू नाममात्र का पुरुष है, तेरे मन आदि सब साधन नपुंसको के समान है। क्या तू जीवन भर के लिए निराश हो गया है ? अरे ! उठ और अपने कल्याण के लिए युद्ध का भर वहन कर अपने आपको दीन-हीन मत समझ । इस आत्मा को थोड़े धन से भरण-पोषण मत कर। अपने मन को शिव संकल्पों के समान करके निडर हो जा, भय को सर्वथा त्याग दे।"
         "अरे कायर ! उठ खड़ा हो, इस प्रकार पराजित हो घर में शयन मत कर। ऐसा करके तो तू सब शत्रुओ को ही आनंद दे रहा है और मान प्रतिष्ठा से वंचित होकर बंधू बांधवों को शोक में डाल रहा है। तू शत्रु रूप सर्प के दाँत तोड़ता हुआ तत्काल मृत्यु को प्राप्त हो जा। प्राण जाने का संदेह हो तो भी शत्रु के साथ युद्ध में पराक्रम ही प्रकट कर। तू दीन होकर अस्त मत हो। तू अपने शौर्यपूर्ण कर्म से प्रसिद्धि प्राप्त कर । तू मध्यम, अधम अथवा निकृष्ट भाव का आश्रय न ले, अपितु सिंहनाद करते हुए युद्धभूमि में डट जा। पुत्र ! धर्म को आगे रखकर या तो पराक्रम प्रकट कर अथवा मृत्यु को प्राप्त हो जा अन्यथा किस लिए जी रहा है। कायर ! तेरे इष्ट और आपूर्ति कर्म नष्ट हो गए, सारी कीर्ति धूल में मिल गई तथा सुख भोग का मूल साधन राज्य भी छिन गया, फिर तू किसलिए जी रहा है ?"
        "पुत्र ! तू धैर्य और स्वाभिमान का अवलंबन कर। अपने पुरुषार्थ को जान और तेरे कारण डूबे हुए इस वंश का तू स्वयम् ही उद्धार कर। जिसके महान और अद्भुत पुरुषार्थ तथा चरित्र की सबलोग चर्चा नही करते वह मनुष्य अपने द्वारा जनसँख्या की वृद्धि मात्र करने वाला है। मेरी दृष्टि में न तो वह स्त्री है और न ही पुरुष है।"
         "दान, तपस्या, सत्य भाषण, विद्या व धनोपार्जन सहित जिसके सुयश का सर्वत्र बखान नही होता वह क्षत्रिय अपनी माता का पुत्र मल-मूत्र मात्र है। संसार में कोई भी नारी ऐसे पुत्र को जन्म न दे जो उत्साह हीन, बल व पराक्रम से रहित तथा शत्रुओ का आंनद बढ़ाने वाला हो । अरे धूँए की भांति मत उठ ! जोर से प्रज्वलित हो जा और वेगपूर्ण आक्रमण करके शत्रु सैनिको का संहार कर डाल। तू एक मुहूर्त या क्षण के लिए ही सही, बैरियों के मस्तक पर जलती हुई आग बनके छा जा। वही पुरुष क्षत्रिय है जिसके हृदय में क्रोध है, जो शत्रुओ के प्रति क्षमा भाव धारण नही करता । पराजय के कारण लोक में तेरी जो निंदा और तिरस्कार हो रहा है, उन सब दोषो से तू स्वयं ही अपने आप को मुक्त कर तथा अपने हृदय को लोहे के समान दृढ बनाकर पुनः अपने योग्य पद का अनुसन्धान कर ।"
         "जो शत्रु का सामना कर उसके दाँत खट्टे कर देता है, वही पुरुष क्षत्रिय कहलाता है। जो इस जगत में स्त्री की भाँति भिरुतापूर्ण जीवन बिताता है, उसका पुरुष नाम व्यर्थ कहा गया है। जो मनुष्य अपने बाहुबल का आश्रय लेकर उत्कृष्ट जीवन व्यतीत करता है, वह इस लोक परलोक में श्रेष्ठ गति प्राप्त करता है। तेरा नाम तो संजय है, परन्तु मैं तुझ में इस नाम के अनुसार गुण नही देख रही हूँ। वत्स ! तू युद्ध में विजय प्राप्त करके अपना नाम सार्थक कर । व्यर्थ संजय नाम धारण मत कर । पुत्र ! तू युद्ध में शत्रुओं को मारकर अपने धर्म का पालन कर । तू जलते हुए धार की भाँति शत्रुओं पर टूट पड़। इस कुल में कभी कोई ऐसा पुरुष नही हुआ जो दूसरे के पीछे-पीछे चलता हो। तू दूसरे का सेवक बनकर जीवित रहने के योग्य नही है ।"
