मंगलवार

क्षत्रिय पत्नी भाग 2nd

(10) कुरीतियाँ - समाज एक उपवन के समान है। जिसमे उत्पन्न होने वाले झाड़-झँकारों को यदि समय समय पर निकालते रहे तो यह एक रमणीय स्थल बना रहता है; जहाँ बैठकर लोग आनंद का अनुभव करते है। लेकिन यदि समाज के लोग असावधान है व इन पैदा होने वाले झाड़-झंकारों को नही निकालते है, सफाई नही करते है, तो यह उद्यान सांप, बिच्छु आदि विषैले जन्तुओ का आश्रय स्थल बन जाता है व कोई भी ऐसे उपवन में प्रवेश करना नही चाहता।
      आज हमारा समाज एक उपवन नही झाड़-झँकारो से भरा हुआ, विनाशकारी जन्तुओ का आश्रय स्थल बन गया है, जिसमे प्रवेश करने की किसी को अभिलाषा नही है। समाज वह है जो व्यक्ति का पोषण करता है। यदि समाज व्यक्ति का शोषण करने लगे तो ऐसे समाज के पास कोई क्यों जाना पसंद करेगा ? हमारे समाज की सामाजिक संस्थाऐं मृत प्रायः पड़ी है। सामाजिक गतिविधियाँ शून्य है। इन सबके पीछे कारण केवल यही है कि आज का हमारा समाज व्यक्ति का पोषक नही होकर व्यक्ति का शोषक हो गया है। इस समाज में इतनी कुरीतियां व्याप्त है कि उनके चलते कोई भी व्यक्ति समाज के नाम पर आकृष्ट हो ही नही सकता, और इन कुरीतियों को कायम रखने व बढ़ाने में सबसे बड़ा हाथ हमारी गृहिणियों अर्थात क्षत्राणियों का है।
      क्षत्रिय पत्नी जो अपने पति, बालको व वृद्धों का रक्षण करने को उत्तरदायी है, वही यदि उनके विनाश का कार्य करने लगे तो फिर इस समाज का जीवित रहना कैसे सम्भव होगा ? अतः गृहिणियों की इस विषय में गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए, समाज में इतनी बुराइयाँ व्याप्त है, इतनी कुरीतियाँ है कि उन सबका का वर्णन करना इस छोटी सी पुस्तक में सम्भव नही है फिर भी हम कुछ कुरीतियो की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहेंगे।
      (क) टिका प्रथा - संसार में सबसे सभ्य व सुसंस्कृत कहे जाने वाले देश व उनमे भी सबसे विलक्षण चरित्र व इतिहास की धनी क्षत्रिय जाति अपनी संतानो को पशुओ की तरह मोल लगाकर बेचेगी यह कल्पना के बाहर की वस्तु है, लेकिन हमारा दुर्भाग्य है कि यह अनहोनी घटना प्रतिदिन प्रत्येक गाँव व लगभग प्रत्येक परिवार में आ रही है।
       माता पिता अपने पुत्र व पुत्र-वधुओ से यह कामना करते है कि वे वृद्धावस्था में उनकी सेवा करे। अपने सगे सम्बन्धियो से यह आशा रखते है कि वे दुःख-दर्द में उनके संगी हो। लेकिन उनके आचरण इन अभिलाषाओं के बिलकुल विपरीत है। जब हम अपनी संतानो को धन के लोभ में बेचते है - टिका लेना क्या उनको बेचना नही है ? तब उन संतानो के दिलो में हमारे प्रति कितना आदर शेष रह जाता है, इस विषय में हमें स्वयम् गंभीरता से विचार करना चाहिए। यह बिक्री दूसरी ओर पुत्रवधु में इस अहंकार को उत्पन्न करती है कि उसके पिता ने उसके लिए पति को पैसो से ख़रीदा है, अतः पैसे से खरीदी वस्तु की भांति उसका पति पर पूर्ण प्रभुत्व व अधिकार होना ही चाहिए। यही प्रवृत्ति आज के परिवारो के विघटन व विखंडन का सबसे बड़ा कारण है और इस कारण को हमने छोटे से स्वार्थ के लिए स्वयम् ने पैदा किया है।
      टिका लेना व टिका देना यह आज समाज में एक प्रतिष्ठा की वस्तु बन गया है। इस निकृष्ट वृत्ति में वृद्धि के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार गृहिणियां है जो प्रतिस्पर्धा की भावना रखकर अपने पुत्र के लिए अधिकाधिक टिके की माँग करती है और समझती है कि इससे समाज में, लोगो में उनकी प्रतिष्ठा बढ़ेगी, लेकिन ख़रीदा बेटा हमेशा के लिए खरीददारों का हो जाएगा व वृद्धावस्था में उन्हें अकेले व दुर्भाग्यपूर्ण जीवन जीने को बाध्य होना पड़ेगा। यह एक अत्यंत गंभीर विषय है जिस पर गृहिणियों को गहराई से विचार कर इस बुराई के उन्मूलन में सहयोग देना चाहिए।
       (ख) दहेज -आज के समाज में कन्या का पैदा होना एक अभिशाप हो गया है। लोग दहेज़ की इस प्रकार मांग करते है कि कोई भी ईमानदार व्यक्ति ईमानदारी से उपार्जित धन के द्वारा उस मांग की पूर्ति नही कर सकता है? इससे स्पष्ट है कि दहेज की मांग करने वाले, समाज के ईमानदार लोगो को भ्रष्ट होने को बाध्य करते है। क्या ऐसे समाज को आप लोग समाज कहना पसंद करोगे?
