पाति शब्द से ही पति का शब्द बना है। पाति शब्द का अर्थ है "रक्षा करना है" । अतः पति शब्द का अर्थ हुआ, रक्षति-इति पति अर्थात रक्षा करने वाला ही पति होता है। जो अर्थ पति शब्द का है वही पत्नी का है, केवल पत्नी शब्द स्त्रीवाचक हो गया है। अब प्रश्न यह उठता है कि पत्नी किसकी रक्षा करे ? जैसाकि क्षत्राणी प्रकरण में पहले स्पष्ट किया जा चूका है कि पति की रक्षा करना या क्षत्रियो की रक्षा करना क्षत्राणियों का परम कर्तव्य है। पत्नी के रूप में क्षत्राणी पर यह दायित्व विविध रूप में सामने आता है। पत्नी के रूप में जहाँ उसे अपने पति की रक्षा करनी होती है वहीँ उसे माता के रूप में अपने बालक-बालिकाओं की व पुत्र-वधु के रूप में सास श्वसुर सहित परिवार के सभी वयोवृद्ध लोगो की रक्षा का दायित्व भी पत्नी पर आता है। पत्नी के उत्तरदायित्वों पर हम आगे चलकर विचार करेंगे, पहले पत्नी के वास्तविक स्वरूप् पर विचार कर लेना आवश्यक होगा।
(1) पत्नी - परम्परा के अनुसार समाज में विवाह पद्धति चल रही है। बारात आती है, द्वार पर तोरण की औपचारिकता व स्वागत में आरती, इसके बाद विवाह मंडप में प्रवेश, हवन, फेरे व बस पूरी हो जाती है औपचारिकता। यह आयोजन पूरी तरह से भौतिक है व इसमें कहीं भी धार्मिक तत्त्व का समावेश नही है। जबकि विवाह एक धार्मिक प्रक्रिया है, जिसके द्वारा दो हृदयो के बिच निवास करने वाले दो प्राणों को एक सूत्र में बाँधा जाता है।
विवाह की वास्तविक प्रक्रिया यह है कि विवाह मंडप में हवन आदि हो जाने के बाद पति अपनी दाहिनी ओर बैठी हुई पत्नी के हृदय स्थान को( सूक्ष्म हृदय जो नाभि से दस अंगुल ऊपर व सीने के मध्य से तिन अंगुल दाहिनी ओर स्थित है) अपने दाहिने हाथ की पांचो अंगुलियो के अग्रभाग से स्पर्श करके निम्न मन्त्र का उच्चारण करते है --
मम व्रते ते हृदयं दधामि, मम चित्तममुचित्तं तेsस्तु ।
मम वाच मेकुमनाजुषस्व, प्रजापति स्त्वानियुनक्तुममह्यम् ॥
विवाह की वास्तविक प्रक्रिया यह है कि विवाह मंडप में हवन आदि हो जाने के बाद पति अपनी दाहिनी ओर बैठी हुई पत्नी के हृदय स्थान को( सूक्ष्म हृदय जो नाभि से दस अंगुल ऊपर व सीने के मध्य से तिन अंगुल दाहिनी ओर स्थित है) अपने दाहिने हाथ की पांचो अंगुलियो के अग्रभाग से स्पर्श करके निम्न मन्त्र का उच्चारण करते है --
मम व्रते ते हृदयं दधामि, मम चित्तममुचित्तं तेsस्तु ।
मम वाच मेकुमनाजुषस्व, प्रजापति स्त्वानियुनक्तुममह्यम् ॥
अर्थ- मैं मेरे व्रत तेरे हृदय में धारण करता हूँ। मेरे चित्त के अनुसार तेरा चित्त हो। मेरी वाणी को एक मन से सेवन करो। प्रजापति ने तुम्हे मेरे लिए नियुक्त किया है।
उपर्युक्त मन्त्र को ध्यान से पढ़ने के बाद दो बात प्रमुख रूप से बाहर आती है। विवाह कर्म के द्वारा पति अपने व्रत को अर्थात अपने कर्त्तव्य अथवा अपने ध्येय को पत्नी के हृदय में स्थापित करता है। दूसरी प्रमुख बात यह है की पति पत्नी से यह कामना करता है कि उसके चित्त के अनुसार पत्नी का चित्त हो अर्थात दोनों की बुद्धि व मन एक दिशा में चलने वाले हो। अंत में पति कहता है, प्रजापति ने तुम्हे मेरे लिए नियुक्त किया है, अतः मेरी बात को एकाग्र होकर सुनो और मन से उसका सेवन करो।
अब प्रश्न यह उठता है कि क्या आज के पति इतनी आध्यात्मिक शक्ति से युक्त है कि वे अपने व्रत को अथवा संकल्पों को पत्नी के हृदय में धारण करवा सके। धारण कराना तो दूर रहा, आज के युवक अपने व्रत, कर्त्तव्य या ध्येय के बारे में स्वयम् ही नही समझते। दूसरा पक्ष अर्थात पत्नियो में भी न तो संकल्पों को धारण करने के क्षमता है और न ही अपने चित्त को अर्थात अपनी मन बुद्धि को पति के चित्त अर्थात मन-बुद्धि के अनुरूप बनाने के क्षमता है। ऐसी स्थिति में आज जिस विवाह पद्धति के द्वारा कन्या पत्नी बनती है, वह पद्धति मात्र औपचारिकता रह गई है। उसका तत्व अर्थात उसका मूल नष्ट हो चूका है। ऐसी मात्र औपचारिकता दो सजीव प्राणियो में वास्तविक एकता स्थापित करने में पूरी तरह असमर्थ है। इसलिए आज परिवारो में जहाँ एक ओर विभेद, विभाजन व कलह पैदा होआ रहे है, वहीँ दूसरी ओर स्त्री व पुरुषो में संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो गई है। जिसके दूरगामी परिणाम अगले वर्षो में उत्पन्न होंगे जब लोगो के लिए जीना भी मुश्किल हो जाएगा ।
अतः यह आवश्यक है कि विवाह से पूर्व युवक व युवतियाँ विवाह के पवित्र बंधन के बारे में गहराई से अध्ययन, चिंतन व मनन करे। विवाह से पूर्व अपने अंदर इतनी आध्यात्मिक शक्ति व विवेक का उपार्जन करे जिससे पति-पत्नी के हृदय में अपने व्रत को स्थापित कर सके व पत्नी उस व्रत को धारण कर अपने मन-बुद्धि को पति के अनुकूल बना सके। जब तक ऐसा नही होगा हमारे घरो में प्राचीनकाल जैसा आनन्द, वैभव व समृद्धि लौटकर नही आ सकती है।
उपर्युक्त मन्त्र को ध्यान से पढ़ने के बाद दो बात प्रमुख रूप से बाहर आती है। विवाह कर्म के द्वारा पति अपने व्रत को अर्थात अपने कर्त्तव्य अथवा अपने ध्येय को पत्नी के हृदय में स्थापित करता है। दूसरी प्रमुख बात यह है की पति पत्नी से यह कामना करता है कि उसके चित्त के अनुसार पत्नी का चित्त हो अर्थात दोनों की बुद्धि व मन एक दिशा में चलने वाले हो। अंत में पति कहता है, प्रजापति ने तुम्हे मेरे लिए नियुक्त किया है, अतः मेरी बात को एकाग्र होकर सुनो और मन से उसका सेवन करो।
अब प्रश्न यह उठता है कि क्या आज के पति इतनी आध्यात्मिक शक्ति से युक्त है कि वे अपने व्रत को अथवा संकल्पों को पत्नी के हृदय में धारण करवा सके। धारण कराना तो दूर रहा, आज के युवक अपने व्रत, कर्त्तव्य या ध्येय के बारे में स्वयम् ही नही समझते। दूसरा पक्ष अर्थात पत्नियो में भी न तो संकल्पों को धारण करने के क्षमता है और न ही अपने चित्त को अर्थात अपनी मन बुद्धि को पति के चित्त अर्थात मन-बुद्धि के अनुरूप बनाने के क्षमता है। ऐसी स्थिति में आज जिस विवाह पद्धति के द्वारा कन्या पत्नी बनती है, वह पद्धति मात्र औपचारिकता रह गई है। उसका तत्व अर्थात उसका मूल नष्ट हो चूका है। ऐसी मात्र औपचारिकता दो सजीव प्राणियो में वास्तविक एकता स्थापित करने में पूरी तरह असमर्थ है। इसलिए आज परिवारो में जहाँ एक ओर विभेद, विभाजन व कलह पैदा होआ रहे है, वहीँ दूसरी ओर स्त्री व पुरुषो में संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो गई है। जिसके दूरगामी परिणाम अगले वर्षो में उत्पन्न होंगे जब लोगो के लिए जीना भी मुश्किल हो जाएगा ।
अतः यह आवश्यक है कि विवाह से पूर्व युवक व युवतियाँ विवाह के पवित्र बंधन के बारे में गहराई से अध्ययन, चिंतन व मनन करे। विवाह से पूर्व अपने अंदर इतनी आध्यात्मिक शक्ति व विवेक का उपार्जन करे जिससे पति-पत्नी के हृदय में अपने व्रत को स्थापित कर सके व पत्नी उस व्रत को धारण कर अपने मन-बुद्धि को पति के अनुकूल बना सके। जब तक ऐसा नही होगा हमारे घरो में प्राचीनकाल जैसा आनन्द, वैभव व समृद्धि लौटकर नही आ सकती है।
(2) पवित्रता- सभी शास्त्रो का मत है कि पवित्रता में संतो व देवताओं का तथा अपवित्रता में दुष्टो व प्रेतोंका निवास होता है। अतः घर की पवित्रता की जिम्मेदारी पत्नी पर आती है। यदि घर पवित्र है तो वहाँ पर लक्ष्मी व देवता रमण करेंगे व अपवित्र स्थान पर दुष्ट व अपवित्र तत्त्व ही निवास करेंगे।
सबसे पहले परिवार के सदस्यों के शरीर की पवित्रता की जिम्मेदारी पत्नी पर आती है। सिद्धांत है, - जैसा अन्न वैसा मन अर्थात व्यक्ति जैसा अन्न खाएगा, वैसा ही उसका मन बनेगा। शुद्ध आहार मिलने पर परिवार जनो का मन अच्छे विषयो की ओर आकृष्ट होगा तथा अशुद्ध व अभोज्य पदार्थो का सेवन करने पर उसका मन कुसंगति व दुष्प्रवृत्तियों की ओर लगेगा। इस प्रकार स्पष्ट है कि सम्पूर्ण परिवार का निर्माण व उसका विकास पत्नी के हाथो में स्थित है। यदि पत्नी पवित्रता की अवहेलना या उपेक्षा करती है तो धीरे-धीरे परिवार विघटन, विनाश दुष्प्रवृत्तियों की ओर आकृष्ट होने लगता है।
पत्नी को सर्वप्रथम भोजन शाला (रसोई) की पवित्रता की ओर ध्यान देना चाहिए। प्रतिदिन भोजनशाला को साफ व शुद्ध रखना चाहिए। उसके बाद पवित्र मन से भगवान का नाम लेते हुए अर्थात जिस मन्त्र का भी जप करती हो, उस मन्त्र का जप करते हुए भोजन बनाना चाहिए। भोजन बनाते समय किसी प्रकार का कुविचार अथवा क्रोध आदि मन में नही आने देना चाहिए तथा भोजन शाला में परिवार जनो के अलावा अन्य किसी महिला को प्रवेश नही करने देना चाहिए और न ही भोजन बनाते समय व्यर्थ की बाते करनी चाहिए। शास्त्रों द्वारा निर्धारित व संतो द्वारा समर्थित यह तथ्य सर्विदित है कि उपर्युक्त रूप से जो महिला भोजन बनाती है, उसकी रसोई में कभी खाद्य पदार्थो का अभाव नही रहता।
हमारा दुर्भाग्य है कि पिछले 20-30 वर्षो से रसोई की पवित्रता की और बिलकुल ध्यान नही दिया का रहा है। अधिकांश पुरुष वर्ग काफी पहले ही मदिरा माँस का सेवन कर अपने आहार को अशुद्ध कर चूका था। लेकिन महिलाओं ने दृढ़तापूर्वक इसका विरोध किया व कभी भी मदिरा माँस को अपनी रसोई घर में प्रविष्ट नही होने दिया, लेकिन अब महिलाएं भी कुशिक्षा व कुसंगति के प्रभाव से तेज गति से भ्रष्ट होने लगी है व उन्होंने अपनी रसोई को भ्रष्ट कर दिया है जिसका कारण उनकी अशिक्षा व धर्म तथा इतिहास के प्रति अनभिज्ञता रही है। अपने आपको शिक्षित कहने वाले पतियो ने उनको पथभ्रष्ट कर अभोज्य पदार्थो का रसोईघर में प्रवेश करा दिया है।
यंहा पर यह कहना आवश्यक होगा कि हमारे आज पढ़े लिखे लोग एक तरफ पूरी तरह पाश्चात्य सभ्यता के दास है तो दूसरी ओर धर्म को अधर्म व अधर्म को धर्म बताकर धर्म को रोजी रोटी का साधन बनाने वाले बुद्धिजीवी पंडा वर्ग के दासानुदास है। क्योंकि वे नही जानते कि जिस पश्चिमी सभ्यता को वे प्रगतिशील समझ रहे है वह आध्यात्मिक ज्ञान में ही नही भौतिक ज्ञान में भी हमारे देश के ज्ञान से सैकड़ो वर्ष पीछे है। केवल वैज्ञानिक चकाचौन्ध से व प्रचार के साधनो से उन्होंने ने हमको मानसिक दास बनाया है। हमारे देश के धर्म के ठेकेदारो ने धर्म को अपनी रोजी रोटी का साधन बनाने के लिए इसमें इतने पाखण्डों का समावेश करा दिया है कि सत्य व असत्य की पहचान करना साधारण बुद्धि के लोगो के लिए असम्भव हो गया है। अपवित्र आहार के पक्ष में इन लोगो की सबसे बड़ी दलील कि क्षत्रिय पहले से ही मदिरा माँस का प्रयोग करते आये है। इस भ्रान्ति का निवारण अति आवश्यक है। अतः हम हम निम्न शास्त्रो के अंश व तथ्य प्रस्तुत करना चाहते है, ताकि गृहणियों को यह बात समझ में आ सके कि मुगलकाल व उसके बाद ही क्षत्रियों का आहार अपवित्र हुआ और तभी से उनका पतन भी अति शीघ्र गति से होने लगा; जो निरंतर आगे बढ़ता ही जा रहा है।
अशोक वाटिका में सीताजी हनुमानजी से कहती है- "भगवान राम जंगल में शिकार करते है, कहीं वे माँस का सेवन तो नही करने लगे है ?" इसके उत्तर में हनुमानजी कहते है-
"कोई भी रघुवंशी न तो माँस खाता है न मधु का सेवन करता है। फिर भगवान् श्रीराम उन वस्तुओ का सेवन क्यों करते ? वे सदा चार समय उपवास करके पाँचवे समय शास्त्र विहित जंगली फल, मूल और नीवार आदि का सेवन करते है।" - बाल्मीकि रामायण, सुन्दरकाण्ड श्लोक- 36
महाभारत के युद्ध मइ जितने भी लोगो ने भी प्रतिज्ञा की है, उन सभी ने यह कहा है कि यदि प्रतिज्ञा पूरी नही करे तो, उनकी वह दुर्गति हो जो मदिरा पिने वाली की होती हग। इससे याज स्पष्ट है कि उस काल में भी क्षत्रियों में मदिरा-माँस का सेवन नही था। भीष्म पितामह ने तो स्पष्ट कहा है कि मदिरा-माँस का सेवन धूर्तों द्वारा प्रचलित किया गया है। इस सम्बन्ध में हम महाभारत के निम्न अंश प्रस्तुत करना चाहेंगे।
जयद्रथ का वध करने के लिए अर्जुन प्रतिज्ञा करता हुआ कहता है कि "मद्य पिने वाला, धर्म तोड़ने वाला, कृतघ्न और भ्राता की निंदा करने वाला है, इन सब लोगो के लिए जो दुर्गति प्राप्त होती है उसी को मैं भी शीघ्र प्राप्त करूँ, यदि मै जयद्रथ मार नही डालूँ।" -द्रोणपर्व, श्लोक संख्या 52-53
