शुक्रवार

आमुख

संसार के इतिहास में धर्म, संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान तथा चरित्र के निर्माण की दृष्टि से भारत का विशिष्ट स्थान रहा है। आज भी संसार के लोग भारतीय संस्कृति व ज्ञान की झलक पाने के लिए लालायित रहते है। भारतीय ज्ञान-विज्ञान व संस्कृति के गहन अध्ययन व विवेचन के बाद यही निष्कर्ष निकलता है कि भारत में जो कुछ भी श्रेष्ट है वह क्षत्रियो की ही देन है। यदि यह कहा जाए कि भारत में क्षत्रियों ने जो श्रेष्टता अर्जित की, तपस्या, ज्ञान व शौर्य के क्षेत्र में जो सीमा रेखा का अतिक्रमण किया, उन सबका श्रेय क्षत्राणियों को ही मिलना चाहिए, तो अतिशयोक्ति नही होगी।
       यथार्थ में देखा जाए तो क्षत्राणियों का इतिहास व् उनके क्रियाकलाप उतने प्रकाश में नही आए जितने क्षत्रियो के । क्षत्राणियों के इतिहास पर विहंगम दृष्टि डालने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि क्षत्रियों का महान त्याग व तपस्या का इतिहास वास्तव में क्षत्राणियों की देन रहा है।
        राजा हिमवान् की पुत्री "गंगा" ने तपस्या के बल पर भगवान श्रीनारायण के चरणों में स्थान पाया व भागीरथ की तपस्या से वे इस सृष्टि का कल्याण करने के लिए पृथ्वी पर अवतरित हुई। उन्ही की छोटी बहिन "पार्वती" ने अपनी तपस्या के बल पर भगवान् सदाशिव को पति के रूप में प्राप्त किया व दुष्टों का दलन करने वाले स्वामी "कार्तिकेय" व देवताओ में अग्रपूजा के अधिकारी 'गणेश' जैसे पुत्रो की माता बनी। महाराज गाधि की पुत्री व विश्वामित्र जी की बड़ी बहिन "सरस्वती" अपनी तपस्या के बल पर ही जलरूप में प्रवाहित होकर पवित्र सरस्वती नदी का रूप धारण कर स्की। इसी प्रकार नर्मदा नदी भी पूर्वकाल में हुए राजा दुर्योधन(धृतराष्ट्र के पुत्र नही) की ही पत्नी है।
      राजा द्रुपद की सभा में "कुंती के मुख से जो शब्द निकले है वही धर्म है" के निर्णय को कृष्ण व समस्त राजाओ ने स्वीकार किया। ऐसी धर्मज्ञ कुन्ती; "माता ही निर्माता है" इस सिद्धान्त की प्रतिपादक राजा कुवलयाश्व की रानी मदालसा, केवल एक वर्ष तक पति की सेवा कर सत्य के बल पर सत्यवान को धर्मराज से पुनः जीवन दिलाने वाली सावित्री, विपति में पड़े हुए पति को अपने अद्भुत बुद्धि कौशल से खोज लेने वाली राजा नल की पत्नी दमयंती, भयानक विपत्ति में भी राजा हरिश्चन्द्र का साथ नही छोड़ने वाली तारामती, श्री राज्य से विहीन हुए राजा संजय को अपने अधिकारो को प्राप्त करने के लिए प्रेरित करने वाली माता विदुला, पत्नी की महिमा को उजागर करने वाली राजा दुष्यन्त की पत्नी शकुन्तला, पति को मोहपाश के बंधन से मुक्त करने के लिए अपना सिर काटकर देने वाली रानी हाड़ी, ईश्वर को ही अपने आपको समर्पित कर देने वाली मीरां व रूपादे, तथा वर्तमान काल में पति के वियोग के बाद 43 वर्ष तक बिना अन्न-जल ग्रहण किए तपस्या में लीन बाला सती रूपकँवरजी भी क्षत्राणी ही तो थी।
     क्षत्राणियों का कर्तव्य यद्यपि संसार में बुराई के विरुद्ध संघर्ष करने वाले व अच्छाई का रक्षण करने वाले क्षत्रियो का निर्माण करना ही है, तथापि यदि समय ने उन्हें शस्त्र उठाने को मजबूर किया तो भी वे पीछे नही हटीं। ओरिंट(चुरू) के शासक मोहिल माणकराव की पुत्री कोडमदे(कर्मदेवी) पूंगल के राजकुमार साधू की मृत्यु के बाद रणक्षेत्र में ही सती हुई थी।
     आज क्षत्रिय जाती का पतन काल चल रहा है। संसार के इतिहास में क्षत्रियो के समान तेजस्वी व बलवान अनेक देशो में अनेक जातियाँ हुई है, लेकिन वे सब समय के प्रवाह को सहन नही कर सकी व समाप्त हो गईँ, क्षत्रिय जाति का भी करोड़ो नही अरबो वर्ष पुराना इतिहास है।इस जाति ने एक बार नही किन्तु अनेक बार अपना उत्थान व पतन देखा है । गिरने के बाद बार-बार उठने की प्रेरणा जैसे शिशु को उसकी माता से मिलती है,उसी प्रकार क्षत्रियों को पतन के बाद पुनः उत्थान के मार्ग पर अग्रसर होने की प्रेरणा हमेशा क्षत्राणियों से ही मिली है
       क्षत्रियों का पतन कोई चिंता का विषय नही है लेकिन आज हम देख रहे है कि क्षत्राणियाँ भी अपने कर्तव्य से विमुख होने लगी है।यदि समय रहते उन्होंने अपने आपको शिक्षित करने, संभालने व प्रकाश की जोर आगे बढ़ने का प्रयास नही किया तो महान संस्कृति व इसका महान इतिहास सदा सदा के लिए विलुप्त हो सकता है।.....Next

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