क्षत् से अर्थात विनाश से त्राण कराता है, बचाता है, वह क्षत्रिय कहलाता है। शास्त्र द्वारा परिभाषित व इतिहास द्वारा समर्थित रक्षण से तात्पर्य है-विष समाज से अमृत समाज की रक्षा करना। भगवान कृष्ण ने भी अर्जुन को युद्ध क्षेत्र में उपदेश देते हुए कहा था, " मैं साधुओ अर्थात सज्जन पुरुषो यानि अमृत समाज की रक्षा करने व दुष्ट लोगों अर्थात विष समाज का विनाश करने के लिए अवतार लेता हूँ।"
इससे सिद्ध होता है कि क्षत्रिय का जीवन उसके स्वयम् के लिए नही है। वह संसार में अच्छाई को पैदा करने, उसे पालने व उसकी रक्षा करने के लिए तथा बुराई को नष्ट करने के लिए पैदा हुआ है। इसीलिए गीता में जो क्षत्रिय के गुण बताये गये है, शौर्य, तेज, धैर्य, दक्षता, युद्ध से नही भागना, दान देना व ईश्वर भाव ऐसे गुण सम्भव है। लेकिन यदि शक्तिशाली में उदारता नही हुई तो वह शक्ति क्रूरता व बर्बरता में परिवर्तन हो जाएगी।
आज हम देख रहे है कि संसार में शक्ति के बल पर अत्याचार उतने नही हो रहे है जितने बुद्धि व धन-बल पर आश्रित षडयंत्रो के द्वारा हो रहे है। बुद्धि के बल पर अधर्म को धर्म बताकर व आर्थिक शोषण को प्रगति की आवश्यकता बताकर, जिस प्रकार से समस्त संसार को गुमराह किया जा रहा है व जनता का शोषण हो रहा है वह विचारणीय है। ऐसे शोषण संसार में पहले भी अनेक बार हुए होंगे, लेकिन उनको भौतिक शक्ति के आधार पर शायद कभी भी विफल नही किया जा सका होगा। इसीलिए क्षत्रिय के गुणों में तेज व दक्षता जैसे गुणों का समावेश किया गया है, जिनका उपार्जन केवल तपस्या व ब्रह्मचर्य के पालन से ही किया जा सकता है। यह एक ऐसी शक्ति है जो बुद्धिजीवियो द्वारा फैलाए गए मायाजाल को न केवल छिन्न, भिन्न कर सकती है बल्कि इसके माध्यम से लोगो को सदाचार व सदधर्म के मार्ग पर पुनः लौटने के लिए प्रेरित किया जा सकता है।
इस प्रकार क्षत्रिय का धर्म, उसका कर्तव्य, शास्त्रो में पूरी तरह से स्पष्ट रूप से प्रकट किया हुआ है; जिसकी व्याख्या करने में कहीं भी संदेह की कोई सम्भावना नही रहती है। लेकिन जब हम क्षत्राणियों के धर्म की व्याख्या करते है तो कहीं भी इतना स्पष्ट उल्लेख उनके धर्म के विषय में नही मिलता। व्याकरण की दृष्टि से जो अर्थ क्षत्रिय शब्द का है अर्थात क्षय से बचाने वाला, वही अर्थ क्षत्राणी शब्द का है, क्योंकि शब्द में कंही भी कोई परिवर्तन नही हुआ। क्षत्राणी शब्द, मात्र स्त्रीवाचक बन गया है। इससे स्पष्ट है कि क्षत्राणी का धर्म भी विनाश से बचाना ही है।
तब प्रश्न यह उतपन्न होता है कि क्या क्षत्राणियों को भी शस्त्र उठाकर क्षत्रियो की तरह युद्ध में प्रवृत होना चाहिए? क्या उन्हें भी शासन का अधिकार प्राप्त कर विष समाज को दण्डित करने का नैतिक अधिकार प्राप्त करना चाहिए? आदि-आदि।
गंभीरतापूर्वक विचार करने के पश्चात् हमको इस निष्कर्ष पर पंहुचना पड़ेगा कि क्षत्राणियों का दायित्व क्षत्रियों से कई गुना बढ़कर है। क्षत्राणियों का कर्तव्य न केवल क्षत्रियो के कर्तव्य से अधिक महान है, बल्कि अधिक श्रम साध्य भी है व उनके कर्तव्य पालन के लिए कहीँ अधिक विवेक व ज्ञान की भी आवश्यकता है।
शास्त्र ने क्षत्रियो को सम्पूर्ण रूप से समाज के प्रति उत्तरदायी निश्चित किया है।समाज में उत्पन्न होने वाली हर बुराई, अनाचार व अज्ञान के विरुद्ध लड़ना भी जँहा क्षत्रिय के दायित्व के रूप में ही निश्चित किया गया है। तब प्रश्न यह कि इतने कठिन, जटिल, पुरुषार्थपूर्ण व विवेक सम्मत कार्य को करने लिए प्रत्येक क्षत्रिय में गुणों का निर्माण कर उसे वास्तविक क्षत्रिय कौन बनाएगा?