त्रिगर्तराज, अर्जुन का वध करने की प्रतिज्ञा करते हुए कहते है कि जो लोग मिथ्यावादी, ब्रह्म हत्यारे, मद्य पिने वाले आदि आदि पाप करने वाले हो उनको जो लोक मिले, वहीँ मुझे मिले यदि मैं प्रतिज्ञा पूरी नही करूँ ।" -द्रोण पर्व, श्लोक सं 29 से 34
भीष्म पितामह ने कहा है-
"सुरापान, ब्रह्महत्या, गुरु स्त्री गमन, इन पापो से छुटने के लिए कोई प्रायश्चित नही बताया है, अपने प्राणों का अंत करना ही इनका प्रायश्चित होगा। ऐसी पंडितो की धारणा है।" ( शांति पर्व सर्ग 159 श्लोक 32)
"जो मनुष्य इस लोक में सदा मद्य-माँस का भोजन परित्याग करते है, वे ही कठिन विषयो का अतिक्रमण किया करते है।" (शांति पर्व, सर्ग 112, श्लोक 21)
"सूरा से स्पर्श हुआ अन्न और झूठा भोजन नही करना चाहिए।" (शांति पर्व, सर्ग 34, श्लोक 24)
"माँस, मधु, मद्य, मछली, आसव, कृसरौंदन(तिल मिले हुए चावल) का भक्षण करना धूर्तो के जरिए प्रवर्तित हुआ है। यह वेद के बिच वर्णित नही है।" (शांति पर्व, सर्ग 257, श्लोक 9)
"मदिरा माँस का परित्याग करना ही श्रेष्ठ ब्रह्मचर्य है, विषयो से इन्द्रियों को निवृत करना ही श्रेष्ठ पवित्रता है व् वेदोक्त मर्यादा में रहना ही श्रेष्ठ धर्म है।" (अनुशासन पर्व, सर्ग 23, श्लोक 25)
श्री कृष्ण ने कहा है-
"स्त्रियों से हेलमेल, जुआ खेलना, शिकार का शौक और शराब पीना ये चारो प्रत्यक्ष दुःख है। इनसे मनुष्य श्री भ्रष्ट हो जाता है।"
"ये चारो दोष काम से उत्पन्न होते है, स्त्रियों के प्रति आसक्ति, जुआ, मृगया और मद्यपान। ये चारो ही महा दुख़दायी है। इनसे मनुष्य लक्ष्मी हीन हो जाता है।" (आरण्य पर्व, सर्ग 14 श्लोक 7)
गौरक्षनाथ ने कहा है-
अवधू मांस भखन्त, दया धर्म का नाश।
मद पीवत तहाँ प्राण निराश॥
भाँग भखन्त ज्ञान ध्यान खोवन्त।
जम दरबारी ते प्राणी रोवन्त॥
गौतमबुद्ध ने कहा है-
"प्राणियो का हनन करने से कोई आर्य नही होता, सभी प्राणियों की हिंसा न करने से उसे आर्य कहा जाता है।"
जो हिंसा करता है, झूठ बोलता है, लोक में चोरी करता है, पर स्त्री गमन करता है, जो पुरुष मद्यपान में लीन होता है, वह इस प्रकार इस लोक में अपनी जड़ खोदता है। हे पुरुष ! पापियो, असंयमियो के बारे में ऐसा जान और ऐसा आचरण न कर जिसमे लोभ, अधर्म, चिरकाल तक तुझे दुःख में राँधे।" (धम्मपद से)
श्री भर्तृहरि कहते है-
"बुरे मंत्रियो से राजा का नाश हो जाता है, संगति से तपस्वी भ्रष्ट हो जाता है, बहुत लाड़ प्यार से पुत्र बिगड़ जाता है, विद्या न पढ़ने से ब्राह्मण का और कुपुत्र से कुल का नाश हो जाता है। दुर्जनो की सेवा करने से शीतलता और मद्य पिने से लज्जा जाती रहती है। बिना देखभाल किए खेती व विदेश में रहने से स्नेह नष्ट हो जाता है। नम्रता न रहने से मित्रता, अनीति करने से ऐश्वर्य और असावधानी से व्यय करने से धन का नाश हो जाता है।" (नीति शतक 62)
कबीरजी ने कहा है-
बकरी खाती पात है, ताकि काढत खाल।
जो नर बकरी खात है, तिनका कौन हवाल॥
कम, क्रोध, मद लोभ विसारो, सील संतोष छिमा सत धारो।
मद्य माँस मिथ्या तजि डारो, हो ज्ञान घोड़े असवार भ्रम से न्यारा है॥
कर नैनों दीदार महल में प्यारा है।
दादूजी ने कहा है-
दादु मुड़(कबूतर) मार मानुष धणै, ते प्रत्यक्ष जमा काल।
महर दया नहीं सिंह दिल, कुकर, काग, सियाळ॥
माँस आहारी मद पीवै, विषय बिकारी सोई।
दादु आत्मराम बिन, दया कहाँ थी होई॥ (दादु वाणी)
संत पीपाजी ने कहा है-
पीपा पाप न कीजिये, अलगो रहिजे आप।
करणी जासी आपणी, कुण बेटो कुण बाप॥
जीव मार जीमण करे, खातां करै बखाण।
पीपा परतख देखलै, थाली मांय मसांण॥
विदुरजी-
स्त्री विषयक आसक्ति, जुआ, शिकार, मद्यपान, वचन की कठोरता,अत्यन्त कठोर दंड देना और धन का दुरपयोग करना, यह सात दुखदायी दोष, राजा को सदा त्याग देना चाहिए। इनमे दृढ़मूल राजा भी प्रायः नष्ट हो जाता है। (श्री भर्तृहरिविरचितम- नीतिशतकम्)
नानकदेव जी-
जो रक्त लगे कपड़ो, जामा होए पतित।
सोही रक्त खावे मानसा, नानक किस विधि उज्ज्वल चित्त॥
छांदोग्योपनिषत कहता है-
सुवर्णो का चोर, मद्य पिने वाला, गुरुस्त्री गामी, ब्रह्म हत्यारा, यह चारो पतित होते है। पाँचवाँ उनके साथ संसर्ग करने वाला भी। (अध्याय 5, खंड 10)
उपर्युक्त अंशो से स्पष्ट है कि पूर्व काल में क्षत्रिय मदिरा-माँस का सेवन नही करते थे। शास्त्रों व संतो ने भी मदिरा व माँस सेवन का निषेध किया है तथा इन्हें सर्वस्व नाश करने वाला बताया है। अतः गृहिणियों को चाहिए कि इन अशुद्ध वस्तुओ को अपनी रसोई में प्रवेश न होने दे व बालक-बालिकाओं को जीवन पर्यन्त दूर रहने की शिक्षा बचपन से ही देना आरम्भ करे।
रसोई की पवित्रता के अलावा बालको को प्रतिदिन स्नान करने, वस्त्रो की सफाई व वस्तुओ को व्यवस्थित रखने की जिम्मेदारी भी गृहिणी पर आती है, जिसकी ओर उन्हें विशेष ध्यान देना चाहिए।
सबसे पहले परिवार के सदस्यों के शरीर की पवित्रता की जिम्मेदारी पत्नी पर आती है। सिद्धांत है, - जैसा अन्न वैसा मन अर्थात व्यक्ति जैसा अन्न खाएगा, वैसा ही उसका मन बनेगा। शुद्ध आहार मिलने पर परिवार जनो का मन अच्छे विषयो की ओर आकृष्ट होगा तथा अशुद्ध व अभोज्य पदार्थो का सेवन करने पर उसका मन कुसंगति व दुष्प्रवृत्तियों की ओर लगेगा। इस प्रकार स्पष्ट है कि सम्पूर्ण परिवार का निर्माण व उसका विकास पत्नी के हाथो में स्थित है। यदि पत्नी पवित्रता की अवहेलना या उपेक्षा करती है तो धीरे-धीरे परिवार विघटन, विनाश दुष्प्रवृत्तियों की ओर आकृष्ट होने लगता है।
पत्नी को सर्वप्रथम भोजन शाला (रसोई) की पवित्रता की ओर ध्यान देना चाहिए। प्रतिदिन भोजनशाला को साफ व शुद्ध रखना चाहिए। उसके बाद पवित्र मन से भगवान का नाम लेते हुए अर्थात जिस मन्त्र का भी जप करती हो, उस मन्त्र का जप करते हुए भोजन बनाना चाहिए। भोजन बनाते समय किसी प्रकार का कुविचार अथवा क्रोध आदि मन में नही आने देना चाहिए तथा भोजन शाला में परिवार जनो के अलावा अन्य किसी महिला को प्रवेश नही करने देना चाहिए और न ही भोजन बनाते समय व्यर्थ की बाते करनी चाहिए। शास्त्रों द्वारा निर्धारित व संतो द्वारा समर्थित यह तथ्य सर्विदित है कि उपर्युक्त रूप से जो महिला भोजन बनाती है, उसकी रसोई में कभी खाद्य पदार्थो का अभाव नही रहता।
हमारा दुर्भाग्य है कि पिछले 20-30 वर्षो से रसोई की पवित्रता की और बिलकुल ध्यान नही दिया का रहा है। अधिकांश पुरुष वर्ग काफी पहले ही मदिरा माँस का सेवन कर अपने आहार को अशुद्ध कर चूका था। लेकिन महिलाओं ने दृढ़तापूर्वक इसका विरोध किया व कभी भी मदिरा माँस को अपनी रसोई घर में प्रविष्ट नही होने दिया, लेकिन अब महिलाएं भी कुशिक्षा व कुसंगति के प्रभाव से तेज गति से भ्रष्ट होने लगी है व उन्होंने अपनी रसोई को भ्रष्ट कर दिया है जिसका कारण उनकी अशिक्षा व धर्म तथा इतिहास के प्रति अनभिज्ञता रही है। अपने आपको शिक्षित कहने वाले पतियो ने उनको पथभ्रष्ट कर अभोज्य पदार्थो का रसोईघर में प्रवेश करा दिया है।
यंहा पर यह कहना आवश्यक होगा कि हमारे आज पढ़े लिखे लोग एक तरफ पूरी तरह पाश्चात्य सभ्यता के दास है तो दूसरी ओर धर्म को अधर्म व अधर्म को धर्म बताकर धर्म को रोजी रोटी का साधन बनाने वाले बुद्धिजीवी पंडा वर्ग के दासानुदास है। क्योंकि वे नही जानते कि जिस पश्चिमी सभ्यता को वे प्रगतिशील समझ रहे है वह आध्यात्मिक ज्ञान में ही नही भौतिक ज्ञान में भी हमारे देश के ज्ञान से सैकड़ो वर्ष पीछे है। केवल वैज्ञानिक चकाचौन्ध से व प्रचार के साधनो से उन्होंने ने हमको मानसिक दास बनाया है। हमारे देश के धर्म के ठेकेदारो ने धर्म को अपनी रोजी रोटी का साधन बनाने के लिए इसमें इतने पाखण्डों का समावेश करा दिया है कि सत्य व असत्य की पहचान करना साधारण बुद्धि के लोगो के लिए असम्भव हो गया है। अपवित्र आहार के पक्ष में इन लोगो की सबसे बड़ी दलील कि क्षत्रिय पहले से ही मदिरा माँस का प्रयोग करते आये है। इस भ्रान्ति का निवारण अति आवश्यक है। अतः हम हम निम्न शास्त्रो के अंश व तथ्य प्रस्तुत करना चाहते है, ताकि गृहणियों को यह बात समझ में आ सके कि मुगलकाल व उसके बाद ही क्षत्रियों का आहार अपवित्र हुआ और तभी से उनका पतन भी अति शीघ्र गति से होने लगा; जो निरंतर आगे बढ़ता ही जा रहा है।
अशोक वाटिका में सीताजी हनुमानजी से कहती है- "भगवान राम जंगल में शिकार करते है, कहीं वे माँस का सेवन तो नही करने लगे है ?" इसके उत्तर में हनुमानजी कहते है-
"कोई भी रघुवंशी न तो माँस खाता है न मधु का सेवन करता है। फिर भगवान् श्रीराम उन वस्तुओ का सेवन क्यों करते ? वे सदा चार समय उपवास करके पाँचवे समय शास्त्र विहित जंगली फल, मूल और नीवार आदि का सेवन करते है।" - बाल्मीकि रामायण, सुन्दरकाण्ड श्लोक- 36
महाभारत के युद्ध मइ जितने भी लोगो ने भी प्रतिज्ञा की है, उन सभी ने यह कहा है कि यदि प्रतिज्ञा पूरी नही करे तो, उनकी वह दुर्गति हो जो मदिरा पिने वाली की होती हग। इससे याज स्पष्ट है कि उस काल में भी क्षत्रियों में मदिरा-माँस का सेवन नही था। भीष्म पितामह ने तो स्पष्ट कहा है कि मदिरा-माँस का सेवन धूर्तों द्वारा प्रचलित किया गया है। इस सम्बन्ध में हम महाभारत के निम्न अंश प्रस्तुत करना चाहेंगे।
जयद्रथ का वध करने के लिए अर्जुन प्रतिज्ञा करता हुआ कहता है कि "मद्य पिने वाला, धर्म तोड़ने वाला, कृतघ्न और भ्राता की निंदा करने वाला है, इन सब लोगो के लिए जो दुर्गति प्राप्त होती है उसी को मैं भी शीघ्र प्राप्त करूँ, यदि मै जयद्रथ मार नही डालूँ।" -द्रोणपर्व, श्लोक संख्या 52-53
त्रिगर्तराज, अर्जुन का वध करने की प्रतिज्ञा करते हुए कहते है कि जो लोग मिथ्यावादी, ब्रह्म हत्यारे, मद्य पिने वाले आदि आदि पाप करने वाले हो उनको जो लोक मिले, वहीँ मुझे मिले यदि मैं प्रतिज्ञा पूरी नही करूँ ।" -द्रोण पर्व, श्लोक सं 29 से 34
भीष्म पितामह ने कहा है-
"सुरापान, ब्रह्महत्या, गुरु स्त्री गमन, इन पापो से छुटने के लिए कोई प्रायश्चित नही बताया है, अपने प्राणों का अंत करना ही इनका प्रायश्चित होगा। ऐसी पंडितो की धारणा है।" ( शांति पर्व सर्ग 159 श्लोक 32)
"जो मनुष्य इस लोक में सदा मद्य-माँस का भोजन परित्याग करते है, वे ही कठिन विषयो का अतिक्रमण किया करते है।" (शांति पर्व, सर्ग 112, श्लोक 21)
"सूरा से स्पर्श हुआ अन्न और झूठा भोजन नही करना चाहिए।" (शांति पर्व, सर्ग 34, श्लोक 24)
"माँस, मधु, मद्य, मछली, आसव, कृसरौंदन(तिल मिले हुए चावल) का भक्षण करना धूर्तो के जरिए प्रवर्तित हुआ है। यह वेद के बिच वर्णित नही है।" (शांति पर्व, सर्ग 257, श्लोक 9)
"मदिरा माँस का परित्याग करना ही श्रेष्ठ ब्रह्मचर्य है, विषयो से इन्द्रियों को निवृत करना ही श्रेष्ठ पवित्रता है व् वेदोक्त मर्यादा में रहना ही श्रेष्ठ धर्म है।" (अनुशासन पर्व, सर्ग 23, श्लोक 25)
श्री कृष्ण ने कहा है-
"स्त्रियों से हेलमेल, जुआ खेलना, शिकार का शौक और शराब पीना ये चारो प्रत्यक्ष दुःख है। इनसे मनुष्य श्री भ्रष्ट हो जाता है।"
"ये चारो दोष काम से उत्पन्न होते है, स्त्रियों के प्रति आसक्ति, जुआ, मृगया और मद्यपान। ये चारो ही महा दुख़दायी है। इनसे मनुष्य लक्ष्मी हीन हो जाता है।" (आरण्य पर्व, सर्ग 14 श्लोक 7)
गौरक्षनाथ ने कहा है-
अवधू मांस भखन्त, दया धर्म का नाश।
मद पीवत तहाँ प्राण निराश॥
भाँग भखन्त ज्ञान ध्यान खोवन्त।
जम दरबारी ते प्राणी रोवन्त॥
गौतमबुद्ध ने कहा है-
"प्राणियो का हनन करने से कोई आर्य नही होता, सभी प्राणियों की हिंसा न करने से उसे आर्य कहा जाता है।"
जो हिंसा करता है, झूठ बोलता है, लोक में चोरी करता है, पर स्त्री गमन करता है, जो पुरुष मद्यपान में लीन होता है, वह इस प्रकार इस लोक में अपनी जड़ खोदता है। हे पुरुष ! पापियो, असंयमियो के बारे में ऐसा जान और ऐसा आचरण न कर जिसमे लोभ, अधर्म, चिरकाल तक तुझे दुःख में राँधे।" (धम्मपद से)
श्री भर्तृहरि कहते है-
"बुरे मंत्रियो से राजा का नाश हो जाता है, संगति से तपस्वी भ्रष्ट हो जाता है, बहुत लाड़ प्यार से पुत्र बिगड़ जाता है, विद्या न पढ़ने से ब्राह्मण का और कुपुत्र से कुल का नाश हो जाता है। दुर्जनो की सेवा करने से शीतलता और मद्य पिने से लज्जा जाती रहती है। बिना देखभाल किए खेती व विदेश में रहने से स्नेह नष्ट हो जाता है। नम्रता न रहने से मित्रता, अनीति करने से ऐश्वर्य और असावधानी से व्यय करने से धन का नाश हो जाता है।" (नीति शतक 62)
कबीरजी ने कहा है-
बकरी खाती पात है, ताकि काढत खाल।
जो नर बकरी खात है, तिनका कौन हवाल॥
कम, क्रोध, मद लोभ विसारो, सील संतोष छिमा सत धारो।
मद्य माँस मिथ्या तजि डारो, हो ज्ञान घोड़े असवार भ्रम से न्यारा है॥
कर नैनों दीदार महल में प्यारा है।
दादूजी ने कहा है-
दादु मुड़(कबूतर) मार मानुष धणै, ते प्रत्यक्ष जमा काल।
महर दया नहीं सिंह दिल, कुकर, काग, सियाळ॥
माँस आहारी मद पीवै, विषय बिकारी सोई।
दादु आत्मराम बिन, दया कहाँ थी होई॥ (दादु वाणी)
संत पीपाजी ने कहा है-
पीपा पाप न कीजिये, अलगो रहिजे आप।
करणी जासी आपणी, कुण बेटो कुण बाप॥
जीव मार जीमण करे, खातां करै बखाण।
पीपा परतख देखलै, थाली मांय मसांण॥
विदुरजी-
स्त्री विषयक आसक्ति, जुआ, शिकार, मद्यपान, वचन की कठोरता,अत्यन्त कठोर दंड देना और धन का दुरपयोग करना, यह सात दुखदायी दोष, राजा को सदा त्याग देना चाहिए। इनमे दृढ़मूल राजा भी प्रायः नष्ट हो जाता है। (श्री भर्तृहरिविरचितम- नीतिशतकम्)
नानकदेव जी-
जो रक्त लगे कपड़ो, जामा होए पतित।
सोही रक्त खावे मानसा, नानक किस विधि उज्ज्वल चित्त॥
छांदोग्योपनिषत कहता है-
सुवर्णो का चोर, मद्य पिने वाला, गुरुस्त्री गामी, ब्रह्म हत्यारा, यह चारो पतित होते है। पाँचवाँ उनके साथ संसर्ग करने वाला भी। (अध्याय 5, खंड 10)
उपर्युक्त अंशो से स्पष्ट है कि पूर्व काल में क्षत्रिय मदिरा-माँस का सेवन नही करते थे। शास्त्रों व संतो ने भी मदिरा व माँस सेवन का निषेध किया है तथा इन्हें सर्वस्व नाश करने वाला बताया है। अतः गृहिणियों को चाहिए कि इन अशुद्ध वस्तुओ को अपनी रसोई में प्रवेश न होने दे व बालक-बालिकाओं को जीवन पर्यन्त दूर रहने की शिक्षा बचपन से ही देना आरम्भ करे।
रसोई की पवित्रता के अलावा बालको को प्रतिदिन स्नान करने, वस्त्रो की सफाई व वस्तुओ को व्यवस्थित रखने की जिम्मेदारी भी गृहिणी पर आती है, जिसकी ओर उन्हें विशेष ध्यान देना चाहिए।
(3) यज्ञ - हमारे शास्त्रों में यज्ञ का बहुत महत्व बताया गया है, जिसका लाभ उठाकर पेशेवर लोगों द्वारा-जिनका व्यवसाय ही धर्म के नाम पर लोगो से ठगी करना है। आजकल जगह-जगह यज्ञो के आयोजन किये जाते है व प्रत्येक व्यक्ति पूण्य लाभ के लाभ के लालच में इनकी ओर आकृष्ट होकर अपने धन व समय का अपव्यय करता है।
भीष्म पितामह ने एक यज्ञ बताया है व कहा है कि इससे बढ़कर संसार में कोई यज्ञ नही है। यह यज्ञ आज से 30-40 वर्ष पूर्व तक प्रत्येक क्षत्रिय के घर में होता था, जिसके पूण्य प्रताप से हमारे परिवार आहार व्यवहार के दूषित हो जाने पर भी इतने पापग्रस्त नही हो पाए जितना पाप ग्रस्त हो जाना चाहिए था लेकिन अब जब ये यज्ञ बन्द हो गए है, हमारे घरों में पाप ग्रस्तता बढ़ने लगी है। परिवार टूट रहे है। कलह, विनाश व विग्रह की ओर हम तेजी से आगे बढ़ रहे है। यदि इस क्रम को रोका नही गया तो हमारी आने वाली पीढ़िया पूरी तरह से क्षात्र-तत्व से विहीन होकर विनाश के गर्त में पंहुंच जाएंगी। पितामह भीष्म द्वारा वर्णित महान यज्ञ में निम्न पाँच कार्य घर में प्रतिदिन होने चाहिए। ये कार्य अत्यंत सुगम है लेकिन केवल आलस्य के वशीभूत गृहिणियों ने इन कार्यो को करना बंद कर दिया है। अब यदि अपनी संतानो को पुनः उत्थान की ओर अग्रसर करना है व अपने परिवार को सुशिक्षित व समृद्धिशाली बनाना है तो इन कार्यो की ओर ध्यान देना ही होगा।
(1) यज्ञ के निमित्त पहला कार्य है सूर्योदय से पहले घर में झाड़ू लग जानी चाहिए। रात्रि की शेष रही गंदगी जिसको अपने घरो में "बाशिंदा" कहकर बोलते है, पर प्रेतों का अधिकार बताया गया है। जहाँ पर ऐसी गंदगी रहेगी वहां पर दुष्ट प्रवृत्ति के लोग स्वतः आकृष्ट होकर आएँगे व घर को दूषित करेंगे। अतः सूर्योदय से पहले घर की सफाई अनिवार्य बताई गई है।
(2) झूठे पात्र व झूठन को घर में नही रखना चाहिए, अर्थात घर के लोगो द्वारा भोजन किए हुए पात्रों को तुरंत साफ करके रखना चाहिए क्योंकि झूठन पर भी प्रेतों का अधिकार है। अतः इस अपवित्र वस्तु को घर में पड़े रहने देने का तात्पर्य है - दुष्ट व हीन प्रवृत्तियों को घर में आमंत्रित करना।
(3) खाने के लिए रोटी बनाने से पूर्व एक रोटी गाय के लिए तथा एक रोटी कुत्ते के लिए प्रतिदिन बनानी चाहिए। कुत्ते को रोटी हमेशा घर के बाहर डालनी चाहिए।सम्पूर्ण क्षत्रियो की गाय ही कुलदेवी है, जो विभिन्न नाम व रूपो से पूजी जाती है। अतः इसको प्रतिदिन भोजन देना कुल की सुरक्षा व समृद्धि के लिए अति आवश्यक है। इसी प्रकार कुत्ते को भैरव का प्रतिक बताया गया है जो भुत-प्रेतों का सेनापति है। इन दुष्ट आत्माओ व दुष्प्रवृत्तियों को वह(भैरव-कुत्ता) घर के बाहर ही रोककर रखे इस प्रयोजन से कुत्ते को घर के बाहर ही रोटी डालने का विधान है।
(4 ) गाय व कुत्ते की रोटी बनाने के बाद परिवार जनो के लिए जो प्रथम रोटी बनाई जाए उसमे से सर्वप्रथम अग्निदेव को भोग लगाना चाहिए। इससे घर में रोग-व्याधि का प्रवेश नही होता व क्षत्रियों में तेज की भी वृद्धि होती है। बिना अग्निदेव को भोग लगाए अन्न खाना चोरी का अन्न खाना है, ऐसा गीता का मत है।
(5) प्रतिदिन पक्षीयो को चुग्गा डालना चाहिए। उपनिषदों में वर्णन है कि मनुष्य के हृदय में प्राण व आत्मा पक्षी रूप में निवास करते है। इस प्राण को बलवान बनाना व आत्मा से उसका संसर्ग कराना यही क्षत्रियों की आराधना पद्धति का मूल आधार है। मन्त्र जप के द्वारा भी इसी कार्य को सम्पन्न किया जाता है। पक्षियों को चुग्गा डालने से प्राण रूपी पक्षी व आत्मारूपी पक्षी में निकटता उत्पन्न होती है।
ये पाँचो कार्य जितने सरल है उतने ही महत्वपूर्ण । अतः इनकी उपेक्षा नही करनी चाहिए। इस यज्ञ को जो गृहिणियां करती है, उन्हें अन्य किसी दूसरे यज्ञ की ओर आकर्षित होने की आवश्यकता ही नही रहती क्योंकि इससे बड़ा कोई यज्ञ ही नही।
भीष्म पितामह ने एक यज्ञ बताया है व कहा है कि इससे बढ़कर संसार में कोई यज्ञ नही है। यह यज्ञ आज से 30-40 वर्ष पूर्व तक प्रत्येक क्षत्रिय के घर में होता था, जिसके पूण्य प्रताप से हमारे परिवार आहार व्यवहार के दूषित हो जाने पर भी इतने पापग्रस्त नही हो पाए जितना पाप ग्रस्त हो जाना चाहिए था लेकिन अब जब ये यज्ञ बन्द हो गए है, हमारे घरों में पाप ग्रस्तता बढ़ने लगी है। परिवार टूट रहे है। कलह, विनाश व विग्रह की ओर हम तेजी से आगे बढ़ रहे है। यदि इस क्रम को रोका नही गया तो हमारी आने वाली पीढ़िया पूरी तरह से क्षात्र-तत्व से विहीन होकर विनाश के गर्त में पंहुंच जाएंगी। पितामह भीष्म द्वारा वर्णित महान यज्ञ में निम्न पाँच कार्य घर में प्रतिदिन होने चाहिए। ये कार्य अत्यंत सुगम है लेकिन केवल आलस्य के वशीभूत गृहिणियों ने इन कार्यो को करना बंद कर दिया है। अब यदि अपनी संतानो को पुनः उत्थान की ओर अग्रसर करना है व अपने परिवार को सुशिक्षित व समृद्धिशाली बनाना है तो इन कार्यो की ओर ध्यान देना ही होगा।
(1) यज्ञ के निमित्त पहला कार्य है सूर्योदय से पहले घर में झाड़ू लग जानी चाहिए। रात्रि की शेष रही गंदगी जिसको अपने घरो में "बाशिंदा" कहकर बोलते है, पर प्रेतों का अधिकार बताया गया है। जहाँ पर ऐसी गंदगी रहेगी वहां पर दुष्ट प्रवृत्ति के लोग स्वतः आकृष्ट होकर आएँगे व घर को दूषित करेंगे। अतः सूर्योदय से पहले घर की सफाई अनिवार्य बताई गई है।
(2) झूठे पात्र व झूठन को घर में नही रखना चाहिए, अर्थात घर के लोगो द्वारा भोजन किए हुए पात्रों को तुरंत साफ करके रखना चाहिए क्योंकि झूठन पर भी प्रेतों का अधिकार है। अतः इस अपवित्र वस्तु को घर में पड़े रहने देने का तात्पर्य है - दुष्ट व हीन प्रवृत्तियों को घर में आमंत्रित करना।
(3) खाने के लिए रोटी बनाने से पूर्व एक रोटी गाय के लिए तथा एक रोटी कुत्ते के लिए प्रतिदिन बनानी चाहिए। कुत्ते को रोटी हमेशा घर के बाहर डालनी चाहिए।सम्पूर्ण क्षत्रियो की गाय ही कुलदेवी है, जो विभिन्न नाम व रूपो से पूजी जाती है। अतः इसको प्रतिदिन भोजन देना कुल की सुरक्षा व समृद्धि के लिए अति आवश्यक है। इसी प्रकार कुत्ते को भैरव का प्रतिक बताया गया है जो भुत-प्रेतों का सेनापति है। इन दुष्ट आत्माओ व दुष्प्रवृत्तियों को वह(भैरव-कुत्ता) घर के बाहर ही रोककर रखे इस प्रयोजन से कुत्ते को घर के बाहर ही रोटी डालने का विधान है।
(4 ) गाय व कुत्ते की रोटी बनाने के बाद परिवार जनो के लिए जो प्रथम रोटी बनाई जाए उसमे से सर्वप्रथम अग्निदेव को भोग लगाना चाहिए। इससे घर में रोग-व्याधि का प्रवेश नही होता व क्षत्रियों में तेज की भी वृद्धि होती है। बिना अग्निदेव को भोग लगाए अन्न खाना चोरी का अन्न खाना है, ऐसा गीता का मत है।
(5) प्रतिदिन पक्षीयो को चुग्गा डालना चाहिए। उपनिषदों में वर्णन है कि मनुष्य के हृदय में प्राण व आत्मा पक्षी रूप में निवास करते है। इस प्राण को बलवान बनाना व आत्मा से उसका संसर्ग कराना यही क्षत्रियों की आराधना पद्धति का मूल आधार है। मन्त्र जप के द्वारा भी इसी कार्य को सम्पन्न किया जाता है। पक्षियों को चुग्गा डालने से प्राण रूपी पक्षी व आत्मारूपी पक्षी में निकटता उत्पन्न होती है।
ये पाँचो कार्य जितने सरल है उतने ही महत्वपूर्ण । अतः इनकी उपेक्षा नही करनी चाहिए। इस यज्ञ को जो गृहिणियां करती है, उन्हें अन्य किसी दूसरे यज्ञ की ओर आकर्षित होने की आवश्यकता ही नही रहती क्योंकि इससे बड़ा कोई यज्ञ ही नही।
(4) ब्रह्मचर्य - धार्मिक, सांस्कृतिक व वैज्ञानिक सभी दृष्टियों से पिछड़ी हुई पाश्चात्य सभ्यता व एलोपैथी चिकित्सा पद्धति की मानसिकता दासता से ग्रसित हमारे देश के लोगो के लिए इन दिनों ब्रह्मचर्य का कोई मूल्य नही रह गया है। एलोपैथिक चिकित्सक कामवासना को एक स्वाभाविक आवश्यकता बताते है व कहते है कि ब्रह्मचर्य के पालन से मानसिक तनाव उत्पन्न होता है। इन लोगो का विज्ञान मात्र भौतिक पदार्थों के अन्वेषण तक सिमित है व प्रत्येक भौतिक वस्तु सूक्ष्म तत्त्व का अर्द्ध विकसित अंश मात्र है। इस समझ को प्राप्त करने में अभी उन्हें सैकडो वर्ष लगेंगे। लेकिन दुर्भाग्य का विषय यह है कि जब तक वे इस समझ तक पहुँच पाएंगे तब तक मानवता का अत्यधिक विनाश हो चुकेगा।
आज क्षय रोग, कैंसर व एड्स जैसी घातक बीमारियां संसार में तेजी से बढ़ रही है और यदि इस पाश्चात्य शिक्षा का बोलबाला इसी तरह जारी रहा तो इस प्रकार अनेको अन्य बीमारियां और फैलने वाली है। हम लोगो को गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए कि आखिर इन बीमारियो के फैलने का कारण क्या है व इनका उपचार व रोकथाम क्यों संभव नही है? वास्तविकता यह है कि हमारे शरीरों में वास्तविक शक्ति जिसमे शत्रु अर्थात बीमारियों से लड़ने की सामर्थ्य होती है, निरंतर घटती जा रही है। दूसरी ओर तथाकथित विज्ञान के प्रचार-प्रचार ने हमारे खाने-पिने की प्रत्येक वस्तु व वायुमंडल तक को दूषित व विषाक्त कर दिया है। ऐसी परिस्थिति में जब पेट में हर बार विषाक्त भोजन व जल प्रवेश कर रहा है व हर श्वांस के साथ विषाक्त वायु शरीर में प्रवेश कर रही है तथा दूसरी ओर भोगवृत्ति के कारण शरीर की रोग निरोधक शक्ति बराबर घट रही है, तब नए-नए भयानक रोगों के उदय के अलावा क्या हो सकता है?
शक्ति के इस क्षय का प्रभाव केवल इस स्थूल शरीर पर ही नही पड़ता बल्कि मन व बुद्धि भी इससे अशांत व चंचल हो जाते है। पश्चिमी देशो की बीस प्रतिशत जनता आज भी इसी कारण से अर्द्ध विक्षिप्त अवस्था में जीवन व्यतीत कर रही है। वे शांति के लिए अथवा शांति की खोज हेतु भारतीय संस्कृति की झलक पाने के लिए लालायित है।क्योंकि उन्हें इस बात का बोध नही है कि भारतवासी तो स्वयम् ही उनकी सभ्यता के दास बनकर तेजी से उन्ही के पीछे दौड़े चले आ रहे है। इसी पिछलग्गू प्रवृत्ति के कारण भारत में भी अर्द्ध विक्षिप्त लोगो की संख्या तेजी से बढ़ रही है। हत्याएँ, आत्म-हत्याएँ व अन्य सामाजिक अपराध , बलात्कार आदि इसी मानसिक व बौद्धिक खोखलेपन से उत्पन्न बीमारियां है; जिनका उपचार या दंड कानून विधान से नही हो सकता है।
आज संसार के औसत मनुष्य के मस्तिष्क का केवल एक प्रतिशत भाग सक्रिय है। विकसिततम मस्तिष्क वाले व्यक्ति का मस्तिष्क का केवल दस प्रतिशत भाग सक्रिय रूप से काम करता है। शेष नब्बे प्रतिशत भाग जिसको मनोविज्ञान की भाषा में डार्क इरीना अर्थात अंधकारमय भाग कहा जाता है, निष्क्रिय पड़ा है। आखिर हमारे मस्तिष्क का इतना बड़ा भाग निष्क्रिय क्यों है व् क्या इस निष्क्रियता को आधुनिक शिक्षा व् उनका विज्ञान तोड़ने में समर्थ हो सकता है?
रामकृष्ण परमहंस व कबीर जैसे संत पूरी तरह से अशिक्षित थे। फिर उन्होंने इतना ज्ञान कहाँ से व कैसे अर्जित किया कि लोग आज उनके वचनो को सुनने व उन पर आचरण करने में अपना अहोभाग्य समझते है। भारतीय ज्ञान विज्ञान की उपेक्षा कर पाश्चात्य अविकसित विज्ञान को महत्त्व देने के कारण ही हमारे सामने अनेक प्रकार की उलझनें पैदा हुई है जिनका हमको कोई हल नजर नही आता। भारतीय विज्ञान कहता है कि 35 रोज तक ब्रह्मचर्य का पालन करने पर वीर्य से सूक्ष्म तत्त्व "ओज" की उत्पत्ति होती है। ओज से "धैर्य" व धैर्य से "तेज" की उत्पत्ति होती है। यही तेज मस्तिष्क के तथाकथित अंधकारमय भाग (डार्क एरिना) को प्रकाशित कर व्यक्ति के मस्तिष्क को विज्ञानमय अंश में प्रवेश कराता है। इसके अलावा वीर्य का शेष स्थूल अंश है, वह शरीर में स्निग्घता व बल प्रदान करता है जिससे शरीर के बाहर से प्रवेश करने वाले विजातीय तत्त्वों से लड़ने की शक्ति प्राप्त होती है। इस वैज्ञानिक तथ्य की अवहेलना करने के कारण ही आज हमारे शरीर मन व बुद्धि खोखले व अशांत हो गए है।
जब से रेडियो, टेलीविजन व अन्य प्रचार माध्यमो से परिवार नियोजन का असभ्य प्रचार आरम्भ हुआ है तब से लोगों की बुद्धि और भी कुंठित हो गई व ब्रह्मचर्य का महत्त्व ही जीवन में समाप्त हो गया है। परिवार नियोजन के लिए यदि ये पाश्चात्य निष्कृष्ट साधन अपनाए जाते रहे तो वह दिन दूर नही जब लोग समय से पूर्व वृद्ध व शक्तिहीन होकर अपने जीवन का आखिरी भाग असाध्य रोगों को झेलते हुए व्यतीत करेंगे।
भीष्म पितामह ने कहा है कि भोग से वासना को तृप्त नही किया जा सकता। जैसे लकड़ी जलाकर उसकी जलने की प्रवृत्ति को समाप्त नही किया जा सकता है, उसी प्रकार यदि भोग वासना को तृप्त करने की चेष्टा की गई तो यह वासना ही मनुष्य का अंत कर देगी। वास्तविकता तो यह है कि ब्रह्मचर्य के पालन से वासना पर विजय पा सकते है।
ब्रह्मचर्य का पालन कोई दीठ क्रिया नही है। हठपूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन सम्भव नही है। ब्रह्मचर्य एक उच्चकोटि का सज्ञान कर्म है। वीर्य का केंद्र हृदय में स्थित है । प्राकृतिक दृश्यों के निरीक्षण, विशाल चीजो के अवलोकन, सद् साहित्य के अध्ययन, सुसंस्कृत लोगो की संगति व मन्त्र जप के द्वारा इस वीर्य की गति को उर्ध्वगामी बनाया जा सकता है। उपर्युक्त कार्यो के करने से हृदय स्थित वीर्य मनोवहा नाड़ी के द्वारा दोनों भौहों के बीस ललाट पर जाकर स्थित हो जाता है। तब व्यक्ति में कामवासना उत्पन्न नही होती व ब्रह्मचर्य के पालन की शक्ति स्वतः ही उत्पन्न हो जाती है। जब व्यक्ति मनुष्य निर्मित भोग विलास की वस्तुओ के अधिक समीप रहता है, उत्तेजना प्रदान करने वाले घटिया साहित्य को पढता है, बुरे लोगो की संगति करता है व भगवत् आराधना से दूर रहता है तब वीर्य की गति अधोमुखी होकर कामवासना को जागृत करती है। इससे स्पष्ट है कि केवल अच्छी संगति व अच्छे विचारो के बल पर ही ब्रह्मचर्य का पालन किया जा सकता है।
क्षत्रियों के लिए सबसे आवश्यक व प्रभावशाली गुण तेज है। जिसकी उत्पत्ति के लिए हमने देखा कि ब्रह्मचर्य का पालन अति आवश्यक है। हम यह भी देख चुके है कि क्षत्राणियों का कर्त्तव्य क्षत्रियों की रक्षा करना है। अतः ब्रह्मचर्य के पालन में सहयोग देकर ही वे क्षत्रियों की रक्षा कर सकती है। यदि वे भोग विलास की ओर प्रवृत्त रही तो उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि भोगों के कारण खोखला हुआ "तेज विहीन" व्यक्ति कभी भी क्षत्रियों के उत्तरदायित्वों का पालन नही कर सकेगा। इसलिए पत्नी को चाहिए कि वह ब्रह्मचर्य का पालन कर माता जिस प्रकार अपने पुत्र की रक्षा करती है उसी प्रकार वह अपने पति की रक्षा करे। कैकेयी ने जब श्री राम जी के लिए दशरथ जी से 14 वर्ष का वनवास माँगा तो दशरथ व्याकुल होकर विलाप करने लगे। उन्होंने कहा कि "मैं कौशल्या को कैसे मुख दिखाऊंगा? उसने मेरा माता की तरह पालन किया है।" क्षत्राणियां कभी भी भोग की ओर उन्मुख नही रही इसीलिए उनके त्याग के कीर्तिमान क्षत्रियों से भी ऊँचे रहे है। पार्वतीजी जब भगवान शंकर जी को पति के रूप में प्राप्त करने के लिए भीषण तपस्या कर रही थी, तब नारदजी ऋषियों को साथ लेकर पार्वतीजी को समझाने गये व कहने लगे- "शंकर तो एक सन्यासी है, जो हमेशा तपस्या में लीन रहते है, ऐसे पति प्राप्त करके तुम क्या करोगी ?" तब पार्वतीजी ने कहा - "क्या तुम लोगो ने भोग को ही विवाह का हेतु समझा है।" तब ऋषियो के पास इसका कोई जवाब नही था, इसलिए वे निरुत्तर होकर लौट गये व अंततोगत्वा पार्वतीजी ने भगवान शंकर को पति के रूप में प्राप्त किया।
उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि ब्रह्मचर्य का पालन स्वस्थ शरीर व सुखी जीवन के लिए अनिवार्यता है। इसलिए क्षत्राणियों को इस ओर विशेष ध्यान देना चाहिए व इसमें सफलता अर्जित करने के लिए मन्त्र जप के अलावा, अच्छे साहित्यों के अध्ययन, अच्छी संगति व निरंतर कार्य में लगे रहने की प्रवृत्ति को बल देना चाहिए। यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि 35 दिन से कम के ब्रह्मचर्य का नगण्य महत्त्व है। हमारी परम्परा के अनुसार बैसाख व कार्तिक इन दो महीनो में दान पूण्य की परम्परा तो अब भी कुछ हद तक चल रही है, लेकिन ब्रह्मचर्य का पालन करने की बात प्रायः लोग भूल चुके है। बैसाख मास से मतलब है सौर बैसाख मास अर्थात 14 अप्रैल से 16 मई तक । इस अवधि में सूर्य उच्च का रहता है। दान, पूण्य व भगवत् आराधना करने से पुरुषार्थ व ऐश्वर्य की वृद्धि होती है। लेकिन यदि इस अवधि में कोई महिला गर्भ धारण कर है तो उसके मुर्ख व कुलघाती संतान पैदा होती है। इसी प्रकार कार्तिक मास में (13 अक्टूबर से 17 नवम्बर तक) सूर्य निचराशि में रहता है, अतः इस अवधि में भगवान शंकर की आराधना व दान पूण्य करने से रोग व विघ्न बाधाओ से मुक्ति मिलती है। किन्तु यदि इस अवधि में कोई महिला गर्भ धारण करती है तो उसके स्वार्थी व नीच प्रवृत्ति की संतान पैदा होती है। इसलिए प्रत्येक क्षत्राणी को चाहिए कि वह बैसाख व कार्तिक , कम से कम इन दो माह में पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करे व इसप्रकार अपने वंश में निकृष्ट संतानो को पैदा होने से रोके। ब्रह्मचर्य का पालन करने से व्यक्ति में निस्वार्थ सेवा व संतोष की भावना पैदा होती है। इस भावना के अभाव में ही आज घरो में तथा समुदायो में जगह जगह विग्रह दृष्टिगोचर हो रहा है। अतः स्वयम् के स्वास्थ्य की रक्षा, मन-बुद्धि के विकास, परिवारो में समन्वय व सवोपरि आत्म-संतोष के लिए ब्रह्मचर्य का पालन अति आवश्यक है। इसलिए पाश्चात्य सभ्यता सइ प्रेरित प्रचार माध्यमो द्वारा फैलाए गए ब्रह्मचर्य विरोधी दुष्प्रचार से बचे रहकर परिवार में ब्रह्मचर्य के पालन को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है।
आज क्षय रोग, कैंसर व एड्स जैसी घातक बीमारियां संसार में तेजी से बढ़ रही है और यदि इस पाश्चात्य शिक्षा का बोलबाला इसी तरह जारी रहा तो इस प्रकार अनेको अन्य बीमारियां और फैलने वाली है। हम लोगो को गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए कि आखिर इन बीमारियो के फैलने का कारण क्या है व इनका उपचार व रोकथाम क्यों संभव नही है? वास्तविकता यह है कि हमारे शरीरों में वास्तविक शक्ति जिसमे शत्रु अर्थात बीमारियों से लड़ने की सामर्थ्य होती है, निरंतर घटती जा रही है। दूसरी ओर तथाकथित विज्ञान के प्रचार-प्रचार ने हमारे खाने-पिने की प्रत्येक वस्तु व वायुमंडल तक को दूषित व विषाक्त कर दिया है। ऐसी परिस्थिति में जब पेट में हर बार विषाक्त भोजन व जल प्रवेश कर रहा है व हर श्वांस के साथ विषाक्त वायु शरीर में प्रवेश कर रही है तथा दूसरी ओर भोगवृत्ति के कारण शरीर की रोग निरोधक शक्ति बराबर घट रही है, तब नए-नए भयानक रोगों के उदय के अलावा क्या हो सकता है?
शक्ति के इस क्षय का प्रभाव केवल इस स्थूल शरीर पर ही नही पड़ता बल्कि मन व बुद्धि भी इससे अशांत व चंचल हो जाते है। पश्चिमी देशो की बीस प्रतिशत जनता आज भी इसी कारण से अर्द्ध विक्षिप्त अवस्था में जीवन व्यतीत कर रही है। वे शांति के लिए अथवा शांति की खोज हेतु भारतीय संस्कृति की झलक पाने के लिए लालायित है।क्योंकि उन्हें इस बात का बोध नही है कि भारतवासी तो स्वयम् ही उनकी सभ्यता के दास बनकर तेजी से उन्ही के पीछे दौड़े चले आ रहे है। इसी पिछलग्गू प्रवृत्ति के कारण भारत में भी अर्द्ध विक्षिप्त लोगो की संख्या तेजी से बढ़ रही है। हत्याएँ, आत्म-हत्याएँ व अन्य सामाजिक अपराध , बलात्कार आदि इसी मानसिक व बौद्धिक खोखलेपन से उत्पन्न बीमारियां है; जिनका उपचार या दंड कानून विधान से नही हो सकता है।
आज संसार के औसत मनुष्य के मस्तिष्क का केवल एक प्रतिशत भाग सक्रिय है। विकसिततम मस्तिष्क वाले व्यक्ति का मस्तिष्क का केवल दस प्रतिशत भाग सक्रिय रूप से काम करता है। शेष नब्बे प्रतिशत भाग जिसको मनोविज्ञान की भाषा में डार्क इरीना अर्थात अंधकारमय भाग कहा जाता है, निष्क्रिय पड़ा है। आखिर हमारे मस्तिष्क का इतना बड़ा भाग निष्क्रिय क्यों है व् क्या इस निष्क्रियता को आधुनिक शिक्षा व् उनका विज्ञान तोड़ने में समर्थ हो सकता है?
