'क्षत्रिय' शब्द की व्याख्या पहले हो चुकी है। पुत्र शब्द का अर्थ है- पुं नाम नरकात त्रायते आईटीआई पुत्रः। अर्थात् पुं नाम नरक से बचाने वाला पुत्र होता है। पुत्र और पुत्री का एक ही अर्थ होता है केवल पुत्री स्त्री-वाचक शब्द है। उपर्युक्त अर्थ से यह स्पष्ट हुआ कि पुत्र या पुत्री वह है जो नरक में जाने से बचाए। अर्थात यदि कोई ऐसी गलती हो जाए जिससे व्यक्ति को नरक में जाना पड़े तो उस गलती को ठीक करके पिता को नरक में जाने से बचाने वाला पुत्र कहलाता है।
भगवान राम ने अपनी प्रशन्सा में कभी कुछ नही कहा, लेकिन एक स्थान पर वाल्मीकि रामायण में प्रसंग अंकित है जंहा सुग्रीव की प्रशंसा करते हुए श्री राम कहते है कि-
"मेरे जैसा पुत्र, भरत जैसा भाई व सुग्रीव जैसा मित्र मिलना इस संसार में दुर्लभ है"। लोग इस कथन की महिमा को प्रायः समझ नही पाते। राम को उनके पिता दशरथ ने कभी वन जाने की आज्ञा नही दी। उन्होंने कैकेयी को मात्र दो वरदान दिए थे, जिनके बदले में कैकेयी ने राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास और भरत के लिए राजगद्दी मांगी। अयोध्या की जनता का मत था और वह सही मत था कि राजा दशरथ को युवराज राम का अधिकार छीनने का कोई अधिकार नही है और लक्षमण कह रहे थे "हमको अपने अधिकार के लिए संघर्ष करना चाहिए।" राम ने दोनों पक्षो की अवहेलना करके स्वयम् ने ही वनगमन का फैसला क्योंकि वे जानते थे कि यदि पिता दशरथ द्वारा दिए गए व् माता कैकेयी द्वारा मांगे गए वरदान सफल नही हुए तो पिता को नरक में जाना पड़ेगा। इसकी स्पष्ट पुष्टि इस बात से होती है कि रावण वध के पश्चात् स्वर्ग से इंद्र सहित देवता लोग भगवान् राम का अभिनंदन करने आए तो उनके साथ स्वर्गवासी राजा दशरथ भी थे(यह प्रसंग वाल्मीकि रामायण में है) उस समय राजा दशरथ राम से कहते है, "बेटा मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ, तुमने मुझे नरक में जाने से बचा लिया।"
उपर्युक्त अर्थ में पुत्री वह है जो माता को नरक में जाने से बचाले । अर्थात माता के लिए जो निश्चित कर्म है, वे बहुत कठोर कष्टसाध्य व जटिल है। उनमे किसी प्रकार की त्रुटि हो तो पुत्री उस त्रुटि को सुधारकर माता को नरक में जाने से बचा सकती है। यथार्थ में पुत्री वही है जो इस कठिन कर्म को कर सके। यंहा यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि पिता के घर में पुत्री जहाँ अपनी माता की पुत्री है वहीँ पति के घर में अपनी सास की पुत्री है। इस प्रकार जहाँ पुत्र का उत्तरदायित्व केवल एक परिवार के लिए है वहीँ पर पुत्री को दो परिवारो का उत्तरदायित्व वाहन करना पड़ता है।
माता के किन उत्तरदायित्वों को पुत्री का निभाना होगा, यह आगे के प्रकरणो में व्यक्त किया जाएगा।इस प्रकरण में हम केवल पुत्री के रूप में उसके उत्तरदायित्वों पर ही प्रकाश डालेंगे जो निम्न प्रकार है:-
भगवान राम ने अपनी प्रशन्सा में कभी कुछ नही कहा, लेकिन एक स्थान पर वाल्मीकि रामायण में प्रसंग अंकित है जंहा सुग्रीव की प्रशंसा करते हुए श्री राम कहते है कि-
"मेरे जैसा पुत्र, भरत जैसा भाई व सुग्रीव जैसा मित्र मिलना इस संसार में दुर्लभ है"। लोग इस कथन की महिमा को प्रायः समझ नही पाते। राम को उनके पिता दशरथ ने कभी वन जाने की आज्ञा नही दी। उन्होंने कैकेयी को मात्र दो वरदान दिए थे, जिनके बदले में कैकेयी ने राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास और भरत के लिए राजगद्दी मांगी। अयोध्या की जनता का मत था और वह सही मत था कि राजा दशरथ को युवराज राम का अधिकार छीनने का कोई अधिकार नही है और लक्षमण कह रहे थे "हमको अपने अधिकार के लिए संघर्ष करना चाहिए।" राम ने दोनों पक्षो की अवहेलना करके स्वयम् ने ही वनगमन का फैसला क्योंकि वे जानते थे कि यदि पिता दशरथ द्वारा दिए गए व् माता कैकेयी द्वारा मांगे गए वरदान सफल नही हुए तो पिता को नरक में जाना पड़ेगा। इसकी स्पष्ट पुष्टि इस बात से होती है कि रावण वध के पश्चात् स्वर्ग से इंद्र सहित देवता लोग भगवान् राम का अभिनंदन करने आए तो उनके साथ स्वर्गवासी राजा दशरथ भी थे(यह प्रसंग वाल्मीकि रामायण में है) उस समय राजा दशरथ राम से कहते है, "बेटा मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ, तुमने मुझे नरक में जाने से बचा लिया।"