         "इस जगत में जो कोई क्षत्रिय उत्पन्न हुआ है व क्षत्रिय धर्म को जानने वाला है, वह धन अथवा आजीविका की ओर दृष्टि रखकर भी किसी के सामने नतमस्तक नही हो सकता।"
           विदुला ने कहा, "संजय ! जिस समय तुझ जैसे वीर का अपयश सर्वत्र फ़ैल रहा है, ऐसे अवसर पर भी यदि मैं कुछ न कहूँ तो मेरा यह वात्सल्य शक्तिहीन और निरर्थक होगा। संजय! इस लोक में युद्ध एवं विजय के लिए ही विधाता ने क्षत्रिय की सृष्टि की है। अतः वत्स ! तू श्रेष्ट पुरुषों द्वारा निन्दित और मूर्खो के द्वारा सेवित मार्ग का त्याग कर दे ।"
         "पुत्र ! पहले की ख्याति नष्ट हो गई है, यह सोचकर तुम्हे अपना तिरस्कार नही करना चाहिए । क्योंकि धन नष्ट होकर पुनः प्राप्त हो जाता है तथा प्राप्त किया भी पुनः नष्ट हो जाता है, सफलता होगी ही, मन में ऐसा दृढ विश्वास करके तथा निरन्तर विषाद रहित होकर तुझे उठना, सजग होना तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति कराने वाले कामों में लग जाना चाहिए।"
         संजय ने कहा, "माँ ? अब मैं या तो शत्रु रूपी जल में डूबे अपने राज्य का उद्धार करूँगा अथवा युद्ध में शत्रुओ का सामना करते हुए अपने पाप विसर्जित कर दूंगा ।" तदोपरांत संजय ने युद्ध किया व विजय श्री का वरण किया।
(4) वात्सल्य युक्त स्नेह -स्नेह माता की विशेषता है। गो माता को माता इसलिए माता नही कहा जाता है कि वह दूध देती है। दूध तो अन्य पशु भी देते है जो मनुष्य के पिने योग्य होता है । गाय की विशेषता यह है कि उसकी वाणी में अद्भुत वात्सल्य युक्त स्नेह भरा होता है। संध्याकाल में जब गायें वापस घरों को लौटती है तब घरों के समीप पहुचते ही वात्सल्य भाव उनमे इस प्रकार हिलौरे लेने लगता है कि वे अपनी संतानों से मिलने के लिए जब रंभाती है तो उनकी वाणी को सुनने वालो के हृदय भी स्नेह से भर जाते है। इसी स्नेह की प्रतिमूर्ति होने के कारण गाय को गौ माता कहा जाता है।
         क्षत्रिय का धर्म अत्यंत कठोर होता है। उसे थोड़ी भी नरमी पथभृष्ट कर सकती है। इसलिए उसे स्वभावतः ही अपने स्वभाव को कठोर बनाना होता है। नियमों के संचालन की जिम्मेदारी होने के कारण उसे स्वयम् कठोर अनुशासन का पालन करना होता है और फिर युद्ध कर्म अपने आप में अति कठोर व क्रूर कर्म है। इसलिए स्वभावतः ही क्षत्रिय को कठोर होना चाहिए। लेकिन इतिहास इस बात का साक्षी है कि इतने कठोर कार्यों को करते हुए भी क्षत्रियों में जो उदारता व स्नेह देखने को मिलता है वह अन्य युद्ध कर्मी जातियों में नही देखा गया है, जिसका रहस्य क्षत्रिय माताओं के स्नेहपूर्ण व्यवहार में ही निहित है।