    आज जब किसी घर में कन्या का विवाह होता है तो सबसे पहले दहेज की पूर्ति के लिए उसके पिता, माँ, भाई की जमीन बिकती है। प्रश्न यह उठता है कि आखिर जमीने नही रहेगी तब क्या बिकेगा? दूसरा प्रश्न पैदा होता है कि जो बहिन अपने भाई की रोजी-रोटी का साधन, उसकी जमीन को बिकवाने का हेतु बनती है उस भाई बहिन में क्या सौहार्द्र रह पाएगा? तीसरा प्रश्न है कि वर पक्ष के लोग जो कन्या पक्ष की रोजी रोटी का साधन उनकी जमीन बिकवाने के हेतु बनते है क्या वे सम्बन्धी कहलाने के लायक है क्या व उनके उनके कन्या पक्ष के साथ जीवन में कभी भी मधुर सम्बन्ध रह पाएंगे?
      यदि उपर्युक्त तीनो प्रश्नो के उत्तर नकारात्मक है, तो स्पष्ट है कि यह दहेज प्रथा न केवल परिवारो की आर्थिक स्थिति को ही नष्ट करने वाली है बल्कि यह प्रथा समाज में आपसी वैमनस्य अ असामाजिकता का विकास करने में सर्वाधिक सहयोगी है।
       अधिक दहेज, अधिक सम्मान यह कल्पना यदि एक  व्यक्ति में हो तो उसका इलाज आसानी से संभव है, लेकिन समाज का अधिकांश वर्ग यदि इसी दृष्टि से सोचने लगे तो फिर इस कुरीति से संघर्ष करने में बहुत कठिनाई उतपन्न हो जाती है। लोग अपने स्वार्थ के लिए, आज दूसरे के हित व अपने भविष्य का बलिदान कर रहे है व इस प्रकार स्वयम ही अपने लिए कब्र खोद रहे है।
    यह सारा कुकर्म परम्पराओ व रितिरिवाजो के नाम पर हो रहा है। आज वर पक्ष व उनके साथ आने वाले बाराती कन्या पक्ष के साथ ऐसा व्यवहार करते है जैसे शोषण करने का अधिकार भगवान द्वारा उन्हें प्रदत्त किया गया हो। जबकि हमारे समाज की परम्परा इसके बिलकुल विपरीत है। राजा दशरत राजा जनक से कहते है कि "आप महान है, आपकी और मेरी तुलना सम्भव नही है, आपने कन्या का दान किया है व मैंने दान ग्रहण किया । दाता से दान ग्रहण करने वाला कभी बड़ा नही हो सकता है।" कहने को तो आज हम भी कन्यादान ही करते है, लेकिन हम दान नही लेते, हम तो धौंस व् डर दिखाकर किसी का शोषण कर रहे है, जिसको डकैती कहा जा सकता है, ऐसे लोग दान ग्रहनकर्ता नही है। क्या यह दशरथ और जनक द्वारा स्थापित परम्परा है? और यदि नही है तो यह डकैती की परम्परा क्षत्रिय परम्परा नही है। यदि हमको क्षत्रिय के रूप में जिन्दा रखना है तो इस परम्परा का त्याग करना होगा।
      पहले लोग दान में भी कुछ न कुछ तो मर्यादा का निर्वाह करते ही थे। किस वस्तु का दान लिया जा सकता है या लेना चाहिए यह एक विचारणीय प्रश्न है। हम तो आज लोहे का भी दान ले रहे है, जिसको ब्राह्मण भी ग्रहण नही करता। यदि इसी प्रकार से अमर्यादित पद्धतियाँ चलती रही तो विनाश के सिवाय कोई विकल्प नजर नही आता है। इस कुरीति के भी प्रचलन व वृद्धि में महिलाओ का सर्वाधिक योगदान है, दुसरो से स्पर्धा कर अपने पुत्र के लिए अधिकाधिक दहेज़ की मांग करती है व अंततोगत्वा यह दहेज पुत्र- वधु के दुर्व्यवहार के रूप में प्रकट होकर उनके लिए ही कष्ट का सबसे बड़ा साधन बनता है।
      अतः यदि हम चाहते है कि भाई-बहिन के बिच स्नेह; यदि हम चाहते है कि हमारी सन्तानें सुखी पारिवारिक जीवन व्यतीत करे; यदि हम चाहते है कि पुत्रवधुए परिवार जनो का आदर करे, उनकी सेवा करे, तो हमे इस विनाशकारी बुराई से मुक्त होना पड़ेगा। दहेज मांगने की परम्परा का परित्याग करना पड़ेगा। तभी समाज में वास्तविक सामाजिकता का विकास होगा। समाज व्यक्ति का तब शोषक नही कहलाएगा, वह व्यक्ति का पोषक बनेगा। लोगो में समाज के प्रति स्नेह उत्पन्न होगा व सामाजिक गतिविधियों में लोगो की रूचि पैदा होगी।
     (ग) मृत्युभोज - श्राद्ध एक शास्त्रीय क्रिया है। उसका आयोजन शास्त्रानुसार ही होना चाहिए। मनुस्मृति में उल्लेख है कि श्राद्ध कर्म में एक ब्राह्मण को भोजन कराना चाहिए। भारतीय जीवन पद्धति के संचालन के नियम मनुस्मृति में ही उल्लेखित है जो सर्वमान्य है। अतः शास्त्र हमको श्राद्ध कर्म में एक ब्राह्मण को भोजन कराने व एक व्यक्ति की आवश्यक्तानुसार वस्त्र दान की अनुमति देता है।