रामकृष्ण परमहंस व कबीर जैसे संत पूरी तरह से अशिक्षित थे। फिर उन्होंने इतना ज्ञान कहाँ से व कैसे अर्जित किया कि लोग आज उनके वचनो को सुनने व उन पर आचरण करने में अपना अहोभाग्य समझते है। भारतीय ज्ञान विज्ञान की उपेक्षा कर पाश्चात्य अविकसित विज्ञान को महत्त्व देने के कारण ही हमारे सामने अनेक प्रकार की उलझनें पैदा हुई है जिनका हमको कोई हल नजर नही आता। भारतीय विज्ञान कहता है कि 35 रोज तक ब्रह्मचर्य का पालन करने पर वीर्य से सूक्ष्म तत्त्व "ओज" की उत्पत्ति होती है। ओज से "धैर्य" व धैर्य से "तेज" की उत्पत्ति होती है। यही तेज मस्तिष्क के तथाकथित अंधकारमय भाग (डार्क एरिना) को प्रकाशित कर व्यक्ति के मस्तिष्क को विज्ञानमय अंश में प्रवेश कराता है। इसके अलावा वीर्य का शेष स्थूल अंश है, वह शरीर में स्निग्घता व बल प्रदान करता है जिससे शरीर के बाहर से प्रवेश करने वाले विजातीय तत्त्वों से लड़ने की शक्ति प्राप्त होती है। इस वैज्ञानिक तथ्य की अवहेलना करने के कारण ही आज हमारे शरीर मन व बुद्धि खोखले व अशांत हो गए है।
जब से रेडियो, टेलीविजन व अन्य प्रचार माध्यमो से परिवार नियोजन का असभ्य प्रचार आरम्भ हुआ है तब से लोगों की बुद्धि और भी कुंठित हो गई व ब्रह्मचर्य का महत्त्व ही जीवन में समाप्त हो गया है। परिवार नियोजन के लिए यदि ये पाश्चात्य निष्कृष्ट साधन अपनाए जाते रहे तो वह दिन दूर नही जब लोग समय से पूर्व वृद्ध व शक्तिहीन होकर अपने जीवन का आखिरी भाग असाध्य रोगों को झेलते हुए व्यतीत करेंगे।
भीष्म पितामह ने कहा है कि भोग से वासना को तृप्त नही किया जा सकता। जैसे लकड़ी जलाकर उसकी जलने की प्रवृत्ति को समाप्त नही किया जा सकता है, उसी प्रकार यदि भोग वासना को तृप्त करने की चेष्टा की गई तो यह वासना ही मनुष्य का अंत कर देगी। वास्तविकता तो यह है कि ब्रह्मचर्य के पालन से वासना पर विजय पा सकते है।
ब्रह्मचर्य का पालन कोई दीठ क्रिया नही है। हठपूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन सम्भव नही है। ब्रह्मचर्य एक उच्चकोटि का सज्ञान कर्म है। वीर्य का केंद्र हृदय में स्थित है । प्राकृतिक दृश्यों के निरीक्षण, विशाल चीजो के अवलोकन, सद् साहित्य के अध्ययन, सुसंस्कृत लोगो की संगति व मन्त्र जप के द्वारा इस वीर्य की गति को उर्ध्वगामी बनाया जा सकता है। उपर्युक्त कार्यो के करने से हृदय स्थित वीर्य मनोवहा नाड़ी के द्वारा दोनों भौहों के बीस ललाट पर जाकर स्थित हो जाता है। तब व्यक्ति में कामवासना उत्पन्न नही होती व ब्रह्मचर्य के पालन की शक्ति स्वतः ही उत्पन्न हो जाती है। जब व्यक्ति मनुष्य निर्मित भोग विलास की वस्तुओ के अधिक समीप रहता है, उत्तेजना प्रदान करने वाले घटिया साहित्य को पढता है, बुरे लोगो की संगति करता है व भगवत् आराधना से दूर रहता है तब वीर्य की गति अधोमुखी होकर कामवासना को जागृत करती है। इससे स्पष्ट है कि केवल अच्छी संगति व अच्छे विचारो के बल पर ही ब्रह्मचर्य का पालन किया जा सकता है।
क्षत्रियों के लिए सबसे आवश्यक व प्रभावशाली गुण तेज है। जिसकी उत्पत्ति के लिए हमने देखा कि ब्रह्मचर्य का पालन अति आवश्यक है। हम यह भी देख चुके है कि क्षत्राणियों का कर्त्तव्य क्षत्रियों की रक्षा करना है। अतः ब्रह्मचर्य के पालन में सहयोग देकर ही वे क्षत्रियों की रक्षा कर सकती है। यदि वे भोग विलास की ओर प्रवृत्त रही तो उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि भोगों के कारण खोखला हुआ "तेज विहीन" व्यक्ति कभी भी क्षत्रियों के उत्तरदायित्वों का पालन नही कर सकेगा। इसलिए पत्नी को चाहिए कि वह ब्रह्मचर्य का पालन कर माता जिस प्रकार अपने पुत्र की रक्षा करती है उसी प्रकार वह अपने पति की रक्षा करे। कैकेयी ने जब श्री राम जी के लिए दशरथ जी से 14 वर्ष का वनवास माँगा तो दशरथ व्याकुल होकर विलाप करने लगे। उन्होंने कहा कि "मैं कौशल्या को कैसे मुख दिखाऊंगा? उसने मेरा माता की तरह पालन किया है।" क्षत्राणियां कभी भी भोग की ओर उन्मुख नही रही इसीलिए उनके त्याग के कीर्तिमान क्षत्रियों से भी ऊँचे रहे है। पार्वतीजी जब भगवान शंकर जी को पति के रूप में प्राप्त करने के लिए भीषण तपस्या कर रही थी, तब नारदजी ऋषियों को साथ लेकर पार्वतीजी को समझाने गये व कहने लगे- "शंकर तो एक सन्यासी है, जो हमेशा तपस्या में लीन रहते है, ऐसे पति प्राप्त करके तुम क्या करोगी ?" तब पार्वतीजी ने कहा - "क्या तुम लोगो ने भोग को ही विवाह का हेतु समझा है।" तब ऋषियो के पास इसका कोई जवाब नही था, इसलिए वे निरुत्तर होकर लौट गये व अंततोगत्वा पार्वतीजी ने भगवान शंकर को पति के रूप में प्राप्त किया।
उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि ब्रह्मचर्य का पालन स्वस्थ शरीर व सुखी जीवन के लिए अनिवार्यता है। इसलिए क्षत्राणियों को इस ओर विशेष ध्यान देना चाहिए व इसमें सफलता अर्जित करने के लिए मन्त्र जप के अलावा, अच्छे साहित्यों के अध्ययन, अच्छी संगति व निरंतर कार्य में लगे रहने की प्रवृत्ति को बल देना चाहिए। यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि 35 दिन से कम के ब्रह्मचर्य का नगण्य महत्त्व है। हमारी परम्परा के अनुसार बैसाख व कार्तिक इन दो महीनो में दान पूण्य की परम्परा तो अब भी कुछ हद तक चल रही है, लेकिन ब्रह्मचर्य का पालन करने की बात प्रायः लोग भूल चुके है। बैसाख मास से मतलब है सौर बैसाख मास अर्थात 14 अप्रैल से 16 मई तक । इस अवधि में सूर्य उच्च का रहता है। दान, पूण्य व भगवत् आराधना करने से पुरुषार्थ व ऐश्वर्य की वृद्धि होती है। लेकिन यदि इस अवधि में कोई महिला गर्भ धारण कर है तो उसके मुर्ख व कुलघाती संतान पैदा होती है। इसी प्रकार कार्तिक मास में (13 अक्टूबर से 17 नवम्बर तक) सूर्य निचराशि में रहता है, अतः इस अवधि में भगवान शंकर की आराधना व दान पूण्य करने से रोग व विघ्न बाधाओ से मुक्ति मिलती है। किन्तु यदि इस अवधि में कोई महिला गर्भ धारण करती है तो उसके स्वार्थी व नीच प्रवृत्ति की संतान पैदा होती है। इसलिए प्रत्येक क्षत्राणी को चाहिए कि वह बैसाख व कार्तिक , कम से कम इन दो माह में पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करे व इसप्रकार अपने वंश में निकृष्ट संतानो को पैदा होने से रोके। ब्रह्मचर्य का पालन करने से व्यक्ति में निस्वार्थ सेवा व संतोष की भावना पैदा होती है। इस भावना के अभाव में ही आज घरो में तथा समुदायो में जगह जगह विग्रह दृष्टिगोचर हो रहा है। अतः स्वयम् के स्वास्थ्य की रक्षा, मन-बुद्धि के विकास, परिवारो में समन्वय व सवोपरि आत्म-संतोष के लिए ब्रह्मचर्य का पालन अति आवश्यक है। इसलिए पाश्चात्य सभ्यता सइ प्रेरित प्रचार माध्यमो द्वारा फैलाए गए ब्रह्मचर्य विरोधी दुष्प्रचार से बचे रहकर परिवार में ब्रह्मचर्य के पालन को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है।
(5) अनुकुलता - आजकल लोग स्त्रियों को पुरुषों के बराबर दर्जा देने की मांग कर रहे है, लेकिन इस देश में हमेशा से स्त्रियों का दर्जा पुरुषों से अधिक मत्त्वपूर्ण रहा है। क्षत्रिय हमेशा से शक्ति रूपा स्त्री अर्थात् योगमाया (जिसका अपभ्रंश होकर जोगमाया हो गया) के उपासक रहे है। शक्ति का उपासक कभी न तो स्त्री के लिए अनादर का और न उपेक्षा का भाव रख सकता है। चाहे रण क्षेत्र में जाना हो अथवा अन्य किसी शुभ कार्य के लिए, माता सइ आशीर्वाद, पत्नी से शुभकामना व पुत्रियों से स्नेह युक्त शुभ वचनों को ग्रहण कर जाने की हमारी परम्परा रही है।
स्त्रियों में एक विलक्षण शक्ति है समन्वय की। इसी शक्ति के सहारे वे हर परिस्थिति को अपने अनुकूल बना लेती है। अनुकूलता में प्रवृत्ति व प्रतिकूलता से निवृत्ति यह भक्ति मार्ग का सिद्धांत है। अनुकूलता की अद्भुत शक्ति के कारण ही क्षत्राणियों ने हमेशा भक्ति मार्ग का आश्रय लिया जबकि क्षत्रिय कर्मयोग के उपासक रहे है। कर्मयोग भी अत्यंत सुगम मार्ग है लेकिन इसमें कठोरता व दृढ़ता की अधिक आवश्यकता रहती है। अतः यह स्त्रियों की प्रकृति के अनुकूल नही पड़ता। भक्ति मार्ग में स्नेह व समर्पण ही मुख्य आधार होते है जो स्त्रियों की प्रवृत्ति के अत्यधिक अनुकूल होते है, इसलिए स्त्रियों ने यदि समर्पण के द्वारा शक्ति अर्जित करने का अपने लिए अनुकूल मार्ग अपनाया है तो इसे किसी भी प्रकार से पराश्रितता नही कहा जा सकता।
स्त्रियों के लिए यह मार्ग शास्त्र द्वारा प्रतिपादित व इतिहास द्वारा समर्थित मार्ग है जो यथार्थ की कसौटी पर खरा उतरा है। विवाह के समय पति अपने संकल्प को पत्नी के हृदय में स्थापित कर, मन-बुद्धि से उसके अनुकूल रहने की कामना करता है। इसी कामना को पूर्ण करने वाली व इसके लिए हमेशा प्रयत्नशील रहने वाली पत्नी ही वास्तव में पत्नी है।
एक आख्यान है कि एक रोज नारदजी पार्वतीजी के पास गये और कहने लगे "क्या आपने कभी भगवान शंकर से यह पूछा है कि उन्होंने जो मुंडो की माला गले में धारण कर रखी है वो मस्तक किसके है ? क्या आपने यह भी पूछा है कि वे हमेशा समाधिस्थ रहकर किस मन्त्र का जप करते है?" पार्वतीजी के इंकार करने पर नारदजी ने उनको यह प्रश्न शिव जी पूछने की सलाह दी। एक रोज भगवान् शंकर को प्रसन्न मुद्रा में देखकर पार्वतीजी ने पूछा - "आपके गले में शोभायमान इस मुंडो की माला में किसके सिर है ?" भगवान् शंकर ने उत्तर दिया -"ये सब तुम्हारे ही है।" इस पर आश्चर्यचकित होने पर शंकर ने कहा "जितने ये मुंड है, तुम पहले इतने जन्म ले चुकी हो। उन जन्मों में तुम मेरी ही पत्नी थी । लेकिन तुम पूरी तरह मेरे अनुकूल नही बन सकी इसलिए तुम्हे मृत्यु का मुख देखना पड़ा। तुम्हारे उन जन्मों की स्मृति में ही मैने यह मुण्ड माला धारण कर रखी है।" तब पार्वती ने दूसरा प्रश्न पूछा - "आप निरंतर किस मन्त्र का जाप करते रहते है।" शंकर भगवान का उत्तर था- "पति को यह अधिकार है कि वह पत्नी को मन्त्र-दीक्षा दे सकता है, लेकिन जब तक पत्नी मन, बुद्धि व आचरण से पूरी तरह अनुकूल नही हो तब तक उसे मन्त्र दीक्षा नही देनी चाहिए। इसीलिए मैंने तुम्हे पिछले जन्मों में मन्त्र-दीक्षा नही दी। अब इस जन्म में तुम पूरी तरह मेरे अनुकूल हो, इसलिए मैं तुम्हे मन्त्र दीक्षा देता हूँ।" मैं "राम" नाम का जप करता हूँ, तुम्हे भी इस मन्त्र का जप करना चाहिए। इससे इससे अब तुम्हारी कभी मृत्यु नही होगी।" इस आख्यान से स्पष्ट है कि पति की अनुकूलता अर्जित करना स्त्री के स्वयम् के कल्याण के लिए आवश्यक है व यह मार्ग उसके लिए सबसे सुगम भी है।
एक कवी ने कहा है-
स्त्रियों में एक विलक्षण शक्ति है समन्वय की। इसी शक्ति के सहारे वे हर परिस्थिति को अपने अनुकूल बना लेती है। अनुकूलता में प्रवृत्ति व प्रतिकूलता से निवृत्ति यह भक्ति मार्ग का सिद्धांत है। अनुकूलता की अद्भुत शक्ति के कारण ही क्षत्राणियों ने हमेशा भक्ति मार्ग का आश्रय लिया जबकि क्षत्रिय कर्मयोग के उपासक रहे है। कर्मयोग भी अत्यंत सुगम मार्ग है लेकिन इसमें कठोरता व दृढ़ता की अधिक आवश्यकता रहती है। अतः यह स्त्रियों की प्रकृति के अनुकूल नही पड़ता। भक्ति मार्ग में स्नेह व समर्पण ही मुख्य आधार होते है जो स्त्रियों की प्रवृत्ति के अत्यधिक अनुकूल होते है, इसलिए स्त्रियों ने यदि समर्पण के द्वारा शक्ति अर्जित करने का अपने लिए अनुकूल मार्ग अपनाया है तो इसे किसी भी प्रकार से पराश्रितता नही कहा जा सकता।
स्त्रियों के लिए यह मार्ग शास्त्र द्वारा प्रतिपादित व इतिहास द्वारा समर्थित मार्ग है जो यथार्थ की कसौटी पर खरा उतरा है। विवाह के समय पति अपने संकल्प को पत्नी के हृदय में स्थापित कर, मन-बुद्धि से उसके अनुकूल रहने की कामना करता है। इसी कामना को पूर्ण करने वाली व इसके लिए हमेशा प्रयत्नशील रहने वाली पत्नी ही वास्तव में पत्नी है।