         क्षत्रिय के जीवन में अनुशासन एक अनिवार्यता है। महाभारत का युद्ध शुरू हुआ उससे पूर्व दुर्योधन भीष्म पितामह से कहते है - "हम पूर्वजो से सुनते आये है कि एक बार ब्राह्मणो के नेतृत्व में समस्त वर्णों ने संगठित होकर क्षत्रियों पर आक्रमण किया लेकिन उस युद्ध में क्षत्रियों की जीत हुई। पराजित लोगो ने तब क्षत्रियों से आकर पूछा, तुम्हारी जीत का रहस्य क्या है, तब क्षत्रियो का उत्तर था 'अनुशासन ।' अनुशासन ही हमारी जीत का कारण है।" फिर दुर्योधन कहता है "महाराज मेरी सेना में आपके नेतृत्व में ही अनुशासन रह सकता है अतः आप नेतृत्व का भार संभालें ।"
        कहने का तात्पर्य है कि अनुशासनहीन होने पर कभी भी विजय नही मिल सकती है। इसलिए क्षत्रिय अपने बालकों को आरम्भ से ही कठोर अनुशासन में रहना सिखाते है। लेकिन यह कठोर अनुशासन उनको अन्य लड़ाकू जातियो की भाँति बर्बर और क्रूर कभी नही बनाता। शत्रुओं को क्षमा करने, विधर्मियो के साथ उच्च व्यवहार व मात्र प्रतिशोध की दृष्टी से प्रत्याक्रमण से इंकार करने के क्षत्रियों के सैकड़ो नही हजारो दृष्टान्त इतिहास में भरे पड़े है। इस चरित्र का रहस्य केवल यही था कि क्षत्राणियों ने बचपन से अपनी संतानो के हृदयों को अपने स्नेह से इस प्रकार सिंचित किया था कि कठोर अनुशासन भी उनमे कभी बर्बरता का संसार नही कर पाया।
       स्नेह स्त्री जाति का स्वाभाविक गुण है । जैसा कि हम पहले लिख चुके है कि कन्याओं को बचपन से ही इस स्नेह का भाई-बहिन के साथ उदार व्यवहार कर संचय करना चाहिए और जब वे माताएँ बने तो उन्हें इस स्नेह का विस्तार अपनी संतानो के साथ मधु-व्यवहार से करना चाहिए।
(5) संस्कार - भारतीय जीवन पद्धति के अनुसार गर्भाधान से लेकर मृत्यु तक 16 संस्कार प्रत्येक व्यक्ति के होने चाहिए है । लेकिन आज के इस जटिल युग में इतने संस्कारों का विधिवत् निर्वाह सम्भव प्रतीत नही होता है। अतः कम से कम दो संस्कारो को विधिवत् सम्पन्न करने का प्रयत्न प्रत्येक माता को करना चाहिए। इनमे प्रथम संस्कार है "द्विजातीय संस्कार" है, जिसको आजकल 'जनेऊ पद्धति' कहते है। इस संस्कार की वास्तविक पद्धति प्रायः नष्ट हो चुकी है, अतः उसे पुनः जीवित करने की आवश्यकता है। जब बालक पांच वर्ष से 12 साल की आयु के बीच की आयु का हो उस समय उसका पिता उसको अपने द्वारा सिद्ध किया हुआ मन्त्र प्रदान करे ताकि वह अपने वर्ण को प्राप्त हो सके, क्षत्रिय बन सके। इसके लिए आवश्यक है कि पिता के पास सिद्ध किया मन्त्र हो, लेकिन आज के युग में जब सारी ही श्रेष्ठताएँ नष्ट होती जा रही है तो भगवान का नाम लेने की श्रेष्ठता कैसे जीवित रहती ? कितने लोग समाज में ऐसे है जो प्रतिदिन मन्त्र जप करते है ? व जो मन्त्र जप करते है उनमे