उपर्युक्त अर्थ में पुत्री वह है जो माता को नरक में जाने से बचाले । अर्थात माता के लिए जो निश्चित कर्म है, वे बहुत कठोर कष्टसाध्य व जटिल है। उनमे किसी प्रकार की त्रुटि हो तो पुत्री उस त्रुटि को सुधारकर माता को नरक में जाने से बचा सकती है। यथार्थ में पुत्री वही है जो इस कठिन कर्म को कर सके। यंहा यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि पिता के घर में पुत्री जहाँ अपनी माता की पुत्री है वहीँ पति के घर में अपनी सास की पुत्री है। इस प्रकार जहाँ पुत्र का उत्तरदायित्व केवल एक परिवार के लिए है वहीँ पर पुत्री को दो परिवारो का उत्तरदायित्व वाहन करना पड़ता है।
माता के किन उत्तरदायित्वों को पुत्री का निभाना होगा, यह आगे के प्रकरणो में व्यक्त किया जाएगा।इस प्रकरण में हम केवल पुत्री के रूप में उसके उत्तरदायित्वों पर ही प्रकाश डालेंगे जो निम्न प्रकार है:-
(1) तपस्या - विकृत हुए धर्म के प्रभाव व पाश्चात्य सभ्यता का अनुसरण करने की प्रवृति ने हमारे पारिवारिक संस्कारो को इस प्रकार से विकृत किया है कि हम अपनी बातो की ओर ध्यान देने, उन्हें सीखने व उनको अपने जीवन में ढालने का प्रयत्न ही नही करते। लोग यह समझने लगे है कि भगवान का नाम लेना वृद्धो का काम है। तपस्या किसी जटिल प्रक्रिया अथवा कठोर जीवन का पर्याय बन गयी है। जबकि हमारी परम्परा के अनुसार तपस्या एक अत्यंत सरल व स्वाभाविक कार्य है।
क्षत्रिय की उत्पत्ति भगवान के हृदय से हुई है। हृदय में आत्मा तथा प्राण का निवास होता है। प्राणशक्ति के बलवान होने पर ही सात्विक बुद्धि से सात्विक मन का विकास होता है। प्राणशक्ति के निर्बल हो जाने पर बुद्धि के लिए अन्तः प्रेरणा समाप्त हो जाती है व व्यक्ति में परावलम्बी भावना उत्पन्न होती है जिससे वह परमुखापेक्षी होकर अपने प्रत्येक कार्य व समस्या के समाधान के लिए दूसरों के सहारे की अपेक्षा करने लगता है। यही क्षुद्रत्व है, यही क्षुद्रवृत्ति है, जिसके आ जाने पर व्यक्ति आत्मविश्वास खो देता है।
प्राणशक्ति के दुर्बल होने पर व्यक्ति संकल्पहीन होकर अपने आपको टुटा हुआ, शक्तिहीन व हतोत्साही अनुभव करने लगता है। किसी काम में उसका मन नही लगता। बुद्धि चिंताग्रस्त व शरीर अस्वस्थ हो जाता है। इस स्थिति से उबरने का एकमात्र उपाय यही है कि प्राणशक्ति को बलवती बनाया जाए। जिससे बुद्धि व मन में चेतना उत्पन्न हो व व्यर्थ में ही उत्पन्न हुई शारीरिक दुर्बलता से भी मुक्ति मिल सके।
प्राणशक्ति को बलवती बनाने का एकमात्र साधन है - मंत्र जप। शास्त्र व इतिहास इस बात के प्रमाण है कि हमारे पूर्वज इसी मंत्र जप का आश्रय लेकर इतने महान व शक्तिशाली बने थे। लेकिन हमारा दुर्भाग्य है कि हमने पाखण्डों में फंसकर इस सरल व परीक्षित मन्त्र जप की क्रिया को छोड़ दिया। मन्त्र के लिए किसी प्रकार के विधि - विधान की आवश्यकता नही है। अपना गृहकार्य करते हुए व खाली समय में जैसी भी अवस्था में हम है, निरन्तर मन में(बिना मुख के उच्चारण किये) मन्त्र का जप करते रहना चाहिए, यही सबसे बड़ी तपस्या है।