एक आख्यान है कि एक रोज नारदजी पार्वतीजी के पास गये और कहने लगे "क्या आपने कभी भगवान शंकर से यह पूछा है कि उन्होंने जो मुंडो की माला गले में धारण कर रखी है वो मस्तक किसके है ? क्या आपने यह भी पूछा है कि वे हमेशा समाधिस्थ रहकर किस मन्त्र का जप करते है?" पार्वतीजी के इंकार करने पर नारदजी ने उनको यह प्रश्न शिव जी पूछने की सलाह दी। एक रोज भगवान् शंकर को प्रसन्न मुद्रा में देखकर पार्वतीजी ने पूछा - "आपके गले में शोभायमान इस मुंडो की माला में किसके सिर है ?" भगवान् शंकर ने उत्तर दिया -"ये सब तुम्हारे ही है।" इस पर आश्चर्यचकित होने पर शंकर ने कहा "जितने ये मुंड है, तुम पहले इतने जन्म ले चुकी हो। उन जन्मों में तुम मेरी ही पत्नी थी । लेकिन तुम पूरी तरह मेरे अनुकूल नही बन सकी इसलिए तुम्हे मृत्यु का मुख देखना पड़ा। तुम्हारे उन जन्मों की स्मृति में ही मैने यह मुण्ड माला धारण कर रखी है।" तब पार्वती ने दूसरा प्रश्न पूछा - "आप निरंतर किस मन्त्र का जाप करते रहते है।" शंकर भगवान का उत्तर था- "पति को यह अधिकार है कि वह पत्नी को मन्त्र-दीक्षा दे सकता है, लेकिन जब तक पत्नी मन, बुद्धि व आचरण से पूरी तरह अनुकूल नही हो तब तक उसे मन्त्र दीक्षा नही देनी चाहिए। इसीलिए मैंने तुम्हे पिछले जन्मों में मन्त्र-दीक्षा नही दी। अब इस जन्म में तुम पूरी तरह मेरे अनुकूल हो, इसलिए मैं तुम्हे मन्त्र दीक्षा देता हूँ।" मैं "राम" नाम का जप करता हूँ, तुम्हे भी इस मन्त्र का जप करना चाहिए। इससे इससे अब तुम्हारी कभी मृत्यु नही होगी।" इस आख्यान से स्पष्ट है कि पति की अनुकूलता अर्जित करना स्त्री के स्वयम् के कल्याण के लिए आवश्यक है व यह मार्ग उसके लिए सबसे सुगम भी है।
एक कवी ने कहा है-
"सुख देवे सोई सगो, हाड न सगो होय।
माँ रोवे, महली जळे, यही अचम्भो मोय॥
इन पँक्तियों का आशय है कि पुत्र की मृत्यु पर उसके हाड-मांस की निर्माता माता तो केवल रो कर रह जाती है जबकि उसकी पत्नी उसके साथ जलकर प्राण त्याग देती है-सती हो जाती है।
इस दोहे का मर्म महत्त्वपूर्ण है। माता का स्नेह निष्कलंक स्नेह है। पत्नी का स्नेह उससे बढ़कर नही हो सकता । लेकिन माता के पास अनुकूलता का संकल्प नही है; जब कि पत्नी अनुकूलता के संकल्प से बँधी है, जिसने उसको पूर्ण संकल्प तक पहुँचा कर ऐसी विलक्षण शक्ति प्रदान की है, जिससे दो प्राणों का ऐसा मिलन संभव हुआ, जो कभी पृथक नही हो सकते। इसी शक्ति ने पत्नी को अपने आपको अग्नि को समर्पित करने की शक्ति प्रदान की है। क्षत्राणियों द्वारा किए जाने वाले जौहर समर्पण की शक्ति के अद्भुत प्रतीक है। जिसका उदाहरण संसार के इतिहास में अन्यत्र कहीं नही मिलता।
पत्नी को चाहिए कि वह पति के संकल्पों को ठीक तरह से समझे तथा उन्हें हृदयंगम करे। उनमे अपनी कर्त्तव्य बुद्धि को स्थिर करे व उसके बाद उसके हर मनोभाव व मन्तव्य को बिना पूछे भाँपने की शक्ति पैदा करे। ऐसा होने पर घर में भेद व् विभेद की बुद्धि समाप्त हो जाएगी तथा धीरे-धीरे पति-पत्नी में ऐसी अनुकूलता पैदा होगी, जिससे सम्पूर्ण संसार का एक आनंददायक स्थल व अनुपम क्रीड़ा-स्थली बन जाएगी। विषाद, उत्पात व कलह घर में प्रवेश नही कर सकेंगे।
आजकल स्त्रियों में यह प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है कि पति को किस तरह से वश करे? वे इसके लिए निकृष्ट साधनो का प्रयोग करने में भी नही चुकती। महाभारत में एक आख्यान है कि एक बार श्री कृष्णा की पत्नी सत्यभामा ने द्रोपदी से प्रश्न किया - "बहिन ! तुम्हारे पति पांडव लोग लोकपालों के समान शुरवीर व सुदृढ़ शरीर वाले है, तुम उनके साथ किस प्रकार का बर्ताव करती हो, जिससे कि वे तुम पर कभी कुपित नही होते। पांचाली तुम मुझे भी कोई ऐसा व्रत, तप, होम, जड़ी-बूटी, स्नान, मन्त्र, ओषधि, विद्या, जप और यौवन का प्रभाव बताओ, जो यश व सौभाग्य की वृद्धि करने वाला हो और जिससे सर्वदा ही श्यामसुन्दर मेरे अधीन रहे।" इस पर द्रोपदी ने उनसे कहा - "सत्ये ! तुम तो मुझसे दुराचारिणी स्त्रियों के आचरण की बात पूछ रही हो। भला उन दुचित आचरण वाली स्त्रियों के आचरण की बात मैं कैसे कहूँ ? उनके विषय में तो तुम्हारा प्रश्न या शक करना भी उचित नही है । क्योकि तुम बुद्धिमती और श्री कृष्ण की पट्टमहिषी हो। जब पति को यह मालूम हो जाता है कि गृहदेवी उसे काबू में करने के लिए किसी मन्त्र, तंत्र का प्रयोग कर रही है तो वह उससे उसी प्रकार दूर रहने लगता है, जैसे घर में घुसे हुए सांप से।
इस प्रकार जब चित्त में उद्वेग हो जाता है तो शांति कैसे रह सकती है ? और जो शांत नही है, उसे सुख कैसे मिल सकता है ? अतः मन्त्र-तंत्र से कभी भी पति अपनी पत्नी के वश में नही हो सकता। इसके विपरीत इससे कई प्रकार के अनर्थ हो जाते है, तथा धूर्त लोग जंत्र-मन्त्र के बहाने ऐसी चीजे दे देते है, जिनसे भयंकर रोग पैदा हो जाते है, तथा पति के शत्रु विष तक दे डालते है। ऐसी स्त्रियाँ अपने पतियों को तरह तरह के रोगों का शिकार बना लेती है। वे उनकी कुमति से जलोदर, कोढ़, बुढ़ापे, नपुंसकता, जड़ता और बधिरता आदि के पंजो में पड़ चुके होते है। इस प्रकार पापियों की बातें मानने वाली ये पापिनी अपने पतियो को तंग कर डालती है। अतः स्त्री को कभी भी किसी प्रकार अपने पति का अप्रिय नही करना चाहिए।"
हमारी संस्कृति में उस पत्नी को पत्नी स्वीकार ही नही किया जाता जो पति के अनुकूल न हो। भगवान् राम के साथ सीता की पूजा होती है क्योंकि वे राम के पूर्ण रूप से अनुकूल थी, वास्तविक पत्नी थी। भगवान् राम जब वन गमन के लिए तैयार हुए तो उन्होंने सीता जी को साथ नही चलने के लिए कई बार समझाया । उस समय सीताजी ने कहा था - "आर्यपुत्र ! पिता, माता, भाई, पुत्र और पुत्रवधु ये सब पुण्यादि कर्मो का फल भोगते हुए अपने-अपने भाग्य के अनुसार जीवन निर्वाह करते है। पुरुष प्रवर ! केवल पत्नी ही अपने पति के भाग्य का अनुसरण करती है, अतः आपके साथ ही मुझे भी वन में रहने की आज्ञा मिल गई है ।"
इस पर भगवान श्रीराम ने कहा -
"मिथिलेश कुमारी ! जब तुम मेरे साथ वन में रहने के लिए ही उत्पन्न हुई हो तो मैं तुम्हे छोड़ नही सकता, ठीक उसी तरह जैसे आत्मज्ञानी पुरुष अपनी स्वाभाविक प्रसन्नता का त्याग नही कर सकते।" उपर्युक्त अंश सीताजी की राम जी के प्रति पूर्ण अनुकूलता को दर्शाते है।
भगवान शंकर के साथ भी सती की पूजा न होकर पार्वती की ही पूजा होती है क्योकि पूर्ण अनुकूलता पार्वतीजी ने ही प्राप्त की थी। कृष्ण के साथ उनकी पटरानी सत्यभामा की कैसी अनुकूलता थी, ये हम ऊपर की पंक्तियों में देख चुके है। इसीलिए कृष्ण के साथ उनकी पत्नी की पूजा नही होती बल्कि उनकी एक भक्त "राधा" जिसने कृष्ण के प्रति पूर्ण अनुकूलता प्राप्त कर ली थी, कृष्ण के साथ पूजी जाती है।
अनुकूलता स्त्री का गुण है, उसका आभूषण है, उसी से यह पूज्य बनती है व इस अनुकूलता का परित्याग करने वह संसार में हेय समझी जाती है। अतः पाश्चात्य सभ्यता व शिक्षा - जो भारतीय जीवन पर बुरी तरह छा गई है, के प्रभाव से मुक्त रहकर क्षत्राणियों को अनुकूलता उपार्जित करने की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए
माँ रोवे, महली जळे, यही अचम्भो मोय॥
इन पँक्तियों का आशय है कि पुत्र की मृत्यु पर उसके हाड-मांस की निर्माता माता तो केवल रो कर रह जाती है जबकि उसकी पत्नी उसके साथ जलकर प्राण त्याग देती है-सती हो जाती है।
इस दोहे का मर्म महत्त्वपूर्ण है। माता का स्नेह निष्कलंक स्नेह है। पत्नी का स्नेह उससे बढ़कर नही हो सकता । लेकिन माता के पास अनुकूलता का संकल्प नही है; जब कि पत्नी अनुकूलता के संकल्प से बँधी है, जिसने उसको पूर्ण संकल्प तक पहुँचा कर ऐसी विलक्षण शक्ति प्रदान की है, जिससे दो प्राणों का ऐसा मिलन संभव हुआ, जो कभी पृथक नही हो सकते। इसी शक्ति ने पत्नी को अपने आपको अग्नि को समर्पित करने की शक्ति प्रदान की है। क्षत्राणियों द्वारा किए जाने वाले जौहर समर्पण की शक्ति के अद्भुत प्रतीक है। जिसका उदाहरण संसार के इतिहास में अन्यत्र कहीं नही मिलता।
पत्नी को चाहिए कि वह पति के संकल्पों को ठीक तरह से समझे तथा उन्हें हृदयंगम करे। उनमे अपनी कर्त्तव्य बुद्धि को स्थिर करे व उसके बाद उसके हर मनोभाव व मन्तव्य को बिना पूछे भाँपने की शक्ति पैदा करे। ऐसा होने पर घर में भेद व् विभेद की बुद्धि समाप्त हो जाएगी तथा धीरे-धीरे पति-पत्नी में ऐसी अनुकूलता पैदा होगी, जिससे सम्पूर्ण संसार का एक आनंददायक स्थल व अनुपम क्रीड़ा-स्थली बन जाएगी। विषाद, उत्पात व कलह घर में प्रवेश नही कर सकेंगे।
आजकल स्त्रियों में यह प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है कि पति को किस तरह से वश करे? वे इसके लिए निकृष्ट साधनो का प्रयोग करने में भी नही चुकती। महाभारत में एक आख्यान है कि एक बार श्री कृष्णा की पत्नी सत्यभामा ने द्रोपदी से प्रश्न किया - "बहिन ! तुम्हारे पति पांडव लोग लोकपालों के समान शुरवीर व सुदृढ़ शरीर वाले है, तुम उनके साथ किस प्रकार का बर्ताव करती हो, जिससे कि वे तुम पर कभी कुपित नही होते। पांचाली तुम मुझे भी कोई ऐसा व्रत, तप, होम, जड़ी-बूटी, स्नान, मन्त्र, ओषधि, विद्या, जप और यौवन का प्रभाव बताओ, जो यश व सौभाग्य की वृद्धि करने वाला हो और जिससे सर्वदा ही श्यामसुन्दर मेरे अधीन रहे।" इस पर द्रोपदी ने उनसे कहा - "सत्ये ! तुम तो मुझसे दुराचारिणी स्त्रियों के आचरण की बात पूछ रही हो। भला उन दुचित आचरण वाली स्त्रियों के आचरण की बात मैं कैसे कहूँ ? उनके विषय में तो तुम्हारा प्रश्न या शक करना भी उचित नही है । क्योकि तुम बुद्धिमती और श्री कृष्ण की पट्टमहिषी हो। जब पति को यह मालूम हो जाता है कि गृहदेवी उसे काबू में करने के लिए किसी मन्त्र, तंत्र का प्रयोग कर रही है तो वह उससे उसी प्रकार दूर रहने लगता है, जैसे घर में घुसे हुए सांप से।
इस प्रकार जब चित्त में उद्वेग हो जाता है तो शांति कैसे रह सकती है ? और जो शांत नही है, उसे सुख कैसे मिल सकता है ? अतः मन्त्र-तंत्र से कभी भी पति अपनी पत्नी के वश में नही हो सकता। इसके विपरीत इससे कई प्रकार के अनर्थ हो जाते है, तथा धूर्त लोग जंत्र-मन्त्र के बहाने ऐसी चीजे दे देते है, जिनसे भयंकर रोग पैदा हो जाते है, तथा पति के शत्रु विष तक दे डालते है। ऐसी स्त्रियाँ अपने पतियों को तरह तरह के रोगों का शिकार बना लेती है। वे उनकी कुमति से जलोदर, कोढ़, बुढ़ापे, नपुंसकता, जड़ता और बधिरता आदि के पंजो में पड़ चुके होते है। इस प्रकार पापियों की बातें मानने वाली ये पापिनी अपने पतियो को तंग कर डालती है। अतः स्त्री को कभी भी किसी प्रकार अपने पति का अप्रिय नही करना चाहिए।"
हमारी संस्कृति में उस पत्नी को पत्नी स्वीकार ही नही किया जाता जो पति के अनुकूल न हो। भगवान् राम के साथ सीता की पूजा होती है क्योंकि वे राम के पूर्ण रूप से अनुकूल थी, वास्तविक पत्नी थी। भगवान् राम जब वन गमन के लिए तैयार हुए तो उन्होंने सीता जी को साथ नही चलने के लिए कई बार समझाया । उस समय सीताजी ने कहा था - "आर्यपुत्र ! पिता, माता, भाई, पुत्र और पुत्रवधु ये सब पुण्यादि कर्मो का फल भोगते हुए अपने-अपने भाग्य के अनुसार जीवन निर्वाह करते है। पुरुष प्रवर ! केवल पत्नी ही अपने पति के भाग्य का अनुसरण करती है, अतः आपके साथ ही मुझे भी वन में रहने की आज्ञा मिल गई है ।"
इस पर भगवान श्रीराम ने कहा -
"मिथिलेश कुमारी ! जब तुम मेरे साथ वन में रहने के लिए ही उत्पन्न हुई हो तो मैं तुम्हे छोड़ नही सकता, ठीक उसी तरह जैसे आत्मज्ञानी पुरुष अपनी स्वाभाविक प्रसन्नता का त्याग नही कर सकते।" उपर्युक्त अंश सीताजी की राम जी के प्रति पूर्ण अनुकूलता को दर्शाते है।
भगवान शंकर के साथ भी सती की पूजा न होकर पार्वती की ही पूजा होती है क्योकि पूर्ण अनुकूलता पार्वतीजी ने ही प्राप्त की थी। कृष्ण के साथ उनकी पटरानी सत्यभामा की कैसी अनुकूलता थी, ये हम ऊपर की पंक्तियों में देख चुके है। इसीलिए कृष्ण के साथ उनकी पत्नी की पूजा नही होती बल्कि उनकी एक भक्त "राधा" जिसने कृष्ण के प्रति पूर्ण अनुकूलता प्राप्त कर ली थी, कृष्ण के साथ पूजी जाती है।
अनुकूलता स्त्री का गुण है, उसका आभूषण है, उसी से यह पूज्य बनती है व इस अनुकूलता का परित्याग करने वह संसार में हेय समझी जाती है। अतः पाश्चात्य सभ्यता व शिक्षा - जो भारतीय जीवन पर बुरी तरह छा गई है, के प्रभाव से मुक्त रहकर क्षत्राणियों को अनुकूलता उपार्जित करने की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए
(6) परम्पराओं व मर्यादाओं का निर्वाह -शास्त्रों में निहित बहुत सा ज्ञान हमारे दैनिक जीवन का अंग बन गया है। यही कुल निर्वाह अथवा परम्परा के नाम से जाना जाता है। ज्ञान के अभाव में अनेक परम्पराओं को हम अनुपयोगी व् अनावश्यक समझने लगे है। बहुत सारी अत्यंत महत्त्वपूर्ण बाते विस्मृत हो चुकी है। जो परम्पराएं विस्मृत हो गई है, जहाँ उन्हें पुनः स्थापित करने की आवश्यकता है, वहीँ पर मौजूद उत्तम परम्पराओं का निर्वाह कर उन्हें जीवित रखना भी उतना ही मत्त्वपूर्ण है।
(1) परिवार के प्रत्येक सदस्य को चाहे वह अल्पायु का बालक हो अथवा वयोवृद्ध, उसे इस बात का बोध कराया जाना चाहिए कि भगवान नारायण इस सृष्टि के संचालक, शासक व क्षात्र तत्त्व के प्रणेता हैं। सूर्य देव इस दृष्टि से उन्ही के प्रतिनिधि है। अतः उनका पूर्ण सम्मान किया जाना चाहिए। जिसमे तीन बातें प्रमुख है-
(अ) सूर्योदय के समय सूर्य भगवान को नमस्कार करना।
(ब) सूर्य भगवान् की तरफ मुख करके मलमूत्र का त्याग नही करना । बाल्मीकि रामायण व महाभारत दोनों ही महान ग्रंथो में सूर्य भगवान की तरफ मुख करके मलमूत्र के त्याग करने को महान पाप बताया है। हमारे प्राचीन मकानों व किलो में जो शौचालय बने हुए है, उनमे बैठने वाले का मुख हमेशा उत्तर दिशा की ओर रहता है। सूर्य कभी भी उत्तर दिशा में नही जाते। अतः हमारे पूर्वज शौचालय बनाते समय भी इस बात का ध्यान रखते थे कि मलमूत्र का त्याग करते समय सूर्य की तरफ मुख न हो। लेकिन अब न तो भवन निर्माण के समय इन बातों की ओर ध्यान देते है और न ही दैनिक जीवन में इस ओर ध्यान दे रहे है, जिसके परिणामस्वरूप अनजाने में ही महापाप के भागीदार बनते जा रहे है। अतः आज आवश्यकता इस बात की है कि बालक-बालिकाओं को आरम्भ से ही इस विषय का ज्ञान कराया जाए व गलती करने पर उन्हें टोका जाना उचित होगा।
(स) क्षत्रिय हमेशा से मूल प्रकृति के उपासक रहे है। जिसके अनुसार रात्रि में 12 बजे सूर्योदय, व दोपहर 12 बजे सूर्यास्त माना जाता है। हमारी परम्पराओ में किसी व्यक्ति के उठकर जाने के बाद वहां पर झाड़ू लगाना आगुन्तक का अपमान माना जाता है। सूर्यदेव, जिनका रात्रि को 12 बजे आगमन होता है, दोपहर 12 बजे प्रस्थान हो जाता है। सूर्य भगवान् इस लोक में हमारे लिए प्रतिदिन आगमन करने वाले सबसे महत्त्वपूर्ण व आदरणीय अतिथि है। इसलिए उनके प्रस्थान के प्रस्थान अर्थात दोपहर 12 बजे पश्चात् अपने घरो में झाड़ू लगाना वर्जित था। मूल तत्त्व के ज्ञान के अभाव में अब यह परम्परा लुप्त प्रायः हो गई है। अतः इस ओर ध्यान देना चाहिए।
(2) प्राचीनकाल से हमारी यह परम्परा रही है कि सूर्य भगवान के भोग लग जाने व उनके प्रस्थान करने के बाद ही घर के लोग भोजन करते थे। श्रमजीवी व बालको के लिए दोपहर 12 बजे से पूर्व भोजन करना आवश्यक समझा जाने पर उनके लिए रात्रि में बनाया हुआ ठण्डा भोजन करने की अनुमति थी। धीरे-धीरे यह परम्परा भी लुप्त हो रही है, क्योंकि हम इसका महत्त्व ही नही समझते। अब तो यहाँ तक होने लगा है कि श्राद्ध भी लोग 12 बजे से पहले निकालने लगे है। हमारे पूर्वज जो पितृलोक में है, के निमित्त श्राद्ध कर्म किया जाता है। मनुस्मृति में उल्लेख है कि श्राद्ध कर्म पूर्ण विधान के अनुसार करना चाहिए अन्यथा यह मात्र धन की बर्बादी करना होगा। जब पितर लोक के निवासी 12 बजे दोपहर से पहले भोजन ही नही करते तो हम लोग 12 बजे से पहले श्राद्ध किसके लिए करते है अर्थात यह पैसे की बर्बादी मात्र है। अतः श्राद्ध हमेशा 12 बजे के पश्चात् ही निकालना चाहिए।
(3) जिस प्रकार से खान-पान की मर्यादा भंग हुई है उसी प्रकार से वस्त्राभूषणों की मर्यादाएं भी भंग होती जा रही है। पहले पैरो में स्वर्ण आभूषण केवल राजाओ को ही धारण करने की अनुमति थी। अब अज्ञान के वशीभूत हुए धनवान लोग अपनी पत्नियों को पैरो में स्वर्ण आभूषण पहिनाते है। यह अत्यंत विनाशकारी प्रवृत्ति है।
हमारे शास्त्रों के अनुसार सूर्य भगवान् का रथ सोने का बना हुआ है। अतः भगवान् के चरणों से स्पर्श हुए धातु को सम्मानपूर्वक मस्तक, गले आदि ऊपर के अंगो में धारण करने से भगवान् की कृपा प्राप्त करने की अभिलाषा की जाती है। किन्तु नीचे के अंगो में इस धातु को धारण करना भगवान् का अपमान कहा गया है। शास्त्रों ने राजा को पृथ्वी पर सूर्य का प्रतिनिधि कहा है, इसलिए उनको स्वर्ण का मनचाहा उपयोग करने की अनुमति थी, लेकिन अब अज्ञान के कारण लोग इसे बड़प्पन का प्रतिक समझ कर स्वर्ण आभूषण पहिनने में मर्यादाओं का उल्लंघन कर रहे है, जो उचित नही है।
स्त्रयों के लिए पैरो में चांदी के आभूषण पहिनने की परम्परा थी, जिसका वैज्ञानिक महत्त्व है। एक तो स्त्रियाँ अत्यधिक भावुक होती है व दूसरे वायु विकृति से वे शीघ्र ग्रसित होने वाली प्रकृति की होती है। पैरो में चांदी के आभूषण पहिनने से एक ओर जहाँ वायु विकृति रूकती है वहीँ दूसरी ओर भावुकता कम होती है। अतः पैरो में चाँदी के आभूषण पहिनने की परम्परा को प्रचलित रखना चाहिए।
इसी से मिलती-जुलती एक और परम्परा थी कि कन्या को दहेज़ में कांसी की थाली व काँसी के अन्य पात्र अवश्य दिए जाते थे। इसका भी वैज्ञानिक महत्त्व है। काँसी के पात्र में दूध, दही, छाछ व घी का सेवन करने से मानसिक रोगों व वायु विकृति से मुक्ति मिलती है। आज परिवारो में यह परम्परा लुप्त होती जा रही है जिसे पुनः स्थापित करने की आवश्यकता है।
(1) परिवार के प्रत्येक सदस्य को चाहे वह अल्पायु का बालक हो अथवा वयोवृद्ध, उसे इस बात का बोध कराया जाना चाहिए कि भगवान नारायण इस सृष्टि के संचालक, शासक व क्षात्र तत्त्व के प्रणेता हैं। सूर्य देव इस दृष्टि से उन्ही के प्रतिनिधि है। अतः उनका पूर्ण सम्मान किया जाना चाहिए। जिसमे तीन बातें प्रमुख है-
(अ) सूर्योदय के समय सूर्य भगवान को नमस्कार करना।
(ब) सूर्य भगवान् की तरफ मुख करके मलमूत्र का त्याग नही करना । बाल्मीकि रामायण व महाभारत दोनों ही महान ग्रंथो में सूर्य भगवान की तरफ मुख करके मलमूत्र के त्याग करने को महान पाप बताया है। हमारे प्राचीन मकानों व किलो में जो शौचालय बने हुए है, उनमे बैठने वाले का मुख हमेशा उत्तर दिशा की ओर रहता है। सूर्य कभी भी उत्तर दिशा में नही जाते। अतः हमारे पूर्वज शौचालय बनाते समय भी इस बात का ध्यान रखते थे कि मलमूत्र का त्याग करते समय सूर्य की तरफ मुख न हो। लेकिन अब न तो भवन निर्माण के समय इन बातों की ओर ध्यान देते है और न ही दैनिक जीवन में इस ओर ध्यान दे रहे है, जिसके परिणामस्वरूप अनजाने में ही महापाप के भागीदार बनते जा रहे है। अतः आज आवश्यकता इस बात की है कि बालक-बालिकाओं को आरम्भ से ही इस विषय का ज्ञान कराया जाए व गलती करने पर उन्हें टोका जाना उचित होगा।
(स) क्षत्रिय हमेशा से मूल प्रकृति के उपासक रहे है। जिसके अनुसार रात्रि में 12 बजे सूर्योदय, व दोपहर 12 बजे सूर्यास्त माना जाता है। हमारी परम्पराओ में किसी व्यक्ति के उठकर जाने के बाद वहां पर झाड़ू लगाना आगुन्तक का अपमान माना जाता है। सूर्यदेव, जिनका रात्रि को 12 बजे आगमन होता है, दोपहर 12 बजे प्रस्थान हो जाता है। सूर्य भगवान् इस लोक में हमारे लिए प्रतिदिन आगमन करने वाले सबसे महत्त्वपूर्ण व आदरणीय अतिथि है। इसलिए उनके प्रस्थान के प्रस्थान अर्थात दोपहर 12 बजे पश्चात् अपने घरो में झाड़ू लगाना वर्जित था। मूल तत्त्व के ज्ञान के अभाव में अब यह परम्परा लुप्त प्रायः हो गई है। अतः इस ओर ध्यान देना चाहिए।
(2) प्राचीनकाल से हमारी यह परम्परा रही है कि सूर्य भगवान के भोग लग जाने व उनके प्रस्थान करने के बाद ही घर के लोग भोजन करते थे। श्रमजीवी व बालको के लिए दोपहर 12 बजे से पूर्व भोजन करना आवश्यक समझा जाने पर उनके लिए रात्रि में बनाया हुआ ठण्डा भोजन करने की अनुमति थी। धीरे-धीरे यह परम्परा भी लुप्त हो रही है, क्योंकि हम इसका महत्त्व ही नही समझते। अब तो यहाँ तक होने लगा है कि श्राद्ध भी लोग 12 बजे से पहले निकालने लगे है। हमारे पूर्वज जो पितृलोक में है, के निमित्त श्राद्ध कर्म किया जाता है। मनुस्मृति में उल्लेख है कि श्राद्ध कर्म पूर्ण विधान के अनुसार करना चाहिए अन्यथा यह मात्र धन की बर्बादी करना होगा। जब पितर लोक के निवासी 12 बजे दोपहर से पहले भोजन ही नही करते तो हम लोग 12 बजे से पहले श्राद्ध किसके लिए करते है अर्थात यह पैसे की बर्बादी मात्र है। अतः श्राद्ध हमेशा 12 बजे के पश्चात् ही निकालना चाहिए।
(3) जिस प्रकार से खान-पान की मर्यादा भंग हुई है उसी प्रकार से वस्त्राभूषणों की मर्यादाएं भी भंग होती जा रही है। पहले पैरो में स्वर्ण आभूषण केवल राजाओ को ही धारण करने की अनुमति थी। अब अज्ञान के वशीभूत हुए धनवान लोग अपनी पत्नियों को पैरो में स्वर्ण आभूषण पहिनाते है। यह अत्यंत विनाशकारी प्रवृत्ति है।
हमारे शास्त्रों के अनुसार सूर्य भगवान् का रथ सोने का बना हुआ है। अतः भगवान् के चरणों से स्पर्श हुए धातु को सम्मानपूर्वक मस्तक, गले आदि ऊपर के अंगो में धारण करने से भगवान् की कृपा प्राप्त करने की अभिलाषा की जाती है। किन्तु नीचे के अंगो में इस धातु को धारण करना भगवान् का अपमान कहा गया है। शास्त्रों ने राजा को पृथ्वी पर सूर्य का प्रतिनिधि कहा है, इसलिए उनको स्वर्ण का मनचाहा उपयोग करने की अनुमति थी, लेकिन अब अज्ञान के कारण लोग इसे बड़प्पन का प्रतिक समझ कर स्वर्ण आभूषण पहिनने में मर्यादाओं का उल्लंघन कर रहे है, जो उचित नही है।
स्त्रयों के लिए पैरो में चांदी के आभूषण पहिनने की परम्परा थी, जिसका वैज्ञानिक महत्त्व है। एक तो स्त्रियाँ अत्यधिक भावुक होती है व दूसरे वायु विकृति से वे शीघ्र ग्रसित होने वाली प्रकृति की होती है। पैरो में चांदी के आभूषण पहिनने से एक ओर जहाँ वायु विकृति रूकती है वहीँ दूसरी ओर भावुकता कम होती है। अतः पैरो में चाँदी के आभूषण पहिनने की परम्परा को प्रचलित रखना चाहिए।
इसी से मिलती-जुलती एक और परम्परा थी कि कन्या को दहेज़ में कांसी की थाली व काँसी के अन्य पात्र अवश्य दिए जाते थे। इसका भी वैज्ञानिक महत्त्व है। काँसी के पात्र में दूध, दही, छाछ व घी का सेवन करने से मानसिक रोगों व वायु विकृति से मुक्ति मिलती है। आज परिवारो में यह परम्परा लुप्त होती जा रही है जिसे पुनः स्थापित करने की आवश्यकता है।
(7) सहयोग व सामूहिक जीवन -पारिवारिक जीवन में सुव्यवस्था व् मितव्ययता के लिए सहयोग व सामूहिक जीवन एक अनिवार्य आवश्यकता है। परिवार के लोगो में सहयोग हो, मात्र इतना ही सहयोग आज के व्यस्त जीवन में पर्याप्त नही है, अपने पड़ोसियों, मित्रो व् समान स्तर के लोगो के साथ वृहत् सहयोग की आवश्यकता है ताकि व्यवसायियों द्वारा किए जाने वाले अनावश्यक शोषण से मुक्ति मिल सके।
इस महँगाई के युग में जहाँ एक ओर महँगाई पारिवारिक बजट को प्रति छः माह बाद असंतुलित कर देती है वहीँ पर मिलावट की वस्तुऍ जो हमारे खानपान व नित्य उपयोग की वस्तुओ में काम आती है। व्यक्ति व परिवारजनो को रोगग्रस्त कर देती है, इस बुराई से मुक्ति के लिए सहकारिता एक अत्यंत उपयोगी समाधान है। शहरों में एक बस्ती के रहने वाले लोग यदि सहयोग से जीना सिख जाए तो तो वे बस्ती की आवश्यकता की वस्तुएं थोक बाजार से खरीदकर उन्हें आपस में वितरित कर मुनाफाखोरों के शोषण से बच सकते है। इसी प्रकार मसले आदि को अपने ही घरो में तैयार कर मिलावट से बचा जा सकता है। दिल्ली की कर्मचारी कालोनियों में दक्षिण भारत के कर्मचारी इस प्रयोग को सफलतापूर्वक चला रहे है। गृहिणियां स्वयम् इकट्ठा माल हर परिवार की आवश्यकता की जानकारी कर तदनुसार थोक बाजार से खरीदती है व बस्ती में जाकर उन्हें आपस में वितरित कर लेती है। यही पद्धति गाँवों में भी सफलतापूर्वक चलाई जा सकती है, जिसका लाभ न केवल हमारे परिवारो को मिलेगा बल्कि दूसरे लोग भी इससे लाभान्वित होंगे व नेतृत्व का एक सुगम अवसर भी प्राप्त होगा।
सहयोगी व सामूहिक जीवन एक कार्यक्रम नही है। यह जीवन पद्धति का एक उपयोगी व सुगम मार्ग है। एक बार यदि महिलाएँ दुसरो के साथ सहयोग करने व अपने लिए सहयोग मांगने की आदत डाल ले तो उन्हें एक तो एकांकी जीवन जीने से मुक्ति मिलेगी व दूसरी ओर वे अपने व्यर्थ जाने वाले समय का सदुपयोग कर अपनी अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने में सफल होंगी। इस कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए आगे आने को सहमत किया जाए।