उपर्युक्त प्रश्न में ही क्षत्राणी के कर्तव्य का उत्तर समाहित है। क्षत्रिय को विनाश से बचाना उसे दुर्गुणों, दुराचरणो, अज्ञान व प्रमाद से बचाकर उसे विकासोन्मुख बनाकर, उसमे त्याग, तपस्या, शौर्य, पराक्रम, उदारता व क्षमाशीलता जैसे गुणों का प्रादुर्भाव करना ही क्षत्राणी का परम कर्तव्य है। क्षत्राणी सैनिक नही, सैनिको की जननी है। वह रक्षक नही, रक्षको का निर्माण करने वाली निर्मात्री है। वह उपदेशक नही, ज्ञान का संचार करने वाली विलक्षण शक्ति है। इस दृष्टि से देखनेपर यह स्पष्ट हो जाता कि क्षत्राणी का कर्तव्य यह है कि वह अपने घरो में सच्चे क्षत्रियो का निर्माण करे।
इस क्षत्रिय ने राम-रावण युद्ध व महाभारत जैसे भीषण युद्धों को भी देखा और न मालूम इस सृष्टि के लम्बे इतिहास में ऐसे विनाशकारी कितने युद्ध हुए होंगे और उसमे कितने क्षत्रिय काल के ग्रास बने होंगे किन्तु न तो ये युद्ध इस जाती का अंत कर सके और न ही उनकी संघर्ष करने की प्रेरणा को लुप्त कर सके। आखिर इसका कारण क्या था?
उत्तर स्पष्ट है- युद्ध करने वाला अपने कर्तव्य का पालन करता हुआ रणक्षेत्र में वीरगति को प्राप्त होता है। उसे इस बात की चिन्ता करने की उसका धर्म अनुमति नही देता कि पीछे क्या होगा? क्योंकि धर्म के संस्थापक इस बात को जानते थे जब तक क्षत्रियो का निर्माण करने वाली उनके घरो में मौजूद है, मौत क्षत्रिय जाति व क्षत्रियत्व को समाप्त नही कर सकती है। इतिहास साक्षी है, युद्धों में सैकड़ो, हजारो व लाखो लोग भी एक साथ मारे गये है। एक-एक परिवार की तीन-तीन व् पांच-पांच पीढ़ियाँ एक ही युद्ध में काम आयी, फिर भी यह जाति सर कटाना नही भूली। त्याग व बलिदान, कमजोर को सम्बल देना व आतताइयों से लोहा लेने की प्रवृति इस कौम से भुलाने की चेष्टा करने पर भी भुलाई नही जा रही है। कारण केवल एक ही है- क्षत्रियो का उत्पादन करने वाली क्षत्राणिया अपने धर्म व कर्तव्य पर हमेशा दृढ व अडिग रही है।
आज जब हम हमारे परिवारो की ओर दृष्टि डालते है तो दृश्य कुछ बदलता हुआ नजर आता है। घरो की पवित्रता, परम्परागत ज्ञान व क्षत्रियोचित संस्कार जिनकी रक्षक क्षत्राणिया थी, जिनके बल पर उनके घरो में पलकर बालक, श्रेष्ट क्षत्रिय बना करते थे, वह वातावरण लुप्त होता जा रहा है। आध्यात्मिक, बौद्धिक व वैज्ञानिक सभी दृष्टियों से पिछड़े हुए पश्चिमी राष्ट्रों की संस्कृति, धन व भ्रष्ट बुद्धिजीविओ द्वारा अपनाए गए प्रचार प्रचार के हथकंडो द्वारा हमारे परवारो पर इस प्रकार आच्छादित हो गई है कि हम उनके मानसिक गुलाम बनते जा रहे है। अपने धर्म, अपनी संस्कृति, अपने इतिहास, अपनी पवित्रता, अपनी आराधना व अपने मापदंडो को हम छोटे, घटिया व संकुचित समझने लगे है। अर्थोपार्जन की अभिलाषा व धूर्तो द्वारा फैलाई गई तथाकथित ज्ञान की चकाचोंध ने हमारे विवेक को कुंठित कर दिया है और इन सबमे महत्वपूर्ण भूमिका है, हमारी क्षत्राणियों की जो अशिक्षा व अज्ञान के वशीभूत सच्चाई को समझने में असमर्थ प्रतीत होती है।