पुत्र संतान के लिए यह विधान है कि जब बालक पाँच साल का हो अथवा अधिक से अधिक पांच से बारह साल की उम्र में पिता उसको मन्त्र-दीक्षा देकर द्विजातीय संस्कार करे। लेकिन पुत्रियों के लिए ऐसा कोई विधान नही है। पुत्र का गुरु उसका पिता ही होता है। इसलिए उसको मन्त्र-दीक्षा देने का पिता को भगवान द्वारा प्रदत अधिकार है। लेकिन स्त्री का गुरु उसका पति ही होता है, अतः पिता पुत्री को मन्त्र-दीक्षा देने का अधिकारी नही है। गुरु होने के नाते पति पत्नी को मन्त्र-दीक्षा दे सकता है, किन्तु यह भगवान द्वारा प्रदत अधिकारी नही है, क्योंकि पत्नी का चयन पति स्वयम् अथवा उसके परिवारजन करते है, इसलिए पत्नी को पति मन्त्र-दीक्षा तभी दे सकता है जब पत्नी पति के पूर्णरूप से अनुकूल हो। तब प्रश्न यह उठता है कि क्षत्रिय कन्याएँ बचपन से किस मन्त्र का जप करे? परम्परा से क्षत्रिय कन्याएं यजुर्वेद के निम्न मन्त्र का जीवन-पर्यन्त जप करती थी:-
ॐ त्र्यम्बकंय्यजामहेसुगन्धिम्पुष्टिवर्द्धंनम॥
उर्व्वारुकमिवबन्धनान्न्मृत्योम्मुक्षीयमामृतत ॥
त्र्यम्बकं य्याजामहेसुगंधिम्पतिवेदनम ॥
उर्व्वारुकमिवबंधनादितोमुक्षीयमतुत ॥
क्षत्रिय की उत्पत्ति भगवान के हृदय से हुई है। हृदय में आत्मा तथा प्राण का निवास होता है। प्राणशक्ति के बलवान होने पर ही सात्विक बुद्धि से सात्विक मन का विकास होता है। प्राणशक्ति के निर्बल हो जाने पर बुद्धि के लिए अन्तः प्रेरणा समाप्त हो जाती है व व्यक्ति में परावलम्बी भावना उत्पन्न होती है जिससे वह परमुखापेक्षी होकर अपने प्रत्येक कार्य व समस्या के समाधान के लिए दूसरों के सहारे की अपेक्षा करने लगता है। यही क्षुद्रत्व है, यही क्षुद्रवृत्ति है, जिसके आ जाने पर व्यक्ति आत्मविश्वास खो देता है।
प्राणशक्ति के दुर्बल होने पर व्यक्ति संकल्पहीन होकर अपने आपको टुटा हुआ, शक्तिहीन व हतोत्साही अनुभव करने लगता है। किसी काम में उसका मन नही लगता। बुद्धि चिंताग्रस्त व शरीर अस्वस्थ हो जाता है। इस स्थिति से उबरने का एकमात्र उपाय यही है कि प्राणशक्ति को बलवती बनाया जाए। जिससे बुद्धि व मन में चेतना उत्पन्न हो व व्यर्थ में ही उत्पन्न हुई शारीरिक दुर्बलता से भी मुक्ति मिल सके।
प्राणशक्ति को बलवती बनाने का एकमात्र साधन है - मंत्र जप। शास्त्र व इतिहास इस बात के प्रमाण है कि हमारे पूर्वज इसी मंत्र जप का आश्रय लेकर इतने महान व शक्तिशाली बने थे। लेकिन हमारा दुर्भाग्य है कि हमने पाखण्डों में फंसकर इस सरल व परीक्षित मन्त्र जप की क्रिया को छोड़ दिया। मन्त्र के लिए किसी प्रकार के विधि - विधान की आवश्यकता नही है। अपना गृहकार्य करते हुए व खाली समय में जैसी भी अवस्था में हम है, निरन्तर मन में(बिना मुख के उच्चारण किये) मन्त्र का जप करते रहना चाहिए, यही सबसे बड़ी तपस्या है।
पुत्र संतान के लिए यह विधान है कि जब बालक पाँच साल का हो अथवा अधिक से अधिक पांच से बारह साल की उम्र में पिता उसको मन्त्र-दीक्षा देकर द्विजातीय संस्कार करे। लेकिन पुत्रियों के लिए ऐसा कोई विधान नही है। पुत्र का गुरु उसका पिता ही होता है। इसलिए उसको मन्त्र-दीक्षा देने का पिता को भगवान द्वारा प्रदत अधिकार है। लेकिन स्त्री का गुरु उसका पति ही होता है, अतः पिता पुत्री को मन्त्र-दीक्षा देने का अधिकारी नही है। गुरु होने के नाते पति पत्नी को मन्त्र-दीक्षा दे सकता है, किन्तु यह भगवान द्वारा प्रदत अधिकारी नही है, क्योंकि पत्नी का चयन पति स्वयम् अथवा उसके परिवारजन करते है, इसलिए पत्नी को पति मन्त्र-दीक्षा तभी दे सकता है जब पत्नी पति के पूर्णरूप से अनुकूल हो। तब प्रश्न यह उठता है कि क्षत्रिय कन्याएँ बचपन से किस मन्त्र का जप करे? परम्परा से क्षत्रिय कन्याएं यजुर्वेद के निम्न मन्त्र का जीवन-पर्यन्त जप करती थी:-
ॐ त्र्यम्बकंय्यजामहेसुगन्धिम्पुष्टिवर्द्धंनम॥
उर्व्वारुकमिवबन्धनान्न्मृत्योम्मुक्षीयमामृतत ॥
त्र्यम्बकं य्याजामहेसुगंधिम्पतिवेदनम ॥
उर्व्वारुकमिवबंधनादितोमुक्षीयमतुत ॥