से भी ऐसे कितने है जिनके मन्त्र सिद्ध हो चुके है ? और उनमे से भी ऐसे कितने है जिन्होंने संतानोत्पत्ति के पूर्व मन्त्र को सिद्ध किया है ? इस परीक्षण के बाद उत्तर शून्य मिलेगा । तब प्रश्न है कि संतानो का द्विजातीय संस्कार कैसे हो ? अज्ञान में जो समय निकल गया उसकी चिंता करने से कुछ बनने वाला नही है। हमारे पास हमारे पिता का दिया मन्त्र नही है तो विकल्प यह हो सकता है कि ऋषि श्रेष्ठ श्री विश्वामित्र द्वारा सिद्ध किये हुए "गायत्री मन्त्र" को हम विश्वामित्र को ही गुरु स्वीकार कर "गुरु मंत्र" के रूप में स्वीकार करे व इस गायत्री मंत्र का जप आरम्भ करे तथा इसी मन्त्र को अपनी संतानो को उचित आयु में मन्त्र प्रदान कर दीक्षित कर क्षत्रिय बनने का अवसर प्रदान करे । इसके अलावा और कोई विकल्प दृष्टिगोचर नही होता है।
        कन्याओं के लिए हम पहले ही मन्त्र का उल्लेख कर चुके है, जैसे ही बालिका छठे वर्ष में प्रवेश करे, माताओ को चाहिए कि वे उसे मन्त्र का जप करना सिखाए।
       जब इस मिलावट की दुनिया में सभी चीजे अशुद्ध हो रही है तो मन्त्र भी शुद्ध कैसे रह पाते। लोगो ने भाषा के शुद्धि करण के नाम पर गायत्री मंत्र को भी अशुद्ध कर दिया है। इसलिए शुद्ध गायत्री मन्त्र व इस मन्त्र के साथ संध्याकाल में प्राणायाम करने की विधि भी हम नीचे लिख रहे है ताकि शुद्धता से मन्त्र का जप किया जा सके। गायत्री इस मन्त्र का नाम नही है। गायत्री तो छन्द है, जिसमे चौबीच अक्षर होते है। आजकल पुस्तको में जो मन्त्र मिलता है उसमे 23 ही अक्षर है। भाषा के शुद्धिकरण के नाम पर एक अक्षर कम कर दिया है जो उचित नही है। मन्त्र में भाषा की शुद्धि का कोई महत्त्व नही है। मन्त्र जिस रूप में सिद्ध किया गया है, जपकर्ता के प्रभाव के कारण वह उसी रूप में सार्थक है। गायत्री मन्त्र का पूरा नाम है - "पंच प्रणव ब्रह्म गायत्री, जो निम्न प्रकार है -
       "ॐ भूर्भुवः स्वः
        तत्सवितु वरेणियं (वर्रेण्यं नहीं )
        भर्गो देवस्य धीमहि
         धियो यो नः प्रचोदयात्"
    पंच प्रणव इसलिए कहा गया है कि प्राणायाम के समय इसमें पाँच बार प्रणव ॐ का प्रयोग होना चाहिए।
        ॐ शब्द तीन अक्षरों उ+अ+म के संयोग से बना है। यह तीनो अक्षर क्रमशः भू लोक, भुवः लोक व स्वर्ग लोक के प्रतीक है। मनुष्य के शरीर में चरणों से लेकर कटि तक का भाग भू लोक है, कमर से लेकर गले तक का भाग भुवः लोक है व गर्दन से ऊपर का भाग स्वर्ग लोक है। क्षत्रियो की उत्पत्ति भुवः लोक से - जिसमे हृदय स्थित है से हुई है। अतः संध्या करते समय पहले केवल ॐ (जिसे प्रणव कहते है) के साथ प्राणायाम करना चाहिए। चरणों से आरम्भ कर कमर तक का ध्यान करते हुए श्वांस को ऊपर खींचना चाहिए, फिर हृदय स्थान पर ध्यान कर सविता (सूर्य भगवान्) के प्रकाश को हृदय में स्थापित करने के उद्देश्य से वहां पर श्वांस को रोकना चाहिए व अंत में दोनों भौंहो के बीच ध्यान करते हुए श्वांस को छोड़ देना चाहिए
इसके बाद ॐ भुः भुर्व: स्वः के साथ इसी प्रकार यानि ॐ भुः के साथ पूरक (श्वांस खींसना) भुवः के साथ कुम्भक (श्वांस रोकना ) व स्वः के साथ रेचक ( यानि श्वांस छोड़ना) करना चाहिए । ध्यान पूर्ववत् चरण से कमर तक पूरक फिर हृदय पर कुम्भक व भृकुटि पर रेचक करना चाहिए ।
     इसके उपरांत "ॐ तत्स" के साथ पूरक , "वितु" के साथ कुम्भक व "वरेणियं" के साथ रेचक करना चाहिए । इसी प्रकार फिर "ॐ भर्गो" के साथ पूरक, "देवस्य" के साथ कुम्भक व "धी महि" के साथ रेचक करना चाहिए। अंत में "ॐ धियो" के साथ पूरक, "यो नमः" के साथ कुम्भक व "प्रचोदयात्" के साथ रेचक करना चाहिए ।
      इस मन्त्र का अर्थ भी समझना आवश्यक है ताकि ध्यान के समय विचार भी ऐसे ही बने, जो निम्न प्रकार है -
तत्सवितु वरेणियं > तत् + सवितु + वरेण्य = उस तेजस्वी सूर्य का जो वरण करने योग्य है
भर्गोदेवस्य धीमहि > भर्ग + देवस्य + धीमहि = श्रेष्ठ देवका ध्यान करते है श्रेष्ठ अर्थात (बुराई का नाश करने वाली शक्ति ) देव का अर्थात (तेज रूप सविता का )
धियो यो नः प्रचोदयात् > धियः + यः + नः + प्रचोदयात् = बुद्धि को जो ( सविता ) हमारी प्रेरित करे।
    शास्त्र के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को पाँच समय संध्या करनी चाहिए लेकिन आज के व्यस्त जीवन में यह सम्भव नही है।  अतः माताओं को चाहिए कि वे बालकों को कम से कम एक समय संध्या करने की आदत डाले। उपरोक्त विधि से प्राणायाम करके संध्या करनी चाहिए । संध्या के पाँच काल है -
     1. मध्य रात्रि, ( रात्रि को 12 बजे )
     2. मध्य रात्रि व सूर्योदय के मध्यकाल में अर्थात रात्रि के तीन बजे
     3. सूर्योदय के समय
     4. मध्याह्न अर्थात दोपहर 12 बजे
     5. सूर्यास्त के समय
    दूसरा प्रमुख संस्कार जिसके बारे में पहले उल्लेख किया जा चूका है विवाह संस्कार है। इसके लिए पति को इतना आध्यात्मिक शक्ति सम्पन्न होना चाहिए कि वह अपने संकल्पों को पत्नी के हृदय में स्थापित कर सके व पत्नी में भी इतनी आध्यात्मिक शक्ति हो कि वह उन संकल्पों को धारण कर सके। अतः आवश्यक है कि माताएँ बचपन से ही बालक-बालिकाओं को मन्त्र जप के लिए प्रेरित करे ताकि युवावस्था को प्राप्त होने पर उनका वास्तविक विवाह हो सके।
        इन संस्कारो को पुनः जीवित करना स्वयम् व्यक्ति के लिए, उसके परिवार के लिए तथा समाज के हित में अतिआवश्यक है, यदि ऐसा नही किया गया तो सम्पूर्ण परिवार व समाज व्यवस्था इस संसार में छिन्न-भिन्न हो जाएगी व इस महान संस्कृति को नष्ट करने की जिम्मेदारी वर्तमान पीढ़ी पर होगी।
      अतः माताओं को चाहिए कि वे कम से कम उपर्युक्त दो संस्कार पुनर्जीवित हो सके इसके लिए पूरी लगन के साथ प्रयास करे और बालकों में कम से कम एक समय संध्या करने की आदत बचपन से ही डाले।
(6) कला का विकास - आजकल लोग व्यावसायिक शिक्षा व महिलाओं के लिए रोजगार की मांग कर रहे है । ये मांगे इसलिए उठा रहे है कि परिवारो में जो कला के विकास की परम्परा थी वह लुप्त हो गई है। पहले प्रत्येक क्षत्रिय के परिवार में सिलाई, बुनाई, कढ़ाई, चित्रकारी, संगीत, नृत्य व अन्य प्रकार की कलाओ का शिक्षण बालक-बालिकाओ को बचपन से दिया जाता था । जिसके परिणामस्वरूप् वे न केवल अपनी घरेलु आवश्यकताओ की पूर्ति करती थी बल्कि दुसरो की आवश्यकताओ की पूर्ति कर लोकप्रियता भी अर्जित करती थी। आज के युग में अब हर चीज पैसे से बिकती है, कला ऐसी वस्तु है जो धड़ल्ले से बाजार में अच्छे दामों में बिक रही है, क्योंकि विदेशो में कला का नितांत अभाव हो चला है, इसलिए भारतीय कला विदेशो से अच्छी मात्रा में विदेशी मुद्रा अर्जित करने में सफल हो रही है।
       माताओ को चाहिए कि वे स्वयम् इन कलाओ को सीखने में और आज के युग की अनेक अन्य कलाओं को भी सिखने में रूचि लें। स्वयं धनोपार्जन कर व अपने-बालिकाओं को भी इसका प्रशिक्षण दे । इससे एक और हमारी ढहती हुई अर्थव्यवस्था को संबल मिलेगा वहीँ दूसरी ओर बालक-बालिकाओं में स्वावलम्बी  होने का आत्मविश्वास पैदा होगा और वे जीवनयापन के लिए परमुखापेक्षी होने के बजाय स्वावलम्बी होने में अधिक रूचि लेने लगेंगे।
        आज प्रत्येक युवक-युवती जो शिक्षित है, नोकरी के लिए लालायित रहते है। सेवा वृत्ति, क्षुद्र वृत्ति है जो आत्मविश्वास के समाप्त होने पर व्यक्ति में पैदा होती है। इसी आत्मविश्वास के अभाव में हम खेती व पशुपालन जैसी परम्परागत व्यवसायों को छोड़कर नौकरी की ओर भटक रहे है। यह प्रवृति हीन भावना की प्रतिक है, जिसको स्वावलंबन के सहारे आत्मविश्वास को पैदा करके ही रोका जा सकता है। आज लोग गाँवों को छोड़कर शहरो की ओर भागने लगे है और इस कार्य में माताओं का सबसे बड़ा सहयोग है। लेकिन जो शहर में आकर बस रहे है उन्हें समझ लेना चाहिए कि उनकी संताने आगे जाकर दो ही वर्गों में मिलेगी एक व्यवसायी और दूसरे मजदुर, इन दोनों ही श्रेणियों में रहते हुए वे क्षत्रिय के संस्कारो को जीवित नहीं रख पाएंगे और कालांतर में इनकी दो अलग ही जातियाँ बन जाएँगी जिन्हें लोग शायद क्षत्रिय के रूप में स्वीकार नहीँ करे।
        संक्षेप में माताओं के कर्त्तव्यों को इस शीर्षक में वर्णित किया गया है। इनके अलावा भी माताओं के अन्य बहुत से कर्त्तव्य है जिनमे अलग-अलग घर के विभागों के प्रति व व्यक्तियो के प्रति उनके उत्तरदायी निहित है, जिनका विस्तार के भय से यंहा हम वर्णन करना नहीं चाहेंगे लेकिन इतना जरूर कहेंगे कि परिवार में एकजुटता बनाए रखने, उनमे सद्भाव व सबके साथ समान व्यवहार की भावना पैदा करने की जिम्मेदारी प्रमुख रूप से माताओ की है जिसे उन्हें वहन करना चाहिए ।....Next
         
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