क्षत्रियों का निर्माण करने के लिए उत्तरदायी व उनको विनाश से बचाने के लिए जो भी उत्तरदायी है, वह क्षत्राणी ही यदि पथ भ्रष्ट हो जाए तो फिर क्षत्रिय जति के उत्थान की सम्भावना अत्यंत क्षीण हो जाती है। इसलिए इस पुस्तक में क्षत्राणियों के उन कर्तव्यों व उत्तरदायित्वों का विस्तार से विश्लेषण करने की चेष्टा की गई है। जिससे क्षत्राणियाँ अज्ञान के गर्त से बाहर निकलकर वास्तविक क्षत्रियो के पुनः निर्माण हेतु अग्रसर हो सकें। जब तक क्षत्रिय का प्रत्येक घर और उसमे निवास करने वाली प्रत्येक क्षत्राणी पवित्रता के महत्व को पुनः हृदयंगम कर इस ओर आगे बढ़ने के लिए कृतसंकल्प नही होगी तब तक समाज-जागरण अथवा सामाजिक पुनरुत्थान की बाते मात्र कल्पना ही कही जाएगी।.....Next
***
इससे सिद्ध होता है कि क्षत्रिय का जीवन उसके स्वयम् के लिए नही है। वह संसार में अच्छाई को पैदा करने, उसे पालने व उसकी रक्षा करने के लिए तथा बुराई को नष्ट करने के लिए पैदा हुआ है। इसीलिए गीता में जो क्षत्रिय के गुण बताये गये है, शौर्य, तेज, धैर्य, दक्षता, युद्ध से नही भागना, दान देना व ईश्वर भाव ऐसे गुण सम्भव है। लेकिन यदि शक्तिशाली में उदारता नही हुई तो वह शक्ति क्रूरता व बर्बरता में परिवर्तन हो जाएगी।
आज हम देख रहे है कि संसार में शक्ति के बल पर अत्याचार उतने नही हो रहे है जितने बुद्धि व धन-बल पर आश्रित षडयंत्रो के द्वारा हो रहे है। बुद्धि के बल पर अधर्म को धर्म बताकर व आर्थिक शोषण को प्रगति की आवश्यकता बताकर, जिस प्रकार से समस्त संसार को गुमराह किया जा रहा है व जनता का शोषण हो रहा है वह विचारणीय है। ऐसे शोषण संसार में पहले भी अनेक बार हुए होंगे, लेकिन उनको भौतिक शक्ति के आधार पर शायद कभी भी विफल नही किया जा सका होगा। इसीलिए क्षत्रिय के गुणों में तेज व दक्षता जैसे गुणों का समावेश किया गया है, जिनका उपार्जन केवल तपस्या व ब्रह्मचर्य के पालन से ही किया जा सकता है। यह एक ऐसी शक्ति है जो बुद्धिजीवियो द्वारा फैलाए गए मायाजाल को न केवल छिन्न, भिन्न कर सकती है बल्कि इसके माध्यम से लोगो को सदाचार व सदधर्म के मार्ग पर पुनः लौटने के लिए प्रेरित किया जा सकता है।