इस महँगाई के युग में जहाँ एक ओर महँगाई पारिवारिक बजट को प्रति छः माह बाद असंतुलित कर देती है वहीँ पर मिलावट की वस्तुऍ जो हमारे खानपान व नित्य उपयोग की वस्तुओ में काम आती है। व्यक्ति व परिवारजनो को रोगग्रस्त कर देती है, इस बुराई से मुक्ति के लिए सहकारिता एक अत्यंत उपयोगी समाधान है। शहरों में एक बस्ती के रहने वाले लोग यदि सहयोग से जीना सिख जाए तो तो वे बस्ती की आवश्यकता की वस्तुएं थोक बाजार से खरीदकर उन्हें आपस में वितरित कर मुनाफाखोरों के शोषण से बच सकते है। इसी प्रकार मसले आदि को अपने ही घरो में तैयार कर मिलावट से बचा जा सकता है। दिल्ली की कर्मचारी कालोनियों में दक्षिण भारत के कर्मचारी इस प्रयोग को सफलतापूर्वक चला रहे है। गृहिणियां स्वयम् इकट्ठा माल हर परिवार की आवश्यकता की जानकारी कर तदनुसार थोक बाजार से खरीदती है व बस्ती में जाकर उन्हें आपस में वितरित कर लेती है। यही पद्धति गाँवों में भी सफलतापूर्वक चलाई जा सकती है, जिसका लाभ न केवल हमारे परिवारो को मिलेगा बल्कि दूसरे लोग भी इससे लाभान्वित होंगे व नेतृत्व का एक सुगम अवसर भी प्राप्त होगा।
सहयोगी व सामूहिक जीवन एक कार्यक्रम नही है। यह जीवन पद्धति का एक उपयोगी व सुगम मार्ग है। एक बार यदि महिलाएँ दुसरो के साथ सहयोग करने व अपने लिए सहयोग मांगने की आदत डाल ले तो उन्हें एक तो एकांकी जीवन जीने से मुक्ति मिलेगी व दूसरी ओर वे अपने व्यर्थ जाने वाले समय का सदुपयोग कर अपनी अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने में सफल होंगी। इस कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए आगे आने को सहमत किया जाए।
(8) पशुपालन - पशुपालन हमारी प्राचीन परम्परा रही है। विशेष रूप से गौ-पालन को हमारी परम्परा में अत्यधिक महत्व दिया जाता रहा है। परिवार के स्वास्थ्य के लिए उन्हें उपयुक्त भोजन सामग्री मिले यह अति आवश्यक है। आज के वैज्ञानिक जो पहले यह कहते थे कि माँस व अंडे खाने अत्यधिक पौष्टिक पदार्थ है, अब कहने लगे है कि इन पदार्थो द्वारा दी जाने वाली पौष्टिकता पंद्रह दिन से अधिक नही रहती है। जबकि दूध-दही, छाछ व घी से मिलने वाली पौष्टिकता स्थाई होती है। आज शहरों में डेयरी का जो दूध माताएँ बालको को पिलाती है वह अत्यंत रोगकारक व वायुवर्धक होता है। आयुर्वेद का मत है कि दूध पशु के थनो से निकलने के तिन घंटे के बाद वायुवर्धक बनने लगता है। डेयरी से मिलने वाला दूध कम से कम तिन रोज पुराना व अशुद्ध होता है। इसी का परिणाम है कि आज छोटे-छोटे बालक वायु रोग से पीड़ित है, व पोलियो जैसी बीमारियां बालको पर भयानक रूप से आघात करने लगी है।
बालको को शुद्ध व पौष्टिक आहार मिलना चाहिए, क्योंकि यदि बचपन से ही स्वस्थ नही हुए तो उनका सारा जीवन दुखदायी हो जाता है। अनेक बहानों को लेकर आज के पुरुष व स्त्रियां श्रम से बचने के लिए पशुपालन के विरुद्ध अनेक प्रकार के तर्क देते है, लेकिन गहराई से विचार करने पर ये सब तर्क खोखले नजर आते है। दिन प्रतिदिन परिवारो में पशुपालन घटता जा रहा है। इसका मुख्य कारण यही है कि लोग श्रम से जी चुराने लगे है। पशुपालन के लिए महिलाओ व पुरुषो को बराबर श्रम करना होता है। जब तक एक भी पक्ष श्रम से जी चुराएगा, पशुपालन संभव नही है, और जिस घर में पशु नही है उस घर के बालक हमेशा दुर्बल, शक्तिहीन व अस्वस्थ ही पाए जाएंगे।
हमारे यहाँ एक कहावत है कि "दूध बेचे, सो पूत बेचे", पहले लोग दूध इसलिए नही बेचते थे कि यदि दूध बिकने लगा तो परिवार के बच्चों को छाछ भी नहीं मिल पाएगी। आज गाँवों में हम इस परिस्थिति को प्रत्यक्ष देख रहे है। धन के लोभ में जो पशु पालते है वे भी सम्पूर्ण दूध बेचकर अपने ही बालक बालिकाओ का गला काट रहे है। जो माता-पिता अपनी संतानो के लिए और स्वयम् के हितार्थ श्रम नही कर सकते व बालकों को उपयुक्त पौष्टिक आहार नही दे सकते उन लोगो को कभी सुखी जीवन की कल्पना नही करनी चाहिए।
पशुधन से मिलने वाले आहार में छाछ, सबसे उपयोगी खाद्य पदार्थ है। अतः प्रत्येक परिवार में पशुपालन हो व बालको को दूध-दही व छाछ खाद्य पदार्थ के रूप में मिले, यह आज की अनिवार्य आवश्यकता है। यदि हम ऐसा नही कर पाए तो विकृत व कमजोर शरीरों वाली संताने समाज का रक्षण कर क्षात्र धर्म का पालन कर सकेगी यह कल्पना व्यर्थ सिद्ध होगी। पशुपालन के साथ जहाँ पौष्टिक आहार बालको को मिलता है वहीँ पर उनमे बचपन से श्रम करने की आदत भी पैदा होती है। जिन लोगो के घरो में पशु पाले जाते है, उन परिवारो के बालक श्रम से जी नही चुराते। आज इस देश में सबसे बड़ी समस्या यह है कि व्यक्ति बिना श्रम किए अधिकाधिक लाभ प्राप्त करना चाहता है और इसी के परिणामस्वरूप इस देश में धूर्तता व ठगी की मनोवृत्ति बढ़ती जा रही है। यदि अपने बालको को इन दुष्प्रवृत्तियो से बचाना है तो उन्हें श्रमशील बनाना ही होगा व पशुपालन उस प्रवृत्ति को पैदा करने के लिए एक सुगम व उपयोगी साधन है।
हमारे देश में गाय को माता कहा गया है, जो विभिन्न नामो से पूजी जाने वाली यह "गो" क्षत्रियो की कुलदेवी है। इसकी सेवा करने से एक जोर जहाँ परिवार को शुद्ध व पौष्टिक आहार मिलता है, वहीँ दूसरी ओर हमारी आध्यात्मिक शक्ति का विकास होता है व दुष्ट शक्तियो से परिवार की रक्षा होती है। इसलिए प्रत्येक क्षत्रिय परिवार में कम से कम एक गाय का पालन तो होना ही चाहिए। यदि महिलाए इस सुकर्म को करने को संकल्पित हो तो यह सुकर्म निश्चित रूप से प्रत्येक परिवार में हो सकता है।
देश व संसार की बढ़ती हुई आबादी के लिए येन केन प्रकारेण खाद्य सामग्री जुटाने के प्रयोजन से रासायनिक खादों का प्रयोग तेजी से बढ़ रहा है, जो भूमि की स्वाभाविक उर्वरा शक्ति को क्षीण कर रहा है, दूसरी ओर रासायनिक खाद दिन प्रतिदिन महंगे होते जा रहे है व् इनके महँगे होने का क्रम भी रुकने वाला नही है। गाँवों में रहने वाले लोग यदि रासायनिक खादों पर इसी प्रकार आश्रित रहे तो वे अपनी जमीन को बंजर बना लेंगे व अपनी सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था को विखण्डित कर लेंगे। इस त्रासदी से बचने का एक मात्र उपाय यही है कि गाँवों के लोग अधिकाधिक पशु पाले ताकि उनके खेतो को परम्परागत गोबर की खाद मिल सके।
बालको को शुद्ध व पौष्टिक आहार मिलना चाहिए, क्योंकि यदि बचपन से ही स्वस्थ नही हुए तो उनका सारा जीवन दुखदायी हो जाता है। अनेक बहानों को लेकर आज के पुरुष व स्त्रियां श्रम से बचने के लिए पशुपालन के विरुद्ध अनेक प्रकार के तर्क देते है, लेकिन गहराई से विचार करने पर ये सब तर्क खोखले नजर आते है। दिन प्रतिदिन परिवारो में पशुपालन घटता जा रहा है। इसका मुख्य कारण यही है कि लोग श्रम से जी चुराने लगे है। पशुपालन के लिए महिलाओ व पुरुषो को बराबर श्रम करना होता है। जब तक एक भी पक्ष श्रम से जी चुराएगा, पशुपालन संभव नही है, और जिस घर में पशु नही है उस घर के बालक हमेशा दुर्बल, शक्तिहीन व अस्वस्थ ही पाए जाएंगे।
हमारे यहाँ एक कहावत है कि "दूध बेचे, सो पूत बेचे", पहले लोग दूध इसलिए नही बेचते थे कि यदि दूध बिकने लगा तो परिवार के बच्चों को छाछ भी नहीं मिल पाएगी। आज गाँवों में हम इस परिस्थिति को प्रत्यक्ष देख रहे है। धन के लोभ में जो पशु पालते है वे भी सम्पूर्ण दूध बेचकर अपने ही बालक बालिकाओ का गला काट रहे है। जो माता-पिता अपनी संतानो के लिए और स्वयम् के हितार्थ श्रम नही कर सकते व बालकों को उपयुक्त पौष्टिक आहार नही दे सकते उन लोगो को कभी सुखी जीवन की कल्पना नही करनी चाहिए।
पशुधन से मिलने वाले आहार में छाछ, सबसे उपयोगी खाद्य पदार्थ है। अतः प्रत्येक परिवार में पशुपालन हो व बालको को दूध-दही व छाछ खाद्य पदार्थ के रूप में मिले, यह आज की अनिवार्य आवश्यकता है। यदि हम ऐसा नही कर पाए तो विकृत व कमजोर शरीरों वाली संताने समाज का रक्षण कर क्षात्र धर्म का पालन कर सकेगी यह कल्पना व्यर्थ सिद्ध होगी। पशुपालन के साथ जहाँ पौष्टिक आहार बालको को मिलता है वहीँ पर उनमे बचपन से श्रम करने की आदत भी पैदा होती है। जिन लोगो के घरो में पशु पाले जाते है, उन परिवारो के बालक श्रम से जी नही चुराते। आज इस देश में सबसे बड़ी समस्या यह है कि व्यक्ति बिना श्रम किए अधिकाधिक लाभ प्राप्त करना चाहता है और इसी के परिणामस्वरूप इस देश में धूर्तता व ठगी की मनोवृत्ति बढ़ती जा रही है। यदि अपने बालको को इन दुष्प्रवृत्तियो से बचाना है तो उन्हें श्रमशील बनाना ही होगा व पशुपालन उस प्रवृत्ति को पैदा करने के लिए एक सुगम व उपयोगी साधन है।
हमारे देश में गाय को माता कहा गया है, जो विभिन्न नामो से पूजी जाने वाली यह "गो" क्षत्रियो की कुलदेवी है। इसकी सेवा करने से एक जोर जहाँ परिवार को शुद्ध व पौष्टिक आहार मिलता है, वहीँ दूसरी ओर हमारी आध्यात्मिक शक्ति का विकास होता है व दुष्ट शक्तियो से परिवार की रक्षा होती है। इसलिए प्रत्येक क्षत्रिय परिवार में कम से कम एक गाय का पालन तो होना ही चाहिए। यदि महिलाए इस सुकर्म को करने को संकल्पित हो तो यह सुकर्म निश्चित रूप से प्रत्येक परिवार में हो सकता है।
देश व संसार की बढ़ती हुई आबादी के लिए येन केन प्रकारेण खाद्य सामग्री जुटाने के प्रयोजन से रासायनिक खादों का प्रयोग तेजी से बढ़ रहा है, जो भूमि की स्वाभाविक उर्वरा शक्ति को क्षीण कर रहा है, दूसरी ओर रासायनिक खाद दिन प्रतिदिन महंगे होते जा रहे है व् इनके महँगे होने का क्रम भी रुकने वाला नही है। गाँवों में रहने वाले लोग यदि रासायनिक खादों पर इसी प्रकार आश्रित रहे तो वे अपनी जमीन को बंजर बना लेंगे व अपनी सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था को विखण्डित कर लेंगे। इस त्रासदी से बचने का एक मात्र उपाय यही है कि गाँवों के लोग अधिकाधिक पशु पाले ताकि उनके खेतो को परम्परागत गोबर की खाद मिल सके।
(9) अतिथि सत्कार -अतिथियों का सत्कार करना क्षत्रियों की प्राचीन परम्परा रही है, और इस परम्परा को जीवित रखने व दिन-प्रतिदिन बढ़ती रहे इसका सारा बोझ व श्रेय, क्षत्राणियों पर है। एक कहावत है, "घर आये व्यक्ति का जो सत्कार करना जनता है, शत्रु भी उसके मित्र बन जाते है।" घर आये हुए मेहमान अर्थात मित्र या सम्बन्धी का सत्कार करना अतिथि सत्कार नही है, अतिथि सत्कार से तात्पर्य है हर व्यक्ति चाहे वह किसी भी देश, धर्म या जाती का हो, यदि हमारे घर में आता है तो यथासंभव सामर्थ्य के अनुसार उसकी पूरी सेवा की जाए। अतिथि सत्कार का सामाजिक महत्त्व तो है ही, इससे लोगो में प्रतिष्ठा बढ़ती ही है, लेकिन इससे भी बढ़कर इसका आध्यात्मिक महत्त्व है। महाराज रन्तिदेव व् उनकी पत्नी ने 40 दिनों तक उपवास किया व उसके बाद भोजन के लिए खेतों से अन्न बीनकर लाए। उसका भोजन बनाकर जैसे ही भोजन के लिए तैयार हुए तो एक चांडाल ने आकर कहा मैं भूखा हूँ। दोनों पति-पत्नी के लिए जो भोजन बना था उसको खाकर चांडाल तृप्त हो गया। उस चांडाल के साथ एक कुत्ता था, जिसके लिए उसने कहा कि यह प्यासा है। राजा के पास जितना पानी था वह सब कुत्ता पी गया। दो प्राणियो के प्राण, भूख प्यास से तृप्त हुए, जिसका लाभ राजा व उसकी पत्नी को यह मिला कि उनकी भूख व प्यास हमेशा के लिए तृप्त हो गई। यह अतिथि सत्कार की आध्यात्मिक महिमा है। दूसरे के प्राणों को तृप्त करने से स्वयम् का प्राण सर्वशक्तिमान व् बलवान होता है। क्षत्रिय जिनका जन्म भगवान के हृदय से हुआ है के लिए प्राण शक्ति को बलवान बनाना ही सर्वोत्कृष्ट साधना है। अतः गृहिणियों को अतिथि सत्कार की ओर सर्वाधिक ध्यान देना चाहिए। इसमें ही उनके परिवार की समृद्धि निहित है।....Next
नमस्कार ! आपने जो अमृतवाणी क्षत्रिय वनिताओं केलिए लिखी है वह सभी मानव केलिए प्रयोजनकारी है/ धन्यवाद ! मेरे एक क्षत्रिय मित्र को और एक ब्राह्मण गुरुणी को आपका लेख मैं भेज दूंगा ! सादर प्रणाम ! DKM Kartha
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