भावार्थ- दिव्यगंध से युक्त, मर्त्यधर्महिन् उभ्यलोको के फलदाता धनधान्यादि से पुष्टि बढ़ाने वाले पूर्वोक्तनेत्रसम्पन्न शिवशंकर का पूजन करते है, वह रूद्र हम को मृत्यु, अप-मृत्यु व संसार के मरण से मुक्त करे व छुडावे, जिस प्रकार अपने बंधन से पके हुए कर्कटिफल अर्थात पक्वफल अपनी ग्रंथि से टूटकर भूपतित होता है इस प्रकार शिव की कृपा से जन्म मरण बंधन से चिरमुक्त हो जाऊ और स्वर्गरूप मुक्ति से न छुंटु। अभ्युदय निश्रेयसरूप दोनों फल से भ्रष्ट न होऊं, पति के प्राप्त कराने वाले व सम्पूर्ण गुण सम्पन्न सुंदर पति के विधान करने वाले दिव्ययश सौरभपूर्ण धर्माधर्म के ज्ञाता त्र्यम्बकदेव शिव का पूजन करती हूँ, जैसे उर्वारुक फल बंधन से छुट जाता है इस प्रकार इस माता पिता भ्रातृ वर्ग से व इनके गौत्र से छुटने पर( विवाह होने पर) पति के समीप से कभी मत चुटाओ।" -यजुर्वेद
उपर्युक्त मन्त्र से भी स्पष्ट है तथा परम्परा भी यही रही है कि क्षत्राणियां हमेशा सदाशिव(शंकर भगवान) की ही उपासक रही है। सदाशिव सारे संसार के गुरु है और क्षत्राणिया गुरु रूप में अपने पति को प्राप्त करने के लिए सदा से भगवान सदाशिव की उपासना करती रही है।
उपर्युक्त मन्त्र कितना प्रभावशाली है, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस मन्त्र के दो खण्डों में से जो पहला खण्ड है वही महामृत्युंजय मन्त्र कहलाता है। ज। किसी व्यक्ति के भयानक मृत्यु योग हो उस समय उसकी प्राण रक्षा के लिए महामृत्युंजय मन्त्र के जप किए जाते है। अब आप कल्पना कीजिए की जिस परिवार की प्रत्येक स्त्री, अर्थात पुत्री, माता व बहिन आदि प्रतिदिन उपर्युक्त मन्त्र का जप करे और जीवन पर्यन्त जप करे, उनके परिवार जनो से क्या कोई कर्मक्षेत्र व् युद्ध क्षेत्र में लोहा लेने का साहस कर सकता है। मैं तो यही कहूँगा की क्षत्रियो के शौर्य व् पराक्रम के महान इतिहास के पीछे उनकी धर्मप्राण तपस्वी पुत्रियों, पत्नियो व माताओ का ही महान योगदान रहा है।
अशिक्षा या अल्पायु के कारण यदि कोई बालिका उपर्युक्त मन्त्र का जाप नही कर सके तो उसे केवल "राम" नाम का जप करना चाहिए। जगत गुरु सदाशिव इसी नाम राम-नाम का जप करते है। अतः जिस किसी को भी गुरु मन्त्र प्राप्त नही हुआ हो, चाहे स्त्री हो या पुरुष, उसके लिए जगत् गुरु द्वारा जाप किया जाने वाला यह "राम" नाम ही गुरु मन्त्र है।
तपस्या में सरलता व सहजता का सबसे अधिक महत्व है। जबकि आज लोग भगवान के नाम के साथ भी दुकानदारी करने लगे है।ऐसी दुकानदारी ही आजकल धर्म समझी जाती है। शास्त्र कहते है कि तीर्थो का भ्रमण निकृष्ट आध्यात्मिक साधना है। स्वाध्याय अर्थात उत्तम ग्रंथो का अध्यन व मनन साधारण आध्यात्मिक है।ध्यान अर्थात अपने प्रत्येक कार्य को ध्यानपूर्वक, सावधानीपूर्वक करना व अपने इष्ट का ध्यान जप करते समय करते रहना उत्तम आध्यात्मिक साधना है। सर्वश्रेष्ठ आध्यात्मिक साधना सब कर्मो को सहज रूप में करते रहना है।अर्थात स्वाभाविक रूप से सरल भाव से अपने समस्त दैनिक कार्यो को करते हुए मन ही मन , मन्त्र जप करता रहे व अपनी साधना का प्रदर्शन कहीं भी किसी भी प्रकार से न करे, यह साधना का सर्वश्रेष्ठ रूप बताया गया है। चीनी सन्त महात्मा लाओत्से से जब यह पूछा गया की संसार में सबसे कठिन कार्य क्या है तो उनका जवाब था, "अज्ञात रहना ही सबसे कठिन है।" अर्थात भगवान का नाम इस प्रकार से ले कि किसी को यह पता ही नही चले कि आप रात दिन भगवान् का भजन कर रहे है। यही सच्ची व श्रेष्ट तपस्या है।
उपर्युक्त मन्त्र से भी स्पष्ट है तथा परम्परा भी यही रही है कि क्षत्राणियां हमेशा सदाशिव(शंकर भगवान) की ही उपासक रही है। सदाशिव सारे संसार के गुरु है और क्षत्राणिया गुरु रूप में अपने पति को प्राप्त करने के लिए सदा से भगवान सदाशिव की उपासना करती रही है।
उपर्युक्त मन्त्र कितना प्रभावशाली है, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस मन्त्र के दो खण्डों में से जो पहला खण्ड है वही महामृत्युंजय मन्त्र कहलाता है। ज। किसी व्यक्ति के भयानक मृत्यु योग हो उस समय उसकी प्राण रक्षा के लिए महामृत्युंजय मन्त्र के जप किए जाते है। अब आप कल्पना कीजिए की जिस परिवार की प्रत्येक स्त्री, अर्थात पुत्री, माता व बहिन आदि प्रतिदिन उपर्युक्त मन्त्र का जप करे और जीवन पर्यन्त जप करे, उनके परिवार जनो से क्या कोई कर्मक्षेत्र व् युद्ध क्षेत्र में लोहा लेने का साहस कर सकता है। मैं तो यही कहूँगा की क्षत्रियो के शौर्य व् पराक्रम के महान इतिहास के पीछे उनकी धर्मप्राण तपस्वी पुत्रियों, पत्नियो व माताओ का ही महान योगदान रहा है।
अशिक्षा या अल्पायु के कारण यदि कोई बालिका उपर्युक्त मन्त्र का जाप नही कर सके तो उसे केवल "राम" नाम का जप करना चाहिए। जगत गुरु सदाशिव इसी नाम राम-नाम का जप करते है। अतः जिस किसी को भी गुरु मन्त्र प्राप्त नही हुआ हो, चाहे स्त्री हो या पुरुष, उसके लिए जगत् गुरु द्वारा जाप किया जाने वाला यह "राम" नाम ही गुरु मन्त्र है।
तपस्या में सरलता व सहजता का सबसे अधिक महत्व है। जबकि आज लोग भगवान के नाम के साथ भी दुकानदारी करने लगे है।ऐसी दुकानदारी ही आजकल धर्म समझी जाती है। शास्त्र कहते है कि तीर्थो का भ्रमण निकृष्ट आध्यात्मिक साधना है। स्वाध्याय अर्थात उत्तम ग्रंथो का अध्यन व मनन साधारण आध्यात्मिक है।ध्यान अर्थात अपने प्रत्येक कार्य को ध्यानपूर्वक, सावधानीपूर्वक करना व अपने इष्ट का ध्यान जप करते समय करते रहना उत्तम आध्यात्मिक साधना है। सर्वश्रेष्ठ आध्यात्मिक साधना सब कर्मो को सहज रूप में करते रहना है।अर्थात स्वाभाविक रूप से सरल भाव से अपने समस्त दैनिक कार्यो को करते हुए मन ही मन , मन्त्र जप करता रहे व अपनी साधना का प्रदर्शन कहीं भी किसी भी प्रकार से न करे, यह साधना का सर्वश्रेष्ठ रूप बताया गया है। चीनी सन्त महात्मा लाओत्से से जब यह पूछा गया की संसार में सबसे कठिन कार्य क्या है तो उनका जवाब था, "अज्ञात रहना ही सबसे कठिन है।" अर्थात भगवान का नाम इस प्रकार से ले कि किसी को यह पता ही नही चले कि आप रात दिन भगवान् का भजन कर रहे है। यही सच्ची व श्रेष्ट तपस्या है।
(2) पवित्रता - मन्त्र जप से बुद्धि व् मन में पवित्रता व्याप्त होती है ; किन्तु इसके साथ-साथ अन्य शुद्धियो की ओर भी ध्यान देना आवश्यक है, क्योंकि अपवित्र स्थान पर रहकर पवित्रता को पनपने में लम्बा समय लगता है। अतः सबसे पहले शारीरिक शुद्धता की ओर ध्यान देना चाहिए। संयम से व सिमित भोजन करने से शरीर स्वस्थ रहता है। बिना पचा हुआ भोजन पेट में जमा होने से पेट में उत्पन्न होने वाली दुर्गन्ध मन व बुद्धि को चंचल व दूषित करती है। अतः शरीर शुद्धि के लिए सर्वप्रथम शुद्ध व सीमित आहार की ओर ध्यान देना चाहिए। शरीर के रोम कूपों से निकलने वाली गंदगी की सफाई भी अति आवश्यक है। अतः प्रतिदिन नियमित रूप से स्नान करके शरीर को शुद्ध रखना चाहिए।
इसके बाद घर की सफाई की ओर ध्यान देना चाहिए जो अति आवश्यक है। प्रतिदिन सूर्योदय से पहले झाड़ू निकालकर सफाई करनी चाहिए। इस कार्य के लिए बालिकाओ को माता के साथ उठकर सफाई के कार्य में हाथ बंटाना चाहिए।
तीसरा पवित्रता का केंद्र घर की भोजनशाला या रसोई है। जिस घर में भोजन पवित्रतापूर्वक बनाया जाता है व परिवार जनो को शुद्ध व सात्विक भोजन मिलता है, उन घरो में देवता निवास करते है। अतः बालिकाओ का यह परम कर्तव्य है कि वे रसोई को पवित्र रखने में माता का पूर्ण सहयोग करे।
इसके बाद घर की सफाई की ओर ध्यान देना चाहिए जो अति आवश्यक है। प्रतिदिन सूर्योदय से पहले झाड़ू निकालकर सफाई करनी चाहिए। इस कार्य के लिए बालिकाओ को माता के साथ उठकर सफाई के कार्य में हाथ बंटाना चाहिए।
तीसरा पवित्रता का केंद्र घर की भोजनशाला या रसोई है। जिस घर में भोजन पवित्रतापूर्वक बनाया जाता है व परिवार जनो को शुद्ध व सात्विक भोजन मिलता है, उन घरो में देवता निवास करते है। अतः बालिकाओ का यह परम कर्तव्य है कि वे रसोई को पवित्र रखने में माता का पूर्ण सहयोग करे।
(3) शिक्षा- अज्ञान ही अंधकार है और ज्ञान प्रकाश है। मुख्य रूप से मुगलो का शासन आने के बाद असुरक्षित समाज व्यवस्था व क्षत्रियों के लगातार युद्धरत रहने के कारण हमारे परिवारो में शिक्षा की ओर ध्यान नही दिया जा सका। इसके फलस्वरूप् धीरे धीरे परम्परा से आने वाली अनेक अच्छाइयां लुप्त हो गई व धर्म के नाम पर रचे गये ढकोसलों को हम धर्म समझकर अपने मूल धर्म व कर्तव्य से विमुख हो गए। आज जब शिक्षा की सुविधा उपलब्ध है, बालिकाओ को अधिक से अधिक लाभ उठाना चाहिए। लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए कि शिक्षा उद्देश्य मात्र डिग्री प्राप्त करना नही है। शिक्षित बालिकाओ को स्वाध्याय पर अधिक ध्यान देना चाहिए। सदसहित्य को पढ़ना चाहिए। उस पर चिंतन व मनन कर अपने में सदगुणों का विकास करना चाहिए व समस्त परिवार के लोग सुशिक्षित, सुसंस्कारित व सभ्य व्यवहार करने वाले हो, ऐसा प्रयत्न करना चाहिए। आगे के लेख में यह भी पढ़ने को मिलेगा कि प्राचीनकाल में क्षत्राणियाँ परिवार के लिए कितने बड़े उत्तरदायित्व को ग्रहण करती थी। उतने बड़े उत्तरदायित्व को ग्रहण करने के लिए उत्तम व उच्च शिक्षा अनिवार्य है।
(4) स्नेह- बहुधा लोग यह समझते है कि चरित्रहीनता का दोष लोगो में युवा अवस्था में प्रवेश करने के बाद कुसंगति के कारण व्याप्त होता है। इस कथन में आंशिक सच्चाई हो सकती है लेकिन यह पूर्ण सत्य नही है, क्योंकि कुसंगति की ओर आकर्षण व्यक्ति में तब ही बनता है जब बचपन में उसके जीवन में कहीं अभाव रह जाता है। बहुत सारे बालक माता-पिता के स्नेह के अभाव में युवा अवस्था में जाकर दुश्चरित्रता की ओर आकर्षित होने लगते है। लेकिन यदि माता-पिता का स्नेह प्राप्त भी हो जाए तो भी वह अपूर्ण ही रहता है। उसके अपूर्णता के कारणों पर प्रकाश हम "क्षत्रिय माता" प्रकरण में डालेंगे। यहाँ तो हम इतना ही कहना चाहेंगे कि बहिन का स्नेह माता-पिता के स्नेह से भी कहीं अधिक पवित्र व निस्वार्थ होता है।इसीलिए कहा गया है कि जिन बालको को बहिनो का स्नेह नही मिलता , उनके लिए दुश्चरित्रता की ओर बढ़ने की सम्भावना अधिक रहती है।
बालको में बहुधा यह रूचि देखी जाती है कि वे घर के बाहर की गलियो में, मोहल्लों में या गांव के गलियारों में घूमने में अधिक रूचि रखते है। इसका कारण घर में उपयुक्त संगति व पर्याप्त स्नेह नही मिलना होता है। परिणामस्वरुप घर के बाहर निकले ऐसे बालको का साक्षात्कार यदि कुसंगति वाले बालको के साथ हो जाता है तो वे दुराचरणो व दुश्चरित्रता की ओर आगे बढ़ने लगते है। उनकी बुद्धि व उनका मन अशांत रहने लगता है। पढ़ने में उनकी रूचि घटने लगती है व इस प्रकार उनका जीवन बिगड़ जाता है।
बहिनो का यह उत्तरदायित्व है कि वे अपने भाइयो व बहिनो को पर्याप्त स्नेह प्रदान करे। सहनशील बने व उपेक्षा से कुपित न हो । बहिन का स्नेह निर्दोष व निस्वार्थ स्नेह होता है। अतः ऐसा थोडा सा स्नेह भी भाई को घर से बाहर निकलकर कुसंगति में फंसने से बचा लेता है। इस दृष्टि से देखा जाए तो पुत्रियाँ परिवार के लिए वरदान होती है। उनको पर्याप्त स्नेह न देकर माता-पिता जिनको अधिक स्नेह देना चाहते है, उन पुत्रो की हानि करते है। अतः पुत्रियों को परिवार में सर्वाधिक स्नेह मिलना चाहिए ताकि वे उस स्नेह को द्विगुणित करके अपने भाई-बहिनो में बाँट सके। जो लोग अपने परिवारो में सदाचार स्थापित करना चाहते है उन्हें इस बात को ठीक तरह से समझ लेना चाहिए।
यदि माता-पिता का स्नेह कम मिले तो भी पुत्रियाँ भाई-बहिनो में स्नेह बाँटने के लिए अपने पवित्र उत्तरदायित्व से मुक्त नही हो सकती। भगवान ने स्त्री जाती को स्नहे की अनुपम शक्ति दी है। आजकल लोग वासना को स्नेह समझने लगे है, जबकि स्नहे व वासना विरोधी शक्तियाँ है। जहाँ स्नहे है वहां वासना नही है और जहाँ वासना है वहाँ स्नेह नही है। वासना स्वार्थमूलक प्रवृत्ति है जिसमे चाह, इच्छा कूट-कूट कर भरी हुई है। स्नेह त्यागमूल प्रवृत्ति है जो बदले में कुछ नही चाहता। यहाँ तक कि बदले में स्नहे भी नही चाहता। इसलिए बालिकाओ का यह परम कर्त्तव्य है कि वे अपनी प्राकृतिक स्नेह शक्ति को पहचनेव भाई-बहिनो में इस स्नेह सरिता का प्रवाह कर उनका भी कल्याण करे व अपना भी। क्योंकि बचपन में उपार्जित यह स्नेह ही उनके वैवाहिक जीवन में सबसे बड़ी धरोहर सिद्ध होगी। जो बालिकाए बचपन में स्नेह का उपार्जन नही कर सकती, उनका वैवाहिक जीवन हमेशा कलहपूर्ण ही देखा गया है।
बालको में बहुधा यह रूचि देखी जाती है कि वे घर के बाहर की गलियो में, मोहल्लों में या गांव के गलियारों में घूमने में अधिक रूचि रखते है। इसका कारण घर में उपयुक्त संगति व पर्याप्त स्नेह नही मिलना होता है। परिणामस्वरुप घर के बाहर निकले ऐसे बालको का साक्षात्कार यदि कुसंगति वाले बालको के साथ हो जाता है तो वे दुराचरणो व दुश्चरित्रता की ओर आगे बढ़ने लगते है। उनकी बुद्धि व उनका मन अशांत रहने लगता है। पढ़ने में उनकी रूचि घटने लगती है व इस प्रकार उनका जीवन बिगड़ जाता है।
बहिनो का यह उत्तरदायित्व है कि वे अपने भाइयो व बहिनो को पर्याप्त स्नेह प्रदान करे। सहनशील बने व उपेक्षा से कुपित न हो । बहिन का स्नेह निर्दोष व निस्वार्थ स्नेह होता है। अतः ऐसा थोडा सा स्नेह भी भाई को घर से बाहर निकलकर कुसंगति में फंसने से बचा लेता है। इस दृष्टि से देखा जाए तो पुत्रियाँ परिवार के लिए वरदान होती है। उनको पर्याप्त स्नेह न देकर माता-पिता जिनको अधिक स्नेह देना चाहते है, उन पुत्रो की हानि करते है। अतः पुत्रियों को परिवार में सर्वाधिक स्नेह मिलना चाहिए ताकि वे उस स्नेह को द्विगुणित करके अपने भाई-बहिनो में बाँट सके। जो लोग अपने परिवारो में सदाचार स्थापित करना चाहते है उन्हें इस बात को ठीक तरह से समझ लेना चाहिए।
यदि माता-पिता का स्नेह कम मिले तो भी पुत्रियाँ भाई-बहिनो में स्नेह बाँटने के लिए अपने पवित्र उत्तरदायित्व से मुक्त नही हो सकती। भगवान ने स्त्री जाती को स्नहे की अनुपम शक्ति दी है। आजकल लोग वासना को स्नेह समझने लगे है, जबकि स्नहे व वासना विरोधी शक्तियाँ है। जहाँ स्नहे है वहां वासना नही है और जहाँ वासना है वहाँ स्नेह नही है। वासना स्वार्थमूलक प्रवृत्ति है जिसमे चाह, इच्छा कूट-कूट कर भरी हुई है। स्नेह त्यागमूल प्रवृत्ति है जो बदले में कुछ नही चाहता। यहाँ तक कि बदले में स्नहे भी नही चाहता। इसलिए बालिकाओ का यह परम कर्त्तव्य है कि वे अपनी प्राकृतिक स्नेह शक्ति को पहचनेव भाई-बहिनो में इस स्नेह सरिता का प्रवाह कर उनका भी कल्याण करे व अपना भी। क्योंकि बचपन में उपार्जित यह स्नेह ही उनके वैवाहिक जीवन में सबसे बड़ी धरोहर सिद्ध होगी। जो बालिकाए बचपन में स्नेह का उपार्जन नही कर सकती, उनका वैवाहिक जीवन हमेशा कलहपूर्ण ही देखा गया है।
(5) मित्भाषी- भगवान ने स्त्रियों को समन्वय की अद्भुत शक्ति दी है। समन्वय का सबसे बड़ा शत्रु है - असन्तुलित संभाषण। बोलचाल का संतुलन हमेशा अधिक बोलने से बिगड़ता है। वाचाल लोग बोलने से पूर्व सोचने की क्षमता हमेशा-हमेशा के लिए खो देते है। आजकल महिलाओ में जो सबसे बुरी प्रवृत्ति पनप रही है, वह है वाचालता। वे चुप नही रह सकती। इसी कारण उनके वचनो में संतुलन नही होता। यह असंतुलन समन्वय का नाश कर देता है।
पिछले चालीस वर्षो में सामूहिक परवारो का विखंडन हुआ है, उसके लिए सबसे अधिक जिम्मेदार महिलाओ की असमनव्य् की प्रवर्ति रही है और इस असमन्वय की प्रवृत्ति को जन्म दिया है उनकी वाचालता ने।
वाचालता में सबसे बड़ा दोष यह है कि वाचाल व्यक्ति, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष अकेला नही रह सकता। बातचीत करने के लिए अधिक व्यक्ति की अनिवार्यता होती है। इसलिए वाचाल व्यक्ति के कुसंगति में फंसना बहुत आसान होता है। अच्छी बाते करने वाले लोग प्रथम तो मिलते ही नही और यदि मिलते भी है तो वे अधिक बात करना पसंद नही करते। ऐसी स्थिति में वाचाल लोगो के लिए कुसंगति ही एकमात्र साधन रह जाता है तथा यह कुसंगति उनके जीवन का सर्वनाश कर देती है। इसलिए बालिकाओ को छोटी उम्र से ही कम बोलने की आदत डालनी चाहिए।इससे उन्हें एक ओर आत्मचिंतन व जप करने के लिए समय मिलेगा वहीँ दूसरी ओर उनकी समन्वय करने की शक्ति धीरे-धीरे स्वतः ही बढ़ती चली जाएगी। यदि बालिकाए ऐसा कर सकी तो आज जहाँ पर प्रत्येक परिवार टूटता, बिखरता हुआ नजर आ रहा है, वहां परिवार भविष्य में आपस में जुड़ने लगेंगे।
पिछले चालीस वर्षो में सामूहिक परवारो का विखंडन हुआ है, उसके लिए सबसे अधिक जिम्मेदार महिलाओ की असमनव्य् की प्रवर्ति रही है और इस असमन्वय की प्रवृत्ति को जन्म दिया है उनकी वाचालता ने।
वाचालता में सबसे बड़ा दोष यह है कि वाचाल व्यक्ति, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष अकेला नही रह सकता। बातचीत करने के लिए अधिक व्यक्ति की अनिवार्यता होती है। इसलिए वाचाल व्यक्ति के कुसंगति में फंसना बहुत आसान होता है। अच्छी बाते करने वाले लोग प्रथम तो मिलते ही नही और यदि मिलते भी है तो वे अधिक बात करना पसंद नही करते। ऐसी स्थिति में वाचाल लोगो के लिए कुसंगति ही एकमात्र साधन रह जाता है तथा यह कुसंगति उनके जीवन का सर्वनाश कर देती है। इसलिए बालिकाओ को छोटी उम्र से ही कम बोलने की आदत डालनी चाहिए।इससे उन्हें एक ओर आत्मचिंतन व जप करने के लिए समय मिलेगा वहीँ दूसरी ओर उनकी समन्वय करने की शक्ति धीरे-धीरे स्वतः ही बढ़ती चली जाएगी। यदि बालिकाए ऐसा कर सकी तो आज जहाँ पर प्रत्येक परिवार टूटता, बिखरता हुआ नजर आ रहा है, वहां परिवार भविष्य में आपस में जुड़ने लगेंगे।
(6) खेल - बालक-बालिकाओ के मानसिक व शारीरिक विकास के लिए खेल एक अनिवार्य आवश्यकता है। पहले जब जनसंख्या कम थी, प्रत्येक घर आँगन में खेलने के लिए पर्याप्त स्थान व सुविधा उपलब्ध होती थी, लेकिन अब दुनिया सिकुड़ती जा रही है। इस सिकुड़ती दुनिया के साथ लोगो की बुद्धि भी संकुचित होती जा रही है। इस बुराई से मुक्ति के लिए खेल व खेल-भावना की बड़ी आवश्यकता है। बालिकाओ को समयानुकूल घरो में ही खेले जाने वाले खेलो का अविष्कार करना चाहिए जिससे उनमे सहनशीलता, न्याय व खेल-भावना का उदय हो। खेल के द्वारा व्यक्ति ईमानदारी व परिस्थिति की वास्तविकता को समझने की शक्ति को बहुत आसानी से अर्जित कर सकता है, किंतु शर्त यह है कि ये खेल ऐसे हो जो शरीर व बुद्धि के विकास में सहयोग देंने वाले हो। जब घरो में खेल उपलब्ध होंगे तो बालक-बालिकाओ का घर से बाहर निकलकर गलियारों में घूमना भी स्वाभाविक रूप से बन्द हो जाएगा।
(7) अन्य गृह कार्य - बालिकाओ को अन्य गृह कार्यो जैसे भोजन बनाना, सिलाई, बुनाई, पशुओ की देख-रेख, घर का हिसाब किताब, समारोहों व उत्सवो में व्यवस्था, व्यावसायिक कार्यो में सहयोग, आदि कार्यो में भी माता-पिता का सहयोग देकर निपुणता अर्जित करनी चाहिए ताकि विवाहोपरांत वे एक उत्तरदायी गृहिणी के रूप में अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह कर सके।.....Next
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