इस प्रकार क्षत्रिय का धर्म, उसका कर्तव्य, शास्त्रो में पूरी तरह से स्पष्ट रूप से प्रकट किया हुआ है; जिसकी व्याख्या करने में कहीं भी संदेह की कोई सम्भावना नही रहती है। लेकिन जब हम क्षत्राणियों के धर्म की व्याख्या करते है तो कहीं भी इतना स्पष्ट उल्लेख उनके धर्म के विषय में नही मिलता। व्याकरण की दृष्टि से जो अर्थ क्षत्रिय शब्द का है अर्थात क्षय से बचाने वाला, वही अर्थ क्षत्राणी शब्द का है, क्योंकि शब्द में कंही भी कोई परिवर्तन नही हुआ। क्षत्राणी शब्द, मात्र स्त्रीवाचक बन गया है। इससे स्पष्ट है कि क्षत्राणी का धर्म भी विनाश से बचाना ही है।
तब प्रश्न यह उतपन्न होता है कि क्या क्षत्राणियों को भी शस्त्र उठाकर क्षत्रियो की तरह युद्ध में प्रवृत होना चाहिए? क्या उन्हें भी शासन का अधिकार प्राप्त कर विष समाज को दण्डित करने का नैतिक अधिकार प्राप्त करना चाहिए? आदि-आदि।
गंभीरतापूर्वक विचार करने के पश्चात् हमको इस निष्कर्ष पर पंहुचना पड़ेगा कि क्षत्राणियों का दायित्व क्षत्रियों से कई गुना बढ़कर है। क्षत्राणियों का कर्तव्य न केवल क्षत्रियो के कर्तव्य से अधिक महान है, बल्कि अधिक श्रम साध्य भी है व उनके कर्तव्य पालन के लिए कहीँ अधिक विवेक व ज्ञान की भी आवश्यकता है।
शास्त्र ने क्षत्रियो को सम्पूर्ण रूप से समाज के प्रति उत्तरदायी निश्चित किया है।समाज में उत्पन्न होने वाली हर बुराई, अनाचार व अज्ञान के विरुद्ध लड़ना भी जँहा क्षत्रिय के दायित्व के रूप में ही निश्चित किया गया है। तब प्रश्न यह कि इतने कठिन, जटिल, पुरुषार्थपूर्ण व विवेक सम्मत कार्य को करने लिए प्रत्येक क्षत्रिय में गुणों का निर्माण कर उसे वास्तविक क्षत्रिय कौन बनाएगा?
उपर्युक्त प्रश्न में ही क्षत्राणी के कर्तव्य का उत्तर समाहित है। क्षत्रिय को विनाश से बचाना उसे दुर्गुणों, दुराचरणो, अज्ञान व प्रमाद से बचाकर उसे विकासोन्मुख बनाकर, उसमे त्याग, तपस्या, शौर्य, पराक्रम, उदारता व क्षमाशीलता जैसे गुणों का प्रादुर्भाव करना ही क्षत्राणी का परम कर्तव्य है। क्षत्राणी सैनिक नही, सैनिको की जननी है। वह रक्षक नही, रक्षको का निर्माण करने वाली निर्मात्री है। वह उपदेशक नही, ज्ञान का संचार करने वाली विलक्षण शक्ति है। इस दृष्टि से देखनेपर यह स्पष्ट हो जाता कि क्षत्राणी का कर्तव्य यह है कि वह अपने घरो में सच्चे क्षत्रियो का निर्माण करे।
इस क्षत्रिय ने राम-रावण युद्ध व महाभारत जैसे भीषण युद्धों को भी देखा और न मालूम इस सृष्टि के लम्बे इतिहास में ऐसे विनाशकारी कितने युद्ध हुए होंगे और उसमे कितने क्षत्रिय काल के ग्रास बने होंगे किन्तु न तो ये युद्ध इस जाती का अंत कर सके और न ही उनकी संघर्ष करने की प्रेरणा को लुप्त कर सके। आखिर इसका कारण क्या था?