        आजकल मृत्यु भोज के नाम पर जो विशाल भोज के आयोजन किए जाते है व दान आदि में अत्यधिक व्यय किया जाता है, वह मध्यकाल में उभरे पुराणवादी पाखंड का ही प्रतिफल है।पुराणों में लिख दिया गया है कि मनुष्य की मृत्यु के बाद अमुक प्रकार से उसका पुत्र दान दे तो उसके पिता की मोक्ष हो जाती है। यह कितनी हास्यास्पद बात है। जीवन भर व्यक्ति कुकर्म, अत्याचार व भ्रष्टाचार करता रहे व उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र पुराणों में किए गए उल्लेख के अनुसार ब्राह्मणों को दान दे दे तो पुराण कहते है कि उस प्राणी को मोक्ष मिल जाता है।
       इस प्रकार से दान देने के बल पर यदि मोक्ष होने लगे तो फिर सुकर्म में कौन प्रवृत्त होगा ? पाप व दुष्ट कर्मो से कौन डरेगा ? भीष्म पितामह ने कहा है कि "कर्मवाद के सिद्धांत को अस्वीकार कर देना बहुत बड़ा पाप है।" अर्थात व्यक्ति को अपने अच्छे व बुरे कर्मो का फल स्वयम् को भोगना ही पड़ेगा। संसार की कोई भी शक्ति इन कर्मो के फलों को भोगनें से नही बचा सकती। लेकिन पुराणवादियों ने इस ध्रुव सत्य के विरुद्ध दान के द्वारा पाप से बचने का रास्ता बताकर लोगो को पाप में प्रवृत्त होने के लिए उकसाया, उसी का परिणाम है कि आज लोग धड़ल्ले से भ्रष्टाचार, कालाबाजारी, ठगी, दुश्चरित्रता आदि कर्म कर रहे है व उनके पाप-फल से बचने के लिए मंदिर निर्माण, यज्ञ व भोजों का आयोजन कर रहे है, क्योंकि वे नही जानते कि इन आयोजनों द्वारा ये पुण्यो को नही बल्कि पापों का ही विस्तार कर रहे है।
      लोगों को यह निश्चित रूप से समझ लेना चाहिए कि उनके दुष्कर्मो का फल अवश्य को ही भोगना पड़ेगा। एक व्यक्ति के पिता की मृत्यु हो जाने पर वह गौतम बुद्ध के पास गया और कहने लगा कि मेरे पिता की मृत्यु हो गई है, उनका कल्याण हो उसके लिए मैं क्या कर सकता हूँ ? बुद्ध उस समय एक नदी के किनारे बैठे थे, उन्होंने पहले एक कंकर नदी में फेंका उसके बाद एक फूल भी नदी में फेंका, थोड़ी देर बाद वे प्रश्नकर्ता से कहते है कि "क्या तुम उस कंकर को खोजकर ला सकते हो ?" व्यक्ति का जवाब था, -"वह तो डूब गया है अब नही मिल सकता" तब गौतम बुद्ध ने दूसरा प्रश्न  किया, "क्या तुम उस फूल को ला सकते हो?" व्यक्ति का उत्तर था- "वह तो पानी में तैरता हुआ न जाने कहाँ तक चला गया है, अब नही मिल सकता।" इस पर बुद्ध ने कहा - यदि तुम्हारे पिता ने कंकर की तरब डूबने के कर्म किए है तो वह डूब गया और फूल कज तरह तैरने के कर्म किए है तो तैर गया। अब तुम उसमे क्या कर सकते हो।" हमे इस मत पर गंभीरता से विचार कर सामाजिक बुराई से मुक्त होना चाहिए।
       मृत्युभोजों के प्रचलन के कुछ राजनैतिक व आर्थिक कारण भी रहे है। राजाओं, जागीरदारों ने गरीब जनता को संतुष्ट करने की दृष्टि से पुराणों द्वारा प्रतिपादित इस पाखंड को शायद राजनैतिक दृष्टि से आश्रय दिया हो व बाद में अन्य संपन्न वर्गों ने इसको प्रतिष्ठा-वृद्धि का साधन मानकर अपनाया हो व अंत में लोग प्रतिस्पर्धा में फंसकर इस जाल में फँस गए हो। आज हमारे सामने इसका कोई राजनैतिक उद्देश्य नही है और ना ही धार्मिक समर्थन। ऐसी स्थिति में आर्थिक स्थिति को नष्ट-भ्रष्ट करने वाली इस बुराई से लोग क्यों चिपके रहना चाहते है यह आश्चर्य का विषय है। बहुत सारे समझदार लोगों ने इस बुराई से मुक्ति पा ली है और बहुत सारे मुक्त होने के लिए तड़प रहे है। लेकिन इस बुराई को जीवित रखने में हम देख रहे है कि सबसे बड़ा हाथ महिलाओं का है। वे थोथी प्रतिस्पर्धा में पड़कर इस विनाशकारी परम्परा को कायम रखने के लिए अंत तक डटी रहती है, जो अनुचित है। हमे यह नही भूलना चाहिए कि जिन लोगों के पास भ्रष्टाचार या अनाचार से उपार्जित धन है वे अपने को बड़ा व श्रेष्ठ साबित करने के लिए इस बुराई को यथावत रखने के प्रयासों से अग्रणी है। इस प्रकार इस बुराई को जीवित रखकर हम एक ओर जहाँ अपनी अर्थव्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर रहे है वहीँ दूसरी ओर भ्रष्ट लोगो को सामाजिक प्रतिष्ठा प्रदान करने में सहयोग कर रहे है। क्षत्राणियां जिनका कर्त्तव्य क्षत्रिय समाज की रक्षा करना है, यदि अर्थव्यवस्था को भंग करने वाले ईस कार्य में सहयोग करती है तो उन्हें क्षत्राणी कहलाने का कोई अधिकार प्राप्त नही रहेगा।
        (घ) सामूहिक आयोजनों पर मदिरा-माँस का प्रयोग - मदिरा-माँस का प्रयोग कितना विनाशकारी है इस विषय में रसोई की पवित्रता का उल्लेख करते हुए बहुत कुछ लिखा जा चूका है। यहाँ पर हम केवल इतना ही कहेंगे कि विवाह जैसे पवित्र धार्मिक आयोजन पर मदिरा-माँस का प्रयोग अत्यंत अहितकर कर्म है, जो बहुधा परिवारो में हो रहा है। इस पवित्र आयोजन पर विनाशकारी पदार्थों का प्रयोग पूरी तरह बन्द होना चाहिए।
       नैमित्यिक कर्म के नाम पर, पाप से बचने का साधन बताकर देवी-देवताओं के बलि चढ़ाना व नवरात्रों में अष्टमी के दिन बलिदान करना सर्वनाश का सबसे बड़ा साधन है। क्षत्रिय जगत जननी योग माया के उपासक है, क्या वह जननी पशु की माता नही है जिसकी हम बलि दे रहे है और अगर वह उसकी माता है तो क्या कोई माता अपनी सन्तान का भक्षण कर सकती है ? लोग बलि देने की परम्परा बनाते है, तब हम खासतौर से क्षत्राणियों से प्रश्न पूछना चाहेंगे। यदि देवी बकरे खाती है, शराब पीती है, तो फिर नवरात्रों में अष्टमी के दिन कढ़ाई बनाकर (पूवे पूरी बनाकर) देवी को भोग क्यों लगाया जाता है ? यह भोग इसलिए लगाया जाता है कि कुलदेवीयों को मदिरा-माँस का भोग लगाना परम्परा से वर्जित है। लोग अपने स्वाद के चक्कर में इस हकीकत को छिपाकर लोगों को परम्परा के नाम पर गुमराह करना चाहते है।
       इससे भी महत्त्वपूर्ण एक और बात है। आश्विन शुक्ला अष्टमी लक्ष्मीजी का जन्मदिन है। हम इन क्षत्राणियों से पूछना चाहेंगे कि लक्ष्मीजी के जन्म दिवस पर जिन घरो में बकरे कटते हो, माँस-मदिरा का सेवन होता हो, उन घरों में क्या लक्ष्मी रहेगी ? और यही कारण है कि जब से हमारे घरो में मदिरा-माँस का प्रयोग आरम्भ हुआ, धीरे-धीरे राज्यलक्ष्मी हमारे सइ दूर होती चली गई और अब धन-लक्ष्मी भी हमारे से दूर होती जा रही है।
       माँस का सेवन मदिरा को आरम्भ करने की पहली सीढ़ी है और शराब का सेवन घर में शराब निकालने की पहली सीढ़ी है। इसलिए आज हम देख रहे है कि अकेले राजस्थान में हजारों गाँवों में क्षत्रिय परिवारो ने इस शराब के पीछे स्वयम् को बर्बाद कर लिया है और अब ये जीवन यापन के लिए नाजायज शराब निकालकर बेचने का व्यवसाय करते है। जिन घरो में शराब बिकेगी उन घरों में किस श्रेणी के लोग आएँगे व अपराधी लोगों का जिन घरों में प्रवेश होगा उन घरों के लोगो के चरित्र, आचरण कैसे होंगे ? अतः क्षत्राणियों का यह परम कर्त्तव्य हो जाता है कि वे इस बुराई के विरुद्ध साहस बटोर कर आगे आएँ व घरो में किसी भी आयोजन पर मदिरा-माँस का प्रवेश न होने दे।
      एक और विचित्र स्थिति है। किसी की म्रत्यु के बाद द्वादसे से दूसरे दिन शराब पीकर शोक तोडा जाता है। जो मदिरा स्वयम् समस्त प्रकार के शोकों का हेतु है उसी का सेवन कर लोग शोक तोड़ने का आयोजन करे तो इससे बड़ी मूर्खता और क्या हो सकती है। शुक्राचार्यजी को राक्षसों ने उनके प्रिय शिष्य कच की भस्मी को शराब में मिलाकर पिलाया तब शुक्राचार्यजी ने कहा था "यदि किसी शास्त्र में नही लिखा है तो अब लिख लिया जाए जो इस शराब को पियेगा उसका सर्वनाश अवश्य होगा।" ऋषियों की ऐसी स्पष्ट घोषणा के बाद भी अर्थव्यवस्था को नष्ट करने वाली इस बुराई को यदि हम धर्म के नाम पर जीवित रखना चाहते है तो इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है ?
(11) मितव्ययता - आज संसार की राजनीती पर पूंजीवादियों का कुचक्र हावी है। जब पूंजीपति गरीब की श्रमशक्ति व योग्यता के सामने स्वयम् को असहाय महसूस करता है तब वह गरीब को अपने से आर्थिक प्रतिद्वन्द्वता में फंसाकर उनका सर्वनाश कर डालता है। पूँजीपति की इस योजना में फँसकर आज संसार के गरीब देश व गरीब लोग अपने आपको असहाय समझ कर पूंजीपतियों के सामने आत्मसमर्पण करने में लगे है।
        हमारे बड़े-बूढ़े कहा करते थे कि "मोटा खाना व मोटा पहनना" -इसका स्पष्ट अर्थ है कि पूंजीपतियों द्वारा फैलाई गई आर्थिक प्रतिद्वन्द्विता में जो फंसेगा उसकी अर्थव्यवस्था का सर्वनाश अवश्य होगा। आज हमारे परिवार व विशेषकर महिलाएँ इस आर्थिक प्रतिद्वन्द्विता की दौड़ में आगे निकलने की चेष्टा कर रही है, जिसके परिणामस्वरुप हमारे, घर दिवालिये बनते जा रहे है। पूंजीपति के पास सबसे बड़ा शस्त्र बाजार है, वह किसी को डर दिखा कर लूटता नही है, वह योजनाबद्ध तरीके से लोगों की जेब काटता है। उसने बाजार में अनेक प्रकार की व एक से एक अनावश्यक वस्तुऍ इस प्रकार फैला दी है कि कोई भी घर-गृहस्ती उसके चंगुल में फँसे बिना नही रह सकती है। उसके पास प्रचार-प्रचार के लिए अख़बार, सिनेमा, टेलीविजन, रेडियो जैसे साधन है जिनके माध्यम से वह हमारे अंदर छिपी हुई प्रतिस्पर्धा व विलासिता की भावनाओ को कुरेदता है व हम ख़ुशी ख़ुशी अपनी जेब का धन अनावश्यक वस्तुओं को खरीदकर उसकी दुकान पर रख आते है। इस प्रकार जब हम घर लौटते है तो हमारी जेब खाली हो चुकी होती है व घर ऐसी सामग्रियों से भरा हुआ होता है, जिनके बिना भी हमारा काम आसानी से चल सकता था। एक व्यक्ति को पहिनने के लिए कितने कपडे चाहिए व हमारे परिवार के प्रत्येक व्यक्ति के पास कितने वस्त्र है। कितनी ही ऐसी चीजे है जो किसी काम में नही आती व कितनी ऐसी वस्तुऍ है जिनके बिना भी आसानी से काम चल सकता था ? इन विषयों पर अगर गंभीरता से विचार करे तो हम इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि हमारी अर्तव्यवस्था को चौपट करने के सबसे बड़े साधन हम स्वयम् ही है जो लोगो को देखा-देखी अनावश्यक प्रतिस्पर्धा में फंसकर अपने आपको बर्बाद कर रहे है।
      जिस परिवार में गृहिणियां मितव्ययी है उनमे कम आमदनी होने पर भी हमको समृद्धि दिखाई देती है। इसके विपरीत जहाँ अपव्यव होता है अर्थात अनावश्यक वस्तुओं पर धन व्यय किया जाता है वहाँ पर अधिक आय होने पर भी दरिद्रता का ही निवास देखा जा सकता है। अतः गृहिणियों को चाहिए कि वे आवश्यक व अनावश्यक इन दो शब्दों पर गहराई से ध्यान दे व घर में केवल उन्ही वस्तुओ को खरीद कर लावे जो आवश्यक हों । इसे ही मितव्ययता कहा जाता है। ऐसी मितव्ययी गृहिणियां ही गृहलक्ष्मी कहलाने का अधिकार रखती है।
(12) कर्त्तव्य निष्ठा - कर्त्तव्य एक बात है और निष्ठा दूसरी । अपने समस्त कर्त्तव्यों का ज्ञान होने पर भी उनको यदि निष्ठापूर्वक नही किया जाता, अर्थात कर्त्तव्य व मन बुद्धि में यदि एकता स्थापित नही होती है तो यह कर्त्तव्य का ज्ञान व्यर्थ चला जाता है, तथा उसका जो लाभ व्यक्ति व परिवार को मिलना चाहिए वह नही मिल पाता है । क्षत्राणियों ने अपने जीवन में जो सफलताएँ प्राप्त की उसका रहस्य उनकी कर्त्तव्य निष्ठा में ही निहित था। लेकिन आज इस कर्त्तव्य निष्ठा का प्रायः अंत हो गया है व गृहिणियां केवल जीवनयापन  के लिए अपना गृह कार्य करती हैं। कर्त्तव्य निष्ठा के लिए नही। पहले क्षत्राणियों में कैसी कर्त्तव्य निष्ठा थी इसका उदाहरण हमे सत्यभामा व द्रोपदी के संवाद से मिलता है - द्रोपदी सत्यभामा से कहती है -"महात्मा पांडवो के प्रति जिस प्रकार का आचरण करती हूँ वह सब सच-सच सुनाती हूँ।" मैं अहंकार और काम-क्रोध को छोड़कर बड़ी सावधानी से सब पांडवों की सेवा करती हूँ । मैं ईर्ष्या से दूर रहती हूँ, और मन को काबू रखकर केवल सेवा इच्छा से ही अपने पतियो का मन रखती हूँ। यह सब करते हुए भी मैं अभिमान को अपने पास नही भटकने देती।
      मैं कटुभाषण से दूर रहती हूँ , असभ्यता से खड़ी नही होती, खोटी बातों पर दृष्टि नही डालती, बुरी जगह पर नही बैठती, दूषित आचरण करने वालो के पास नही भटकती तथा उनके अभिप्राय पूर्ण संकेत का अनुचरण करती हूँ। जब जब मेरे पतिदेव घर आते है तभी मैं खड़ी होकर आसन और जल देकर उनका सत्कार करती हूँ। मैं घर के बर्तनों को माँज-धोकर साफ रखती हूँ। मधुर रसोई तैयार करती हूँ, समय पर भोजन कराती हूँ, सदा सावधान रहती हूँ, घर में गुप्त रूप से अनाज का संचय करती हूँ? और घर को झाड़-बुहार कर साफ करती हूँ। बात में किसी का तिरस्कार नही करती, कुल्टा स्त्रियों के पास नही भटकती, और आलस्य से दूर रहती हूँ। मैं दरवाजे पर बार-बार जाकर खड़ी नही होती तथा खुली या कूड़ा-करकट डालने की जगह भी अधिक नही रहती हूँ। सदा ही सत्य भाषण और पति की सेवा में तत्पर रहती हूँ पतिदेव के बिना अकेली रहना मुझे बिलकुल पसन्द नहीं है ।
       सासजी ने मुझे कुटुंब सम्बन्धी जो-जो धर्म बताये है, उन सबका मैं पालन करती हूँ, शिक्षा देना, पूजन, श्राद्ध, त्यौहार पर पकवान बनाना, माननीयों का सत्कार तथा और भी जो-जो धर्म मेरे लिए निहित है उन सभी का मैं सावधानी से रात-दिन आचरण करती हूँ। मैं विनय और नियमों को सर्वदा सब प्रकार अपनाए रखती हूँ। सुभगे ! मैं सावधानी से सर्वदा अपने पतियों से पहले उठती हूँ तथा बड़े-बूढ़ों की सेवा में लगी रहती हूँ, वीरमाता, सत्यवादिनी, आर्या कुन्ती की मैं भोजन, वस्त्र और जल आदि से सदा ही सेवा करती रहती हूँ, वस्त्र आभूषण और भोजनादि में मैं कभी भी उनकी अपेक्षा अपने लिए कोई विशेषता नही रखती। जिस समय इंद्रप्रस्थ में रहकर महाराजा युधिष्ठिर  पृथ्वी पालन करते थे, उस समय उनके साथ एक लाख घोड़े और एक लाख हाथी चलते थे। उनकी गणना और प्रबन्ध मैं ही करती थी और मैं ही उनसे सम्बंधित आवश्यकताओं को सुनती व उनकी पूर्ति करती थी। अन्तःपुर, ग्वालो और गड़रियों से लेकर सभी सेवको के काम-काज की देखरेख भी मैं ही करती थी "
       आगे द्रोपदी कहती है -"स्त्री के लिए इस लोक या परलोक में पति के समान कोई दूसरा देवता नही है। उसकी प्रसन्नता होने पर वह सब प्रकार के सुख पा सकती है और असन्तुष्ट होने पर अपने सब सुखो को मिटटी में मिला देती है। साहबी ! सुख के द्वारा सुख कभी नही मिल सकता। सुख प्राप्ति का साधन तो दुःख ही है। अतः तुम सहृदयता, प्रेम, परिचर्या, कार्यकुशलता तथा तरह-तरह के पुष्प और चन्दन आदि से श्री कृष्णा की सेवा करो, तुम्हारे पति यदि तुमसे ऐसी कोई बात कहे कि जिसे गुप्त रखना आवश्यक न हो तो भी तुम इसे किसी को भी मत कहो। पतिदेव के जो प्रिय स्नेही और हितैषी हो, उन्हें तरह तरह के उपायों से भोजन कराओ तथा जो उनके शत्रु , उपेक्षणीय और अशुभ चिंतक हो अथवा उनके प्रति कपट भाव रखते हो, उनसे सर्वदा दूर रहो। प्रद्युम्न और साम्य यद्यपि तुम्हारे पुत्र ही है तो भी एकांत में तो उनके पास न बैठो। जो अत्यंत कुलीन, दोष रहित और सती हो उन्ही स्त्रियों से तुम्हारा प्रेम होना चाहिए। क्रूर, लड़ाकी, पेटू, चोरी की आदत वाली दुष्टा व चंचला स्त्रियों से सर्वदा दूर रहो। इससे तुम्हारे यश और सौभाग्य की वृद्धि होगी।"
        आज की गृहिणियां केवल भोजन बनाकर अपने अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझने लगती है। उन्हें द्रोपदी के उपर्युक्त कथन का गंभीरता से अध्ययन कर, तदुपरांत अपनी वर्तमान स्थिति का विश्लेषण करना चाहिए कि उनकी कार्य की गति व कार्य की शैली में कितनी निष्ठा है। परिवार जनो के प्रति उनकी कितनी आत्मीयता है। जब तक कर्त्तव्य निष्ठा व आत्मीयता की हमारे परिवारों में पुनः स्थापना नही होगी तब तक पतन के रुकने व उत्थान की ओर अग्रसर होने की कोई सम्भावना नही है। अतः क्षत्राणियों को इस विषय में गंभीर चिंतन व मनन करने की आवश्यकता है, यदि वे इस महान जाति को पुनर्जीवित करने की कल्पना रखती है तो उन्हें अपने आचरणों में परिवर्तन लाना ही होगा।
(13) सामाजिक कार्यों में सहयोग - जब क्षत्रिय शासक था उसके लिए सैन्यबल ही सबसे बड़ा बल था। इसलिए सैन्य के सबसे प्रबल घटक अश्व व हाथियों की सेवा करना क्षत्राणी का महान कर्त्तव्य समझा जाता था, एक कवि ने कहा है -
        "कळह करै मत कामणी, घोडां घी पातांह ।
        कदैक आडा आवसी, बाढाळी बहतांह ॥"
अर्थात्
     कवि क्षत्राणी से कहता है कि तू घोड़ो को घी पिलाते पति से झगड़ा मत कर जिस रोज तलवार चलेगी उस रोज यही घोड़े साथ देंगे।
    आज परिस्थितियां बदली हुई है, इस समय अस्तित्व की रक्षा व उत्थान की ओर अग्रसर होने के लिए सामाजिक पुनरुत्थान की आवश्यकता है। समाज का प्रत्येक घटक इस कार्य में जब तक सहयोग करने को तत्पर नही होगा, अपने स्वार्थो का त्याग कर अपनी शक्ति को समाज की शक्ति में परिवर्तित करने की चेष्टा नही करेगा, तब तक पुनरुत्थान की कल्पना निरर्थक सिद्ध होगी।
       इस प्रकार स्पष्ट है कि सामाजिकता के विकास व सामाजिक सुव्यवस्था व संगठन में ही व्यक्ति का हित समाहित है, अकेला व्यक्ति आज के युग में किसी भी प्रकार अपने पुरुषार्थ से अपना या समाज का कल्याण नही कर सकता है, और ना ही समाज के दुष्टों से बचाने व अमृत समाज का पालन करने की सामर्थ्य अर्जित कर सकता है। इस वास्तविकता को स्वीकारने के बाद एक ही मार्ग दिखाई देता है कि प्रत्येक व्यक्ति व प्रत्येक परिवार समाज की प्रत्येक इकाई को सुदृढ़ बनाने के लिए जुटे। उसके लिए अपने श्रम, धन, ज्ञान व तपस्या का त्याग करना सीखे। यह जीवित रहने की एक अनिवार्य शर्त है, यदि इसे पूरा नही किया तो हम आगे आने वाले समय में क्षत्रिय के रूप में कभी भी जीवित नहीं रह पाएँगे। इस महान जाति का इतिहास सदा के लिए लुप्त हो जाएगा।
      उपर्युक्त यथार्थता को हृदयंगम कर प्रत्येक गृहिणी को यह व्रत लेना होगा कि वह न केवल सामाजिक कार्यों में स्वयम् सहयोग करे बल्कि परिवार के प्रत्येक सदस्य को इसमें सहयोग करने के लिए, आवश्यक सुविधाएँ जुटाने में अपना सहयोग भी प्रदान करे।
(14) कर्त्तव्यहीनता को स्वीकार नहीं करना - क्षत्राणियों ने न केवल तपस्या व त्याग के द्वारा अपने जीवन को उत्कृष्ट बनाया बल्कि उन्होंने अपने पतियों को हमेशा पथभ्रष्ट होने से भी बचाया। मस्तक कटने के बाद युद्ध में लड़ने का क्षत्रियों का जहाँ अनोखा इतिहास है, वहीँ पर मोह के पाश में फँसकर कर्त्तव्य विमुख होते अपने पति को कर्त्तव्य की ओर बढ़ाने के लिए हाड़ी रानी ने अपना मस्तक काट कर पति को समर्पित कर देने जैसे क्षत्राणियों के दैदीप्यमान कार्यो से भी इतिहास भरा पड़ा है। युद्ध क्षेत्र से पलायन करने वाले अथवा प्राणों की रक्षा के लिए युद्ध में नही जाने वाले पतियो की भी क्षत्राणियों ने उपेक्षा कर क्षत्रियों में जीवनोत्सर्ग की भावना जगाने का हमेशा प्रयास किया है। एक कवी कहता है कि -
       "मणिहारी जारी सखी, अब न हवेली आव।
       पीव मुआ घर आवीया, विधवा किवण बनाव ।"
अर्थात्
      एक क्षत्राणी का पति युद्ध से पलायन कर घर आ जाता है। घर पर जब मणिहारी छुड़ा बेचने आती है तो क्षत्राणी कहती है कि मणिहारी अब भविष्य में तू इस घर में मत आना । मेरा पति मरे के समान घर पर आ गया है इसलिए मैं तो अब विधवा हूँ और विधवा को श्रृंगार शोभा नही देता।
      उपर्युक्त दोहे से पूर्वकाल की क्षत्राणियों की भावनाओं का पता चलता है कि वे पतियों को धर्म, त्याग व उत्सर्ग के लिए प्रेरणा देने में कितनी सक्षम व सजग थी, जबकि आज की गृहिणियां अपने सुख-साधन के अलावा कर्त्तव्य बुद्धि से विषयों को सोचने व त्याग की ओर अग्रसर होने में पूरी तरह विफल है और परिणामस्वरुप परिवारों में स्वार्थ, कायरता, दीनता व दरिद्रता का प्रवेश होता जा रहा है। इस धरती को "वीर भोग्या" कहा गया है। यह धरती कायरो के संरक्षण में रहना नही चाहती । स्वार्थियों का संसर्ग इसे नही सुहाता और इसलिए इस धरती का हमारे से स्नेह व मोह दूर होता चला जा रहा है। यदि उस स्नेह को पुनः पाना है तो क्षत्राणियों को व्रत लेना होगा कि वे अपने परिवारों मे कर्त्तव्यहीनत, कायरता व अनुदारता की किसी भी प्रकार की भावना को पनपने नही देगी। वीरता, उदारता व त्याग के प्रत्येक कार्य की प्रशंसा करेगी, प्रोत्साहन देगी व इस प्रकार पतियों, संतानों में कर्त्तव्य बुद्धि का बीजारोपण करेंगी, उसकी वृद्धि करेंगी व इस प्रकार स्वयं की कर्तव्यनिष्ठा को अविचल बनाए रखेंगी।
(15) जागरण, व्रत व त्यौहार - क्षत्रिय सभ्यता में जागरण, व्रत व त्यौहार का बहुत महत्त्व है। इसके माध्यम से जहां एक ओर सामाजिकता का विकास है वहीँ दूसरी ओर ये शारीरिक व आध्यात्मिक शक्ति के विकास के लिए साधना भी है। शास्त्रों के अनुसार एक वर्ष में प्रत्येक परिवार में चार जागरण अवश्य होने चाहिए। कालरात्रि, महारात्रि, मोहरात्रि व दारुणरात्रि में जागरण की अनिवार्यता बताई गई है। कालरात्रि दीपावली की रात्रि है। इस रात्रि को दुष्ट शक्तियों का अत्यधिक प्रभाव रहता है। अतः दीपावली से पूर्व घर को पूरी तरह शुद्ध व पवित्र बनाया जाना चाहिए, व महालक्ष्मी के पूजन के साथ काली स्याही की दवात का पूजन भी अनिवार्य है, जो काली की पूजा कहलाती है। पहले दीपावली के रोज प्रत्येक परिवार में काली स्याही की दवात व कलम की पूजा होती थी जो अब अब अज्ञान के वशीभूत होने से बन्द हो गई है, जिसे पुनः चालू करना चाहिए व रात्रिभर परिवारजनो को जागरण करना चाहिए जिससे दुष्ट शक्तियों व दुष्ट प्रवृत्तियों से रक्षा तथा लक्ष्मी की वृद्धि होती है।
    महारात्रि - महाशिवरात्रि की रात्रि महारात्रि है। इस रोज जागरण कर मध्यरात्रि में शंकर भगवान का पूजन करने से परिवार में एकता स्थापित होती है।
    मोहरात्रि - कृष्ण जन्माष्टमी ही मोहरात्रि है। इस रोज रात्रिजगरण से मोह का नाश होता है व परिवार विग्रह व कलह से बचता है।
     दारुणरात्रि - होलिका की रात्रि दारुणरात्रि है। इस रात्रि को जागरण से दुष्ट शक्तियों का प्रभाव क्षीण होता है। पूर्व काल में गाँवो में इस रात्रि को "सोटा दड़ी" आदि खेलने व उत्साह के वातावरण में रात्रि बिताने का प्रचलन था जो अब बंद हो गया है। जिसे पुनः प्रचलित किया जाना चाहिए।
       व्रत - व्रत करने से न केवल शारीरिक शुद्धि होती है बल्कि शरीर में रोग रोधक शक्ति का विकास भी होता है। दूसरी ओर मन की चंचल वृत्तियाँ उपवास करने से शांत होती है, व बुद्धि की गति सात्विक कार्यों  की ओर अग्रसर होती है। परम्परा के अनुसार क्षत्रिय व क्षत्राणियों के लिए व्रतों का अलग-अलग विधान है। क्षत्राणियों को कार्तिक मास में व क्षत्रियों को वैशाख मास में पुरे माह एक समय भोजन ग्रहण कर व्रत करना चाहिए। व्रत की समाप्ति के बाद यथा सामर्थ्य सुचरित्र, आर्थिक दृष्टि से कमजोर वर्ग के लोगो , कन्या व बटुकों को दान देना चाहिए, भोजन कराना चाहिए। इसके अलावा प्रतिमाह आने वाली सूर्य संक्रांति को पुरुषो को व हर पक्ष की संध्या व्यापिनी त्रयोदशी को(जिसे आजकल प्रदोष का व्रत कहते है) क्षत्राणियों को उपवास करना चाहिए । इन मुख्य व्रतों के अलावा अनन्त चतुर्दशी व कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को भी स्त्रीया व्रत करें ऐसा विधान है । व्रत के रोज केवल एक समय भोजन करना ही पर्याप्त नही है। हर रोज सात्विक साहित्य का अध्ययन व नाम जप करना अनिवार्य शर्ट है। बिना भगवान के नाम का स्मरण किये व्रत की महिमा नगण्य रह जाती है। व्रत के रोज मन को शांत रखना व बुद्धि को सांसारिक कार्यों से हटाकर इष्ट की ओर लगाने का प्रयास भी किया जाना चाहिए।
     किसी समाज में यदि यह देखना हो कि उसमें कितना जीवन शेष है, तो समाज में आयोजित त्योहारौं की संख्या व उनके आयोजन के विधान की गहराई से देखना चाहिए। जिस समाज में त्यौहार, व्रत, जागरण आदि का आयोजन अत्यधिक उत्साह से किया जाता हो, वहां समझना चाहिए कि वह समाज एक जीवित समाज है। हमारे समाज में अत्यधिक त्योहारौ का होना मात्र उसकी पूर्वकाल की बुलंदियों का प्रतीक रह गया है। आज त्यौहार, केवल परिपाटी को निभाने के लिए मनाए जाते है। उनके आयोजन के समय परिवार में कोई उत्साह या उत्सव का वातावरण दृष्टिगोचर नही होता, जो हमारे सामाजिक पतन का प्रतीक है। उत्सव व त्योहारौ का तब तक कोई महत्त्व नही है, जब तक कि आयोजको व उसमे भाग लेने वाले प्रत्येक व्यक्ति में उत्साह नही है। अतः त्योहारों के आयोजन से पूर्व इस बात को ठीक प्रकार से समझ लेना चाहिए कि उत्साह-विहीन त्यौहार, त्यौहार नही मात्र परिपाटी है।
        दशहरा, दीपावली, होली, रामनवमी, कृष्ण जन्माष्टमी, गणेश चतुर्थी, रक्षा बंधन, वत्सद्वादसी, अनन्त चतुर्दशी, सूर्य सप्तमी, गौगानवमी, बसन्त पंचमी, महाशिवरात्रि ये क्षत्रियों के प्रमुख त्यौहार है, इन त्योहारों का विस्तृत विवरण लिखना इस छोटी पुस्तक में सम्भव नही है, लेकिन बिना त्यौहारों का महत्त्व जाने उनका आयोजन भी अर्थहीन हो जाता है, अतः प्रत्येक गृहिणी के लिए आवश्यक है कि वह इन त्योहारो के महत्त्व को जाने व तदनुसार उनका आयोजन करे।
          त्योहारों का अपना एक अलग महत्त्व है कि इनके माध्यम से सभ्यता व संस्कृति जीवित रहती है। त्योहारो के दिन परम्परागत वस्त्राभूषण धारण करने चाहिए व बालक-बालिकाओ को आगंतुकों का स्वागत सत्कार व उनके साथ व्यवहार के बारे में बचपन से ही शिक्षित करना चाहिए। इस शिक्षण के अभाव में हमारे परिवार, जो सुसभ्य व्यवहार के लिए कभी विख्यात थे। आज असभ्यता की ओर अग्रसर होते जा रहे है। नवयुवक व नवयुवतियों को सामान्य सभ्यता व शिष्टाचार के नियमो का भी बोध नही है, क्योंकि बचपन से उनको किसी ने इन नियमो की ओर आकर्षित ही नही किया। यदि बालको में त्योहारो के आयोजन का लाभ उठाकर सामान्य शिष्टाचार में रूचि पैदा नही की गई तो हमारा समाज अपनी एक महान विशेषता को खो देगा।.....Next

1 टिप्पणी:

  1. नमस्कार ! आपने जो अमृतवाणी क्षत्रिय वनिताओं केलिए लिखी है वह सभी मानव केलिए प्रयोजनकारी है/ धन्यवाद ! मेरे एक क्षत्रिय मित्र को और एक ब्राह्मण गुरुणी को आपका लेख मैं भेज दूंगा ! सादर प्रणाम ! DKM Kartha

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