एक समय था जब इन्हीं परिवारों में देवताओं की प्रार्थना पर इंद्रासन ग्रहणकर देवताओं पर शासन करने वाले ययाति, देवताओं को अपनी प्रजा घोषित कर उनसे कर वसूल करने वाले रघु, गाय की रक्षा के लिए स्वधर्म पालन की कामना से प्रेरित हो स्वयं के शरीर का दान देने दिलीप, कबूतर के प्राणों की रक्षा करने के लिए स्वयं के शरीर का दान देने वाले शिवि, तपस्या के बल पर भगवान नारायण के कमण्डल से गंगा को धरती पर लाने वाले भगीरथ, अपनी तपस्या के बल पर ब्रह्माण्ड को हिला देने वाले विश्वामित्र, सत्य की रक्षा के लिए डोम के घर बिक जाने वाले हरीशचंद्र, बाल्यावस्था में तपस्या से भगवान को प्रसन्न करने वाले ध्रुव, अपनी प्रतिज्ञा व वचनो पर सदा दृढ रहने वाले भीष्म, महान् धनुर्धर अर्जुन, कवच व कुण्डल का दान देने वाले दानवीर कर्ण और न जाने एक से एक अद्भुत विभूतियाँ पैदा हुई ।
स्वतंत्रता व स्वधर्म की रक्षा के लिए जंगल-जंगल भटकने वाले प्रताप, दुर्गादास व चंद्रसेन, विदेशी आतताइयों से लोहा लेने वाले दाहिर, विक्रमादित्य, पृथ्वीराज, पंजवनराय, चामुण्डराय, हमीर और न जाने कैसे-कैसे अद्भुत योद्धा इन्ही घरो से उत्पन्न हुए।
यह कोई पुरानी बातें नही है जब इन्ही घरो में पैदा हुए लोगों ने संसार के वीरों के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ा। लोग युद्ध क्षेत्र में उन रुन्डो को देखकर आश्चर्यचकित हो गए, जिनके मस्तक शत्रुओं की तलवारो से काटे जा चुके थे, फिर भी रुण्ड दोनों हाथो से तलवारे चलाते हुए शत्रुओं की सेना में हाहाकार मचा रहे थे। इन दृश्यों को देखकर संसार में वीर कहलाने वाले लोगों व उनकी वंश परम्पराओं ने भी श्रद्धा से अपने मस्तक नीचे झुका लिए।
यह क्या हुआ ? वही वंश परम्परा है, वही देश है, वही रक्त है, और वही घर है, लेकिन आज उनमे न ययाति और न रघु उत्पन्न हो रहे है। न ही भीष्म व कर्ण और न ही हमीर व दुर्गादास पैदा हो रहे है। हम तो देख रहे है आज घर-घर में "संजय" ही "संजय" मात्र दृष्टिगोचर हो रहे है। राज्यलक्ष्मी को खोकर हताश व पराजित मना हो दासवृत्ति को धारण कर दीनतापूर्वक येन-केन प्रकारेण जीवन-यापन का साधन जुटा लेने को ही ये लोग परम पुरुषार्थ समझ रहे है। महत्वाकांक्षा से विहीन होकर दासों का सा जीवन बिताते इन्हें लज्जा नहीं आती। वीरत्व व पुरुषत्व जो पूर्वजों से इन्हें थाती के रूप में मिले थे, को गँवाकर इन्होंने नपुंसकत्व व निर्लज्जता का वरण कर लिया है। ऐसी कुलघाती संतानों का कल्याण कौन करे ?
किसी काल में सिन्धुराज से पराजित हुए संजय की भी ऐसी दशा हुई थी। लेकिन उस समय उसके घर में क्षत्राणी माँ विदुला मौजूद थी। जिसने उसको निर्लज्जता व नपुंसकता धारण करने के लिए धिक्कार। पूर्वजों के इतिहास व अपने इतिहास की परम्पराओं को याद दिलाकर उसके स्वाभिमान को जागृत किया। ज्ञान के द्वारा उसमे कर्त्तव्य बुद्धि का संचार किया। उसको स्मरण कराया कि दासता का जीवन व्यतीत करने के बजाय शत्रु से लड़ते हुए मारे जाना ही श्रेयस्कर है। क्योंकि इससे कम से कम पूर्वजों की कुल परम्परा तो लज्जित नही होगी। नपुंसकता को धारण करते हुए जो संजय घर में पड़ा दीन की तरह रो रहा था, उठ खड़ा हुआ। पूर्वजों के रक्त की जो धारा उसके स्नायुओं में प्रवाहित हो रही थी, ख़ौलने लगी। उसने मित्रों व साधनों को एकत्रित किया। शत्रु पर आक्रमण कर विजयश्री का वरण किया।
आज घर-घर में निराश हुए संजय आँसू बहाते दिखाई दे रहे है। लेकिन विदुला जैसी माताएं न मालूम कहाँ चली गई। पथभ्रष्ट, हताश व परमुखापेक्षी हुई संतानों का आश्रय-स्थल, उनकी मार्गदर्शक, उनकी उद्धारक केवल माताएँ ही हो सकती है। आज ऐसी ही माताओं की आवश्यकता है जो विदुला की तरह अपनी संतानों का कल्याण कर सकें। क्या आज की क्षत्राणियाँ इस चुनौती को स्वीकार करने के लिए तैयार है यदि हाँ तो इतिहासकार को बरबस लिखना पड़ेगा -
"यह कौम न मिटने पाएगी, ठोकर लगने पर हर बार उठती जाएगी ।".....Next
स्वतंत्रता व स्वधर्म की रक्षा के लिए जंगल-जंगल भटकने वाले प्रताप, दुर्गादास व चंद्रसेन, विदेशी आतताइयों से लोहा लेने वाले दाहिर, विक्रमादित्य, पृथ्वीराज, पंजवनराय, चामुण्डराय, हमीर और न जाने कैसे-कैसे अद्भुत योद्धा इन्ही घरो से उत्पन्न हुए।
यह कोई पुरानी बातें नही है जब इन्ही घरो में पैदा हुए लोगों ने संसार के वीरों के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ा। लोग युद्ध क्षेत्र में उन रुन्डो को देखकर आश्चर्यचकित हो गए, जिनके मस्तक शत्रुओं की तलवारो से काटे जा चुके थे, फिर भी रुण्ड दोनों हाथो से तलवारे चलाते हुए शत्रुओं की सेना में हाहाकार मचा रहे थे। इन दृश्यों को देखकर संसार में वीर कहलाने वाले लोगों व उनकी वंश परम्पराओं ने भी श्रद्धा से अपने मस्तक नीचे झुका लिए।
यह क्या हुआ ? वही वंश परम्परा है, वही देश है, वही रक्त है, और वही घर है, लेकिन आज उनमे न ययाति और न रघु उत्पन्न हो रहे है। न ही भीष्म व कर्ण और न ही हमीर व दुर्गादास पैदा हो रहे है। हम तो देख रहे है आज घर-घर में "संजय" ही "संजय" मात्र दृष्टिगोचर हो रहे है। राज्यलक्ष्मी को खोकर हताश व पराजित मना हो दासवृत्ति को धारण कर दीनतापूर्वक येन-केन प्रकारेण जीवन-यापन का साधन जुटा लेने को ही ये लोग परम पुरुषार्थ समझ रहे है। महत्वाकांक्षा से विहीन होकर दासों का सा जीवन बिताते इन्हें लज्जा नहीं आती। वीरत्व व पुरुषत्व जो पूर्वजों से इन्हें थाती के रूप में मिले थे, को गँवाकर इन्होंने नपुंसकत्व व निर्लज्जता का वरण कर लिया है। ऐसी कुलघाती संतानों का कल्याण कौन करे ?
किसी काल में सिन्धुराज से पराजित हुए संजय की भी ऐसी दशा हुई थी। लेकिन उस समय उसके घर में क्षत्राणी माँ विदुला मौजूद थी। जिसने उसको निर्लज्जता व नपुंसकता धारण करने के लिए धिक्कार। पूर्वजों के इतिहास व अपने इतिहास की परम्पराओं को याद दिलाकर उसके स्वाभिमान को जागृत किया। ज्ञान के द्वारा उसमे कर्त्तव्य बुद्धि का संचार किया। उसको स्मरण कराया कि दासता का जीवन व्यतीत करने के बजाय शत्रु से लड़ते हुए मारे जाना ही श्रेयस्कर है। क्योंकि इससे कम से कम पूर्वजों की कुल परम्परा तो लज्जित नही होगी। नपुंसकता को धारण करते हुए जो संजय घर में पड़ा दीन की तरह रो रहा था, उठ खड़ा हुआ। पूर्वजों के रक्त की जो धारा उसके स्नायुओं में प्रवाहित हो रही थी, ख़ौलने लगी। उसने मित्रों व साधनों को एकत्रित किया। शत्रु पर आक्रमण कर विजयश्री का वरण किया।
आज घर-घर में निराश हुए संजय आँसू बहाते दिखाई दे रहे है। लेकिन विदुला जैसी माताएं न मालूम कहाँ चली गई। पथभ्रष्ट, हताश व परमुखापेक्षी हुई संतानों का आश्रय-स्थल, उनकी मार्गदर्शक, उनकी उद्धारक केवल माताएँ ही हो सकती है। आज ऐसी ही माताओं की आवश्यकता है जो विदुला की तरह अपनी संतानों का कल्याण कर सकें। क्या आज की क्षत्राणियाँ इस चुनौती को स्वीकार करने के लिए तैयार है यदि हाँ तो इतिहासकार को बरबस लिखना पड़ेगा -
"यह कौम न मिटने पाएगी, ठोकर लगने पर हर बार उठती जाएगी ।".....Next
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