उत्तर स्पष्ट है- युद्ध करने वाला अपने कर्तव्य का पालन करता हुआ रणक्षेत्र में वीरगति को प्राप्त होता है। उसे इस बात की चिन्ता करने की उसका धर्म अनुमति नही देता कि पीछे क्या होगा? क्योंकि धर्म के संस्थापक इस बात को जानते थे जब तक क्षत्रियो का निर्माण करने वाली उनके घरो में मौजूद है, मौत क्षत्रिय जाति व क्षत्रियत्व को समाप्त नही कर सकती है। इतिहास साक्षी है, युद्धों में सैकड़ो, हजारो व लाखो लोग भी एक साथ मारे गये है। एक-एक परिवार की तीन-तीन व् पांच-पांच पीढ़ियाँ एक ही युद्ध में काम आयी, फिर भी यह जाति सर कटाना नही भूली। त्याग व बलिदान, कमजोर को सम्बल देना व आतताइयों से लोहा लेने की प्रवृति इस कौम से भुलाने की चेष्टा करने पर भी भुलाई नही जा रही है। कारण केवल एक ही है- क्षत्रियो का उत्पादन करने वाली क्षत्राणिया अपने धर्म व कर्तव्य पर हमेशा दृढ व अडिग रही है।
आज जब हम हमारे परिवारो की ओर दृष्टि डालते है तो दृश्य कुछ बदलता हुआ नजर आता है। घरो की पवित्रता, परम्परागत ज्ञान व क्षत्रियोचित संस्कार जिनकी रक्षक क्षत्राणिया थी, जिनके बल पर उनके घरो में पलकर बालक, श्रेष्ट क्षत्रिय बना करते थे, वह वातावरण लुप्त होता जा रहा है। आध्यात्मिक, बौद्धिक व वैज्ञानिक सभी दृष्टियों से पिछड़े हुए पश्चिमी राष्ट्रों की संस्कृति, धन व भ्रष्ट बुद्धिजीविओ द्वारा अपनाए गए प्रचार प्रचार के हथकंडो द्वारा हमारे परवारो पर इस प्रकार आच्छादित हो गई है कि हम उनके मानसिक गुलाम बनते जा रहे है। अपने धर्म, अपनी संस्कृति, अपने इतिहास, अपनी पवित्रता, अपनी आराधना व अपने मापदंडो को हम छोटे, घटिया व संकुचित समझने लगे है। अर्थोपार्जन की अभिलाषा व धूर्तो द्वारा फैलाई गई तथाकथित ज्ञान की चकाचोंध ने हमारे विवेक को कुंठित कर दिया है और इन सबमे महत्वपूर्ण भूमिका है, हमारी क्षत्राणियों की जो अशिक्षा व अज्ञान के वशीभूत सच्चाई को समझने में असमर्थ प्रतीत होती है।
क्षत्रियों का निर्माण करने के लिए उत्तरदायी व उनको विनाश से बचाने के लिए जो भी उत्तरदायी है, वह क्षत्राणी ही यदि पथ भ्रष्ट हो जाए तो फिर क्षत्रिय जति के उत्थान की सम्भावना अत्यंत क्षीण हो जाती है। इसलिए इस पुस्तक में क्षत्राणियों के उन कर्तव्यों व उत्तरदायित्वों का विस्तार से विश्लेषण करने की चेष्टा की गई है। जिससे क्षत्राणियाँ अज्ञान के गर्त से बाहर निकलकर वास्तविक क्षत्रियो के पुनः निर्माण हेतु अग्रसर हो सकें। जब तक क्षत्रिय का प्रत्येक घर और उसमे निवास करने वाली प्रत्येक क्षत्राणी पवित्रता के महत्व को पुनः हृदयंगम कर इस ओर आगे बढ़ने के लिए कृतसंकल्प नही होगी तब तक समाज-जागरण अथवा सामाजिक पुनरुत्थान की बाते मात्र कल्पना ही कही जाएगी।.....Next